क्या धर्मेंद्र प्रधान की लगेगी लॉटरी ?
‘तेरे जयकारों के शोर से इस कदर बहरा हो गया हूं मैं,
कि अपनी आती-जाती सांसों को भी नहीं सुन पाता हूं मैं,
अब तलक कितना जिंदा हूं हर पल टटोल कर देखता हूं मैं’
इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में चमत्कार को नमस्कार है! खुद भाजपा व संघ वालों को भी इस बात का इल्म नहीं था कि एनडीए को इस बार बिहार में इतनी बंपर जीत मिलेगी कि सफलता का आंकड़ा दो सौ को भी पार कर जाएगा। मोदी व शाह के बाद इस चुनाव में भाजपा के जो दो नेता सबसे ज्यादा एक्टिव दिखे, वे हैं केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और सीआर पाटिल। धर्मेंद्र प्रधान के पास न केवल भाजपा को चुनाव में संभालने की जिम्मेदारी थी, बल्कि उन्हें एनडीए के घटक दलों में आपसी तालमेल बिठाए रखने का जिम्मा भी सौंपा गया था, वहीं सीआर पाटिल के पास चुनाव के ‘मैक्रो मैनेजमेंट’ की जिम्मेदारी थी, साथ ही उनके पास ही बूथ मैनेजमेंट की भी अहम जिम्मेदारी थी। प्रधान का बिहार कनैक्शन सर्वप्रथम 2010 में बना था, जब ये बिहार के भाजपा प्रभारी बनाए गए थे। फिर अचानक एकदम से उन्हें इस बार चुनाव से ऐन पहले सितंबर 2025 में भाजपा ने बिहार चुनाव का प्रभारी बना दिया। अब से पहले इस काम को विनोद तावड़े अंजाम दे रहे थे।
प्रधान को भाजपा चाणक्य अमित शाह के बेहद भरोसेमंदों में शुमार किया जाता है। 2010 में जब धर्मेंद्र प्रधान को भाजपा ने बिहार का प्रभारी बनाया तब उस चुनाव में एनडीए की रिकार्ड तोड़ 206 सीटें आई थीं, इसके बाद 2012 में प्रधान को बिहार से ही राज्यसभा में भेज दिया गया था।
उन्हें जिन चुनावों की पार्टी ने महती जिम्मेदारी सौंपी वे वहां कमल खिलाने में कामयाब रहे। हालिया दिनों में उन्हें ओडिशा और हरियाणा का प्रभार सौंपा गया था, इत्तफाक से इन दोनों ही राज्यों में भाजपा की विजय ध्वज फहरा गई। सो भाजपा शीर्ष ने बिहार चुनाव की पूर्व संध्या पर उन्हें बेहद उम्मीदों के साथ बिहार भेजा था और प्रधान इस कसौटी पर खरे उतरे।
भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि अगर सब कुछ भाजपा शीर्ष के उम्मीदों के अनुरूप चला तो कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले नए साल में धर्मेंद्र प्रधान के रूप में भाजपा को अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाए।’
अब बात सीआर पाटिल की
इस बार बिहार विधानसभा चुनाव के ‘मेक्रो मैनेजमेंट’ की जिम्मेदारी पार्टी ने केंद्रीय मंत्री सीआर पाटिल को सौंपी, जो गुजरात के पाटीदार समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, ये हैं तो मूलतः महाराष्ट्र के जलगांव के, पर इनकी राजनीतिक कर्मभूमि गुजरात रही है। इन्हें चुनावी ‘मेक्रो व माइक्रो मैनेजमेंट’ का मास्टर माना जाता है, सो संगठनात्मक कार्यों में भी ये उतने ही दक्ष हैं। बिहार में इन्होंने अपनी पहचान एक कुर्मी नेता के तौर पर स्थापित की। पार्टी में इन्हें मोदी व शाह दोनों का ही बेहद भरोसेमंद माना जाता है, इससे पहले ये 2015 में बिहार में काम कर चुके थे। सो इस बार उन्हें भी चुनाव की ऐन बेला में धर्मेंद्र प्रधान के साथ सितंबर 2025 में सह प्रभारी बनाकर बिहार भेजा गया। इसके अलावा पाटिल को बूथ मैनेजमेंट में भी दक्षता हासिल है, बिहार में सुचारू व आक्रामक बूथ मैनेजमेंट करने के लिए वे गुजरात से पार्टी कार्यकर्ता लेकर आए थे। धर्मेंद्र प्रधान के समानांतर किसी पार्टी नेता का कद बिहार चुनाव के बाद इस कदर अभ्युदित हुआ है तो वे हैं सीआर पाटिल। सो निकट भविष्य में इनके कद में भी और इजाफा हो सकता है।
अपने गढ़ में ही क्यों हार गए उमर?
इस उप चुनाव में उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस को अपने गढ़ बड़गाम में ही मुंह की खानी पड़ी है, ऐसा लगता है कि महबूबा मुफ्ती की पीडीपी ने उमर के हाथों से यह निवाला छीन लिया है। सनद रहे कि श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित बड़गाम हमेशा से फारूक अब्दुल्ला परिवार के नेशनल कांफ्रेंस के एक मजबूत गढ़ में शुमार रहा है। इस बार 1977 के बाद पहली बार एनसी ने यह सीट गंवाई है। वह भी उस सूरत में जबकि इस बार बड़गाम उप चुनाव को उमर अपनी नाक का सवाल बना चुके थे और पूरे चुनाव प्रचार का नेतृत्व भी वे स्वयं कर रहे थे। आम तौर पर देखा गया है कि उप चुनाव की सीट अमूमन सत्तारूढ़ पार्टी के हक में जाती है। सनद रहे कि उमर ने इस दफे के चुनाव में दो सीटों पर अपनी जीत दर्ज की थी, इसमें से एक सीट थी बड़गाम। इस बार पीडीपी ने अब्दुल्ला परिवार से यह सीट छीन कर फिर से 2002 की वह यादें ताजा कर दी हैं जब उमर अपने परिवार की परंपरागत गंदरबल सीट से भी चुनाव हार गए थे।
उमर को अभी अपनी पार्टी में ही कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है, श्रीनगर के मौजूदा एनसी सांसद रूहुल्ला के बागी तेवरों से उमर की परेशानियों पर बल हैं। भाजपा व केंद्र सरकार के प्रति उमर के लचीले रवैये ने कश्मीरी जनता के मन में संदेह के नए बीज पैदा कर दिए हैं, शायद इसी बात की कीमत उमर को आगे भी चुकानी पड़ सकती है।
जाने पीके का क्या होगा आगे
नेपथ्य के रचे स्वांगों और नए सियासी शंखनाद से बिहार में अपनी नई पारी के आगाज़ का दंभ भरने वाले पीके यानी प्रशांत किशोर और उनकी नवसृजित जनसुराज पार्टी का अब क्या होगा? वह भी वैसी सूरत में जबकि उनकी पार्टी बिहार में कुल 2 फीसदी वोट शेयर नहीं ला पाई हो और उनके कुल 238 में से 236 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो चुकी हो। वैसे भी पीके ने चुनाव से पहले ही यह कहकर अपने लिए ‘एक्जिट विंडो’ तैयार कर रखी थी कि अगर नीतीश कुमार की जदयू की इस चुनाव में 25 से ज्यादा सीटें आ गई तो वे राजनीति छोड़ देंगे।
पीके अपने हर इंटरव्यू में कहते रहे कि उनकी पार्टी इन चुनावों में अर्ष पर होगी या फर्श पर। बकौल पीके- ‘जन सुराज की सीटें या तो 170 के पार होंगी या फिर हम 10 से नीचे रह जाएंगे।’ वहीं इन बातों से बेखबर पीके अपना बोरिया-बिस्तर समेट चेन्नई की फ्लाइट पकड़ने को बेकरार हैं, जहां तमिलनाडु चुनाव में वे एक्टर विजय को बतौर चुनावी रणनीतिकार अपनी सेवाएं दे सकते हैं। इस बारे में विजय से पूर्व में उनकी कई मुलाकातें भी हो चुकी हैं।
...और अंत में
इस दफे के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान, जीतन मांझी व उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने से माना जाता है कि कम से कम 42 सीटों पर नीतीश कुमार की जदयू को इसका फायदा मिला है। 2020 के मुकाबले भाजपा की सीटें तो 12 के आसपास बढ़ी, पर भगवा पार्टी की जीत का स्ट्राइक रेट 88 फीसदी के पार चला गया। नीतीश की सीटें लगभग डबल हो गई। चिराग की जीती सीटें डेढ़ दर्जन के आसपास पहुंच गई, मांझी और कुशवाहा की भी बल्ले-बल्ले हो गई। पर अब यह कोई नहीं पूछ रहा कि मल्लाह वोट एनडीए के साथ ही क्यों चला गया?
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