क्या नेपाल फिर बनेगा हिन्दू राष्ट्र ?
2007 से पहले नेपाल में राजा को हिन्दू देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता था। राजा को…
2007 से पहले नेपाल में राजा को हिन्दू देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता था। राजा को विष्णु का अवतार समझा जाता था आैर उनके दर्शन के लिए आम लोगों की लम्बी-लम्बी कतारें लगती थीं जैसे िकसी बड़ी मान्यता वाले मंदिर में लगती हैं। नेपाल दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था लेकिन बंदूक की नोक से निकली क्रांति के चलते 28 मई 2008 काे राजशाही का अंत हो गया और वहां आधा-अधूरा लोकतंत्र स्थापित हो गया। भारत के एक बड़े वर्ग में नेपाल के हिन्दू राष्ट्र के अंत की कसक अब तक मौजूद है। नेपाल में हिन्दू राजशाही के पतन के बहुत से कारण रहे। सबसे बड़ा कारण यह रहा कि राजशाही ने जन-भावनाओं का सम्मान करना छोड़ दिया था। राजमहल में खूनी षड्यंत्रों को अंजाम दिया गया और जनता की इच्छाओं को लगातार कुचला जाता रहा। भारत के पड़ोसी देश में राजशाही आैर हिन्दू राष्ट्र की मांग ने हिंसक आंदोलन का रूप ले लिया है। काठमांडाै और कई अन्य क्षेत्रों में प्रदर्शनकारियों आैर सुरक्षा बलों की झड़पों में दो लोगों की मौत हो गई और कई लोग घायल हुए। नेपाल सरकार ने सेना को तैनात कर कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया है। नेपाल की जिस जनता ने राजशाही को खत्म करके लोकतंत्र में भरोसा जताया था आज उसी का कम्युनिस्ट सरकार से मोह भंग हो चुका है। लोकतंत्र के नाम पर कम्युनिस्ट सरकार चीन की कठपुतली बन गई है और उसने नेपाल को चीन की गोद में डाल दिया है। जनता अपने आप काे ठगी हुई महसूस कर रही है। ऐसे में जनता का एक वर्ग नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने, पूर्व नरेश ज्ञानेन्द्र शाह की वापसी और राजशाही की पुनर्स्थापना की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आया है। नेपाल की जनता सरकार से पूरी तरह हताश और निराश है। लोकतंत्र से जनता की उम्मीदें टूट चुकी हैं क्योंकि हालात राजशाही से भी बदतर हो चुके हैं। राजशाही के पतन के बाद इस हिमालयी देश में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है।
नेपाल में बीते 17 साल में 14 सरकारें बदल चुकी हैं। लोकतंत्र की जीवंतता बनाए रखने के लिए राजनीतिक स्थिरता, लोकतांत्रिक स्थिरता, लोकतांत्रिक संस्थाओं का कामकाज और नेताओं का नेतृत्व, लोगों की भागीदारी सब जरूरी होती है लेकिन लोकतंत्र की खूबसरती बनाए रखने में नेपाल के सियासी दल नाकाम हुए हैं। आपसी खींचतान, एक-दूसरे को पटखनी देने और सरकार में बने रहने के लिए ये सत्ता समीकरणों में उलझे रहे हैं। देश, लोगों और अर्थव्यवस्था की परवाह इन्होंने नहीं की। ये एक-दूसरे को नीचे गिराने में, अपनी रोटी सेंकने के लिए आपस में ही उलझे रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि महंगाई, बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई है। अर्थव्यवस्था की बुरी हालत है। भ्रष्टाचार चरम पर है। घपले, घोटाले की भरमार है। चाहे नेपाल कांग्रेस हो या कम्युनिस्ट सभी ने लोगों को निराश किया है। लोगों को इनमें अब कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है। लोगों को लगने लगा है कि इन राजनीतिक दलों ने देश आैर उनका बेड़ा गर्क कर दिया है। इससे अच्छी राजशाही थी। जनता के आक्रोश का प्रमाण है कि पूर्व नरेश ज्ञानेन्द्र के स्वागत के लिए हजारों लोग उमड़ रहे हैं। पिछले तीन महीनों में ज्ञानेन्द्र ने नेपाल के विभिन्न हिस्सों का दौरा किया। इस दौरे से उनकी लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई। उन्होंने अपने सम्बोधनों में वर्तमान राजनीति की आलोचना करते हुए नेपाल के इतिहास काे मिटाने की प्रवृति पर चिन्ता जताते हुए नेपाल के राजनीतिक दलों पर सीधा प्रहार किया। उन्होंने नेपाल की पूर्व हिन्दू राष्ट्र की स्थिति का उल्लेख करते हुए जातीय पहचान मिटाने के खतरे की आशंका जताई। नेपाल की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, चीन के बढ़ते कर्ज, उद्योगों के गिरते स्तर आैर शिक्षा संस्थानों की खस्ता हालत पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
राजशाही की वापसी की मांग और पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र के प्रति लोगों की बढ़ती लोकप्रियता ने नेपाल के कम्युनिस्ट दल, विशेष रूप से प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली के नेतृत्व वाली ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ (संयुक्त मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और पूर्व माओवादी विद्रोही पुष्प कमल दहल (प्रचंड) के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केन्द्र)’ काफी चिंतित हैं। यहां तक कि सबसे बड़े राजनीतिक दल नेपाली कांग्रेस (एनसी) को भी राजशाही समर्थकों के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंता हो रही है। पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र को ‘राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी’ और ‘राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी नेपाल’ का समर्थन है। ये दोनों दल नेपाल में संवैधानिक राजशाही की बहाली आैर देश को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर रहे हैं।
नेपाल के लोगों का मानना है कि उनकी हिन्दू पहचान की रक्षा केवल राजशाही ही कर सकती है। नेपाल कभी भी किसी का उपनिवेश नहीं रहा। विकास के नाम पर देश की सरकारों ने लोगों का शोषण ही किया है। नेपाल के लोगों का भारत के साथ रोटी-बेटी का संबंध है लेकिन कम्युनिस्ट सरकारों ने नेपाल को चीन का उपनिवेश बनाकर रख दिया है। भारत विरोधी सरकारों ने देश को बहुत नुक्सान पहुंचाया है जिससे जनता के हितों पर कुठाराघात हुआ है। नेपाल में राजशाही समर्थकों के बढ़ते प्रभाव आैर जनता के आक्रोश ने नेपाल को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। पूर्व नरेश ज्ञानेन्द्र ने हाल ही में प्रयागराज, लखनऊ और गोरखपुर की यात्रा की थी। राजशाही परिवार के संबंध हमेशा ही भारत के साथ बहुत मधुर रहे हैं। देखना होगा कि आने वाले दिनों में नेपाल की राजनीति क्या मोड़ लेती है। जनता के नारे हर जगह गूंज रहे हैं। राजा आओ देश बचाओ, क्या नेपाल में पुनः राजशाही स्थािपत होगी? क्या नेपाल को हिन्दू राष्ट्र का दर्जा फिर मिलेगा? इन सभी सवालों का जवाब भविष्य के गर्भ में है।