क्या राहुल खोई हुई जमीन हासिल कर पायेंगे?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी एक बार फिर चर्चा में हैं, पहले अरुण जेतली प्रकरण और अब “वोट चोरी” वेबसाइट का विवाद। पहले संदर्भ समझिए: लोकसभा में विपक्ष के नेता जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए ‘झूठ बोलना’ जैसा शब्द बहुत कठोर है। इसलिए इसे ‘तथ्यों में उलझन’ कहना ज़्यादा उचित होगा। सौभाग्य से गांधी ने यह टिप्पणी संसद के बाहर की, वरना उन पर सदन को गुमराह करने का आरोप लग सकता था।
पार्टी के एक सम्मेलन में भाषण देते हुए गांधी ने अरुण जेतली की कथित ‘धमकी’ का ज़िक्र करते हुए कहा-मुझे याद है, जब मैं कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ रहा था, अरुण जेतली जी को मुझे धमकाने के लिए भेजा गया। उन्होंने कहा, ‘अगर तुम सरकार का विरोध जारी रखोंगे और कृषि कानूनों के खिलाफ लड़ोंगे तो हमें तुम्हारे खिलाफ कार्यवाही करनी पड़ेगी। गांधी ने आगे कहा-मैंने उनकी ओर देखकर जवाब दिया, ‘शायद आपको अंदाज़ा नहीं है कि आप किससे बात कर रहे हैं। हम कांग्रेस के लोग हैं, हम कायर नहीं हैं। हम कभी झुकते नहीं, अंग्रेज जैसे महाशक्ति हमें नहीं झुका पाए तो आप कौन होते हैं?’ मगर यहां एक बड़ा विरोधाभास है- जानबूझकर या अनजाने में कहना मुश्किल है। सच यह है कि किसानों का आंदोलन, जेतली के निधन के एक साल बाद हुआ था।
बात को यहीं न छोड़ते हुए, दिवंगत केंद्रीय मंत्री के बेटे रोहन जेतली ने राहुल गांधी के दावे को ‘पूरी तरह झूठा और तथ्यों से रहित’ बताते हुए खारिज कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि गांधी ‘बिना तथ्यों के बयान देने का इतिहास’ रखते हैं। रोहन ने कहा-मेरे पिता का निधन 2019 में हुआ, जबकि कृषि कानून 2020 में लाए गए। यह न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि लोकसभा में विपक्ष के नेता जैसे पद पर बैठे व्यक्ति के लिए बेहद गैर-जिम्मेदाराना भी है।
भाजपा ने भी राहुल गांधी के बयान को ‘फेक न्यूज’ और ‘बेसिर-पैर की आरोपबाज़ी’ करार दिया। पार्टी ने तथ्य रखते हुए बताया कि कृषि विधेयक का मसौदा 3 जून 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल में लाया गया और सितंबर 2020 में इन्हें कानून का रूप दिया गया, जबकि अरुण जेतली का निधन 24 अगस्त 2019 को हो गया था। भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने कहा-यह सुझाव देना कि अरुण जेतली जी ने किसी भी तरह उनसे संपर्क किया, तथ्यात्मक रूप से गलत और भ्रामक है। आइए तथ्यों पर टिकें और अपनी सुविधा के लिए समय रेखा को न बदलें।
वहीं, कांग्रेस ने अपने नेता के बयान का बचाव करते हुए कहा कि भले ही कृषि कानून जेतली के निधन के एक वर्ष बाद लाए गए हों लेकिन वे भाजपा सरकार के “लंबे, सोचे-समझे, किसान विरोधी एजेंडे की परिणति” थे। हालांकि पार्टी यह भूल गई या शायद भूलने का चुनाव किया कि निधन से कुछ माह पहले ही जेतली गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे थे। उसी वर्ष, उन्होंने खराब स्वास्थ्य के कारण केंद्रीय वित्त मंत्री का पद छोड़ दिया था। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जेतली ने कहा था कि वे पिछले 18 महीनों से गंभीर स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और उन्हें स्वास्थ्य लाभ की आवश्यकता है। यह पत्र मई 2019 में लिखा गया था। साधारण गणना से 18 महीने पीछे जाने पर समय शुरुआती 2018 का बनता है। ऐसे में कांग्रेस का यह तर्क कि आंदोलन एक लंबी लड़ाई की परिणति था, टिकता नहीं है। यह सही है कि आंदोलन केंद्र सरकार द्वारा कृषि विधेयकों का मसौदा मंज़ूर होने से पहले शुरू हो गया था लेकिन यह निश्चित रूप से उस समय नहीं था जब जेतली राजनीतिक रूप से सक्रिय थे।
जून 2020 में मोदी मंत्रिमंडल ने तीन कार्यकारी आदेश पेश किए, जिन्हें सितंबर में लोकसभा से पारित कराया गया। इसके तुरंत बाद केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफ़ा दे दिया, यह कहते हुए कि यह कानून ‘किसान विरोधी’ हैं। किसान भी सड़कों पर उतर आए, रेल की पटरियां और राष्ट्रीय राजधानी की ओर जाने वाले राजमार्ग ट्रकों, ट्रैक्टरों और कंबाइन हार्वेस्टर्स से अवरुद्ध कर दिए। समय-रेखा की गड़बड़ी से अलग, गांधी का दिवंगत जेतली के राजनीतिक अंदाज का आंकलन भी चूक गया। जेतली एक अलग ही किस्म के राजनेता थे, इतने परिष्कृत कि ‘धमकी’ जैसे हथकंडों का इस्तेमाल करना उनके स्वभाव में नहीं था। राजनीति में और उसके बाहर, जिन्हें लोग जेतली के रूप में जानते थे, वे कोई ऐसे दबंग नहीं थे जो किसी को बुलाकर अंजाम की चेतावनी दें, जैसा कि गांधी के बयान से प्रतीत होता है। अगर ऐसा करना होता तो जेतली इतने कुशल थे कि संदेश अप्रत्यक्ष रूप से भिजवा देते, बजाय खुले तौर पर टकराव में आने के और जहां तक परिणामों की बात है, उनमें भी गांधी को पहले से चेताने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
रोहन जेतली ने विपक्ष के नेता के पद से जुड़ी जिम्मेदारियों के संदर्भ में बिल्कुल सटीक टिप्पणी की- इस पद के लिए परिपक्वता और गंभीरता चाहिए, न कि तात्कालिक, लापरवाह बयान, जैसा कि गांधी अक्सर देते हैं। हां, मगर सड़क की राजनीति में गांधी माहिर हैं। वे ऐसे मुद्दे उठाते हैं जो सीधे जनभावनाओं को छूते हैं। हाल ही में उन्होंने एक वेब पेज शुरू किया, जहां लोग पंजीकरण कर चुनाव आयोग (ईसीआई) से ‘वोट चोरी’ के ख़िलाफ जवाबदेही तय करने और डिजिटल मतदाता सूची लागू करने की मांग का समर्थन कर सकते हैं। गांधी ने कहा-हमारी चुनाव आयोग से मांग साफ है- पारदर्शिता दिखाइए और डिजिटल मतदाता सूची सार्वजनिक कीजिए, ताकि जनता और राजनीतिक दल खुद इसका ऑडिट कर सकें। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे वेबसाइट पर पंजीकरण कर इस मांग का समर्थन करें। पोर्टल पर एक संदेश भी है जिसमें लिखा गया है कि वोट हमारे लोकतंत्र की नींव है लेकिन यह ‘भाजपा द्वारा सुनियोजित हमले’ के तहत है और इसमें चुनाव आयोग ‘सहयोगी’ है।
संदेश में कहा गया है, कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पहले भी चेतावनी दे चुके हैं, जिसमें महाराष्ट्र भी शामिल है। अब हमारे पास सबूत है। हम इस वोट चोरी के खिलाफ पूरी ताकत से लड़ेंगे। हमारे साथ जुड़ें और लोकतंत्र की रक्षा करें। हालांकि, इस अभियान के बीच एक कांग्रेस मंत्री द्वारा पार्टी हाईकमान को निशाना बनाना, एक अलग मामला है। फिर भी ‘वोट चोरी’ अभियान जनता के बीच असर डालने की संभावना रखता है ठीक वैसे ही जैसे पिछली लोकसभा चुनाव में ‘संविधान बचाओ’ का नारा गूंजा था। 2024 में गांधी ने अन्य विपक्षी नेताओं के साथ जेब में संविधान की प्रति रखकर भाजपा के खिलाफ चुनाव प्रचार किया था। संविधान की प्रति हाथ में लेकर गांधी ने दलितों, आदिवासियों, गरीबों और अल्पसंख्यकों से अपील की थी कि वे ‘इस संविधान की रक्षा करें।’ उस समय उन्होंने 2024 का चुनाव ‘लोकतंत्र और संविधान बचाने का चुनाव’ करार दिया था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि भाजपा सत्ता में आई तो संविधान बदल देगी। यह प्रचार भाजपा के खिलाफ असरदार साबित हुआ ‘एक ओर नरेंद्र मोदी जी और भाजपा हैं जो इसे (संविधान) खत्म करना चाहते हैं, और दूसरी ओर कांग्रेस है जो संविधान की रक्षा कर रही है,’ गांधी ने तब कहा था।
भाजपा बहुमत से पीछे रह गई और सरकार बनाने के लिए अन्य दलों का समर्थन लेना पड़ा। वहीं इंडिया गठबंधन ने 200 से अधिक सीटें जीतीं और कांग्रेस अकेले 99 सीटों पर पहुंची। चुनाव के बाद भी कांग्रेस नेताओं द्वारा संविधान का मुद्दा उठाना पार्टी के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ और भाजपा को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया। इसलिए, भले ही
जेतली वाले मुद्दे पर गांधी कमजोर स्थिति में हों, वे ‘वोट की चोरी’ अभियान के जरिए पिछले साल के ‘संविधान बचाओ’ की तरह, खोई हुई ज़मीन फिर हासिल कर सकते हैं। असली परीक्षा होगी इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव।