शाह का प्रण पूरा होगा?
श्री अमित शाह स्वतन्त्र भारत के एेसे पहले गृहमन्त्री हैं जिन्होंने देश से नक्सलवाद और माओवादी हिंसा को समाप्त करने का लक्ष्य रखा और उसे समय से पूरा करने की रणनीति तैयार की। उन्होंने नक्सलवादियों से बातचीत का रास्ता नहीं चुना बल्कि उनके द्वारा आत्मसमर्पण करने को अपना अभीष्ट बनाया। श्री शाह बहुत सख्त गृहमन्त्री माने जाते हैं क्योंकि हिंसा के मामले में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से नक्सलियों द्वारा आत्मसमर्पण का है। श्री शाह ने देशवासियों को आश्वासन दिया है अगले वर्ष अप्रैल महीने तक नक्सलवाद जड़ से समाप्त हो जायेगा। अपने इसी प्रण को पूरा करने की दिशा में उन्होंने नक्सलवादियों को चुनौती दी कि उनके किसी भी बड़े से बड़े सरगना को छोड़ा नहीं जायेगा। इस सिलसिले में कल ही सुरक्षा बलों ने आन्ध्र प्रदेश के जंगलों में एक करोड़ के इनामी दुर्दान्त माओवादी कमांडर माडवी हिडमा को मार गिराया और उसके साथ अन्य पांच नक्सलियों को भी मौत के घाट उतार दिया। हिडमा को छत्तीसगढ़ का आंतक भी कहा जाता था। उसे मार गिरा कर सुरक्षा बलों ने अपने नक्सली हिंसा को समाप्त करने के अभियान को निर्णायक सफलता की ओर बढ़ा दिया है।
एेसा माना जा रहा है कि श्री शाह के दृढ़ रुख को देखते हुए देशभर से नक्सलियों व माओवादियों का सफाया निश्चित प्रायः है। श्री शाह को जहां एक तरफ भाजपा का चाणक्य कहा जाता है वहीं दूसरी ओर उन्हें अपना वचन हर कीमत पर रखने वाले नेता के रूप में भी देखा जाता है। श्री शाह ने बहुत पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि आगामी वर्ष के अप्रैल महीने तक नक्सली आतंकवाद को जड़ से समाप्त कर दिया जायेगा। इसी क्रम में श्री शाह ने सुरक्षा बलों को लक्ष्य दिया था कि वे 30 नवम्बर तक दुर्दान्त माओवादी माडवी हिडमा को जिन्दा या मुर्दा पकड़ें। सुरक्षा बलों ने 18 नवम्बर को ही हिडमा का खात्मा करके साफ कर दिया है कि आगामी 30 नवम्बर तक वे अन्य नक्सलियों को पकड़ने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हिडमा इतना खूंखार था कि वह नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों पर किये गये 26 हमलों में शामिल था। उसकी पत्नी राजे भी उसके कारनामों में शामिल रहती थी। मगर पुलिस व अन्य केन्द्रीय सुरक्षा बलों ने जो माओवादियों व नक्सलियों को समाप्त करने का अभियान छेड़ रखा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है श्री शाह का देशवासियों को दिया गया आश्वासन पक्के तौर पर पूरा होगा। हिडमा के मारे जाने से छत्तीसगढ़ के जंगल ज्यादा सुरक्षित हो सकेंगे।
दरअसल नक्सलवाद भारत के भीतर एेसी समस्या है जिसका निदान केवल हिंसा के रास्ते को छोड़ देना ही है। दरअसल नक्लवाद एक एेसी मानसिकता है जो भारतीय संविधान को नहीं मानती और अपना ही शासन चलाये रखने की बात करती है और बखान करती है कि सत्ता बन्दूक की नली से पैदा होती है न कि चुनावों से। पिछली मनमोहन सरकार के दौर में यह समस्या अपने उग्र रूप में थी। छत्तीसगढ़ में नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावी थे। अतः इस राज्य के बस्तर व सुकमा जिले घोषित रूप से नक्सली हिंसा के शिकार थे। नक्सलवाद पर संसद में भी गंभीर चर्चा कई बार हुई है। संसद का शीतकालीन सत्र दिसंबर महीने के पहले हफ्ते से ही शुरू हो रहा है। अतः संसद में नक्सलवाद के मुद्दे पर भी गहन चर्चा होनी चाहिए। संसद में हुई बहस का बहुत महत्व होता है। मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान नक्सलियों की हिंसा चरम पर थी जिसमें नक्सली पुलिस व सुरक्षा बलों के जवानों की सामूहिक तौर पर हत्याएं किया करते थे। नक्सली हिंसा की वजह से ही छत्तीसगढ़ का विकास बहुत धीमा रहा है। मगर जब से श्री शाह ने गृह मन्त्रालय संभाला है तब से लेकर आज तक नक्सलियों की कार्रवाइयां श्री शाह के निशाने पर रही हैं।
भारत के लोकतन्त्र में गृह मन्त्रालय को विशेष दर्जा प्राप्त होता है क्योंकि यही मन्त्रालय राज्यों में कानून-व्यवस्था की समीक्षा करता रहता है। मगर नक्सली सबसे पहले कानून व्यवस्था का राज ही समाप्त करते हैं अतः लोकतन्त्र की सफलता के लिए जरूरी है कि इसके चारों खम्भे (विधायिका, कार्य पालिका न्यायपालिका व चुनाव आयोग) स्वाभिमान से भरे रहें और संविधान के अनुसार काम करें। माओवादी हिडमा की मौत से किसी भी सुधारात्मक कदम को वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि भारत की विविधता बताती है कि सरकारें लोक कल्याण मूलक हों। सरकार की नजर में हर भारतीय नागरिक होता है और उसे संविधान के अनुसार अधिकार व कर्त्तव्य भी मिले होते हैं लेकिन नक्सलपंथियों ने छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों को जिस विकास से दूर रखा है उन्हें अब त्वरित रूप से पूरा करने का समय आ गया है। बेशक अप्रैल आने में अब चार महीने का समय ही बचा है परन्तु हिडमा की मौत से यह तय हो गया है कि भारत में संविधान को चुनौती देने वाली ताकतों को कोई भी सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी। हिडमा जब 10 वर्ष का था तभी से नक्सलवाद के विचारों में वह रम गया था। वह हिंसा को ही सामाजिक-राजनीतिक बदलाव का जरिया मानता था। जबकि गृहमन्त्री ने संसद से लेकर सड़क तक देश की जनता को यह बताने की कोशिश की है कि भारत में अहिंसा का मतलब कमजोरी नहीं होता, बल्कि कमजोर को ऊपर उठाने से होता है। हिडमा की पुलिस मुठभेड़ में हुई मौत इस बात की गवाह है कि संविधान को न मानने वाले लोगों को उनकी ही भाषा में जवाब देना भारत की सरकार को आता है।

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