प्रतिभा पलायन रुकेगा ?
भारत से वैज्ञानिकों व शोधार्थियों का पलायन रोकने के लिए केन्द्र सरकार ऐसी नीतिगत योजना की शुरूआत कर रही है जिससे विदेशों में जाकर बसे विज्ञान व टैक्नोलॉजी के प्रतिष्ठित लोग वापस आ सकें। भारत में उन्हें सभी शाेध सुविधाएं देने की भारत सरकार की योजना है। साथ ही भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में इस क्षेत्र के विद्वानों को वापस लाने के लिए भी सरकार ऐसी नीति बना रही है जिससे भारत के विश्वविद्यालयों में वे शिक्षण कार्य कर सकें। भारत भूला नहीं है कि किस प्रकार साठ के दशक में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हर गोविन्द लाल खुर्राना की उपेक्षा हुई थी और अमेरिका जाकर बसने के बाद उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुस्कार जीता था। भारत से विज्ञान व टैक्नोलॉजी के क्षेत्र से पलायन रोकने की सरकार की पक्की योजना बन रही है। भारतीय विश्वविद्यालयों में उच्च श्रेणी के शिक्षकों की भारी कमी है अतः भारत सरकार चाहती है कि इस क्षेत्र के जो विशेषज्ञ भारतीय मूल के हैं वे वापस आकर अपनी सेवाएं दे सकें। उनकी सुख-सुविधा के लिए सरकार ऐसी विशद नीति पर काम कर रही है जिसमें वेतन से लेकर अन्य शोध सुविधाओं की उच्च गुणवत्ता को उपलब्ध कराया जा सके। मगर यह सब कुछ इस वजह से किया जा रहा है कि अमेरिका की मौजूदा ट्रम्प सरकार अपने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को दी जानी वाली मदद में कटौती कर रही है और उनकी आर्थिक व शैक्षणिक स्वायत्तता को सीमित कर रही है।
इस सिलसिले में भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के कार्यालय ने शिक्षा मन्त्रालय के उच्च शिक्षा विभाग, विज्ञान व टैक्नोलॉजी विभाग तथा बायोटेक्नोलॉजी विभाग के साथ उच्च मन्त्रणा की है जिससे नई नीति की रूपरेखा तैयार की जा सके। इस नीति के तहत विदेशों में बसे भारतीय वैज्ञानिकों व प्रोफेसरों को भारत आकर अपनी सेवाएं देने के लिए प्रेरित किया जायेगा। भारत में कहने को हजारों विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान भी हैं परन्तु विश्व के 100 प्रथम उच्च शिक्षण संस्थानों में इनकी गिनती नहीं होती है। भारत के विश्वविद्यालयों में योग्य प्राध्यापकों की कमी इस वजह से महसूस की जाती है कि योग्यतम व्यक्ति विदेश चले जाते हैं। भारतीय छात्र भी उच्च शिक्षा पाने की गरज से विदेशों में बड़ी संख्या में जाते हैं। विदेशों के विश्वविद्यालयों में भारतीय शिक्षकों को बेहतर वेतन व अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं जिनका मुकाबला भारत नहीं कर सकता मगर ऐसे शिक्षकों के लिए बेहतर तन्त्र की स्थापना करके उन्हें अपने देश की सेवा करने के लिए प्रेरित जरूर कर सकता है। ऐसी ही हालत विज्ञान के क्षेत्र में शोधार्थियों की हैं । अतः भारत सरकार देश में व्याप्त लाल फीता शाही को तोड़कर शोधार्थियों के लिए प्रेरक वातावरण तैयार करना चाहती है।
विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा इस पैमाने से नापी जाती है कि उनमें किस स्तर के शिक्षक पढ़ाई कराते हैं। इसी प्रकार शोधार्थियों की भी समस्या है। इन्हें भी भारत में अनुकूल वातावरण पाने के लिए नौकरशाही के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं जिसकी वजह से वे विदेशों में पलायन कर जाते हैं। अतः सरकार नीति बना रही है कि विदेशों में जाकर काम कर रहे प्रतिष्ठित शोधार्थियों को भारतीय संस्थानों जैसे आईआईटी आदि में अच्छे पदों पर रखा जाये व तद्नुसार वेतन भी नियत किया जाये। नई योजना के तहत सरकार विज्ञान व टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में कम से कम 12 ऐसे संकायों का चयन करेगी जिनमें उच्च प्रतिभायुक्त वैज्ञानिकों की आवश्यकता होती है। इसमें इंजीनियरिंग व गणित भी शामिल हैं क्योंकि रणनीतिक रूप से राष्ट्रीय क्षमता बढ़ाने के लिए यह जरूरी है। जाहिर है कि एक ओर जब अमेरिका जैसे देश में हारवर्ड विश्वविद्यालय सरीखे शिक्षण संस्थानों की आर्थिक व शैक्षणिक स्वतन्त्रता समाप्त की जा रही है और ट्रम्प प्रशासन इसे दी जाने वाली लाखों डालर की मदद में कटौती कर रहा है तो अमेरिका से यूरोपीय देशों में पलायन बढ़ सकता है। इसी को ध्यान में रखकर यूरोपीय देशों ने अपने उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता को मजबूत करने की घोषणा की है। इसके मद्देनजर विदेशों में कार्यरत भारतीय मूल के उच्च शिक्षकों व शोधकर्ताओं को वापस भारत बुलाने की नीति पर तेजी से काम हो रहा है। हाल ही में इस बाबत यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उरेसिला वांडेर लेयन ने कहा था कि सभी यूरोपीय देश अपने यहां शैक्षणिक स्वायत्तता को इस तरह मजबूत करेंगे कि इसे अपने कानून का हिस्सा बना डालेंगे।
दूसरी तरफ चीन भी विदेशों में बसे अपने वैज्ञानिकों व विदेशी प्रतिष्ठित शोधार्थियों को स्वदेश बुलाने के लिए भारी खर्चा कर रहा है। जबकि ताईवान जैसे छोटे देश ने भी छह नये शोधार्थी केन्द्र खोलने की घोषणा की है। बेशक भारत के कई संस्थान विदेशों में कार्यरत प्रतिष्ठित शिक्षाविदों को लघुकालिक तौर पर भारत में काम करने के लिए उकसा रहे हैं परन्तु इससे भारत की वह जरूरत पूरी नहीं होती जिसकी उसे दीर्घकालिक तौर पर आवश्यकता है। हालांकि भारत सरकार का विज्ञान व टैक्नोलॉजी विभाग विदेशी प्रतिभाओं के साथ लघुकालिक सहयोग कार्यक्रम 2016 से चला रहा है मगर इसके परिणाम ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं हैं। इसकी एक वजह यह है कि भारत में वेतन व सुविधाएं वैश्विक स्तर के मुकाबले बहुत थोड़ी हैं। भारत में जहां एक प्रोफेसर को 38 हजार डालर प्रतिवर्ष की आय होती है वहीं अमेरिका में उसकी आय एक लाख 30 हजार डालर से लेकर दो लाख डालर प्रति वर्ष की होती है जबकि चीन में उसका वेतन एक लाख डालर वार्षिक का पड़ता है। अतः इस तरफ सबसे ज्यादा ध्यान दिये जाने की जरूरत है।