राफेल पर शब्द युद्ध !
NULL
भारत की रक्षा सेनाओं को आधुनिक आयुध सामग्री से सुसज्जित करने का सवाल सीधे भारत के हर वर्ष पेश होने वाले बजट से जुड़ा होता है जिसमें रक्षा मन्त्रालय के लिए बाकायदा धन का आवंटन करके हम तय करते हैं कि हमारे देश की सेनाएं हर समय हर खतरे का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार रह सकें। बेशक यह व्यय गैर योजनागत श्रेणी में होता है क्योंकि इसका सामाजिक-आर्थिक विकास से सरोकार न होकर मुख्य रूप से सीमाओं की सुरक्षा से ताल्लुक होता है और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को सन्तुलित रखने के लिए सैन्य बल से सम्बन्ध रहता है। इसका मतलब यही होता है कि परोक्ष रूप से इस देश का हर आदमी अपनी रोटी के खर्चे में कटौती करके पुख्ता सुरक्षा का इन्तजाम करता है।
अतः भारत के स्वतन्त्र होते ही रक्षा सामग्री की खरीद के लिए समय–समय पर जो प्रक्रिया अपनाई गई वह लगातार ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी व सख्त बनती चली गई। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य इस मोर्चे पर स्व. इन्दिरा गांधी ने किया जब उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू की सोवियत संघ से रक्षा सहयोग के जरिये भारत में रूसी सैनिक साजो-सामान के उत्पादन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बेंगलुरु स्थित हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. कम्पनी की शाखाएं देश के विभिन्न हिस्सों में स्थापित की और सेना की आवश्यकताओं के लिए भी आयुध फैक्टरियों से लेकर फील्ड गन फैक्टरियां स्थापित कीं परन्तु यह कार्य भारत के सम्यक आर्थिक विकास के समानान्तर ही इस प्रकार हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक विकास में सन्तुलन बना रहे अतः सेना के खाते में जो भी धन भारत की सरकार खर्च करती है उसका हिसाब–किताब पूरे एहतियात के साथ रखने की प्रणाली विकसित की गई जिससे देश के साधारण नागरिक को भी यह महसूस हो कि वह अपनी रोटी के खर्च से काट कर जो धन देश की सुरक्षा पर खर्च कर रहा है उसकी पाई-पाई की कीमत देश को मिल रही है।
आज लोकसभा में फ्रांस से खरीदे जाने वाले 36 लड़ाकू विमानों के मुद्दे पर जो गरमा गरम बहस हुई है उसका निष्कर्ष यही निकलता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना हमारा लक्ष्य नहीं रहा है 1991 से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद से हमने जिन दो क्षेत्रों की घनघोर उपेक्षा की वे कृषि क्षेत्र और रक्षा क्षेत्र ही रहे हैं और दुर्भाग्य से इन दोनों का भारत जैसे देश में बहुत गहरा आत्मीय सम्बन्ध है। स्व. नरसिम्हाराव ने 1992 में लालकिले से जिस विदेशी निवेश की जरूरत की हांक लगाई थी उसने हमारी रक्षा उत्पादन इकाइयों की कमर तोड़ कर रख दी और आयुध फैक्टरियों के निजीकरण तक की कोशिशें होने लगीं। इससे पूर्व ही सोवियत संघ के बिखर कर 14 देशों में विभक्त हो जाने के भारत के रक्षा क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का आंकलन करने में लगातार केवल इसलिए चूक गए कि स्व. राजीव गांधी के शासनकाल में एक ऐसे बेसिर-पैर के बोफोर्स तोप खरीद मामले को राजनीति की फुटबाल बना दिया गया था इसके जरिये पश्चिमी ताकतों ने जिस तरह 1989 से भारत की आर्थिक ताकत को तोड़ने का षड्यन्त्र रचा उसी का नतीजा था कि बोफोर्स कांड उठाने वाले वी.पी. सिंह के 11 महीने के शासन के बाद इस देश को अपना सोना गिरवीं रख कर चन्द लाख डालर का ऋण लेना पड़ा था।
हर हिन्तुस्तानी को यह इतिहास याद रखना चाहिए क्योंकि इसके बाद ही पूरे देश में साम्प्रदायिक और जातिवादी कबायली राजनीति का दौर शुरू हुआ जो अभी तक रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। यही वह दौर था जिसमें पड़ोसी पाकिस्तान ने अपनी दुश्मनियों के दस्तरखान खोल कर फिर से कश्मीर समस्या को हवा देनी शुरू की और आतंकवाद को भारत के खिलाफ एक हथियार की तरह प्रयोग करना शुरू किया। दूसरी तरफ हम बोफोर्स की चिंगारी को लगातार सुलगाये रहे और रक्षा बलों की जरूरतों को दबाये रहे। आज राफेल पर रक्षा मंत्री निर्मला सीता रमण और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में तीखी तकरार देखने को मिली। अहम सवाल यह है कि देश के लोगों के धन से बनी कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स के पास विमान बनाने की प्रौद्योगिकी अब तक क्यों नहीं। काश पूर्ववर्ती सरकारों ने रक्षा क्षेत्र में हमारे देश को आत्मनिर्भर बनाने का काम किया होता?