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हरिद्वार से उठे हिंसा के उवाच

स्वतन्त्र भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में जिस प्रकार प्रत्येक नागरिक को एक इकाई मान कर संवैधानिक अधिकारों से लैस किया गया उसमें धार्मिक आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार के भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी

02:00 AM Jan 03, 2022 IST | Aditya Chopra

स्वतन्त्र भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में जिस प्रकार प्रत्येक नागरिक को एक इकाई मान कर संवैधानिक अधिकारों से लैस किया गया उसमें धार्मिक आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार के भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी

स्वतन्त्र भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में जिस प्रकार प्रत्येक नागरिक को एक इकाई मान कर संवैधानिक अधिकारों से लैस किया गया उसमें धार्मिक आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार के भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी और सामाजिक स्तर पर लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी सत्ता पर डाली गई। मगर इससे पूर्व ब्रिटिश भारत में हम देखते हैं कि अंग्रेजों ने 1909 में ही भारत की जनता के बीच धर्म के आधार पर भेदभाव करके भारत की एकता को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया था और मुसलमानों का पृथक मतदाता मंडल गठित किया था। इसके बाद 1919 में सिखों का भी प्रथक मतदाता मंडल गठित किया गया। मगर 1906 में ही मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी और इसके आधार पर हिन्दू व मुस्लिम दोनों की प्रथक राष्ट्रीयता की बात होने लगी थी। इसमें किसी को आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है कि मुहम्मद अली जिन्ना ने बाद में इसी सिरे को पकड़ कर पाकिस्तान का निर्माण सिर्फ मजहब के आधार पर कराया और भारत के मुसलमानों को पृथक राष्ट्र दिखाने में सफलता प्राप्त की। बेशक यह काम अंग्रेजों की शह पर ही किया गया और उन्हीं की सहमति से हुआ क्योंकि 1947 तक वे इस देश के मुख्तार थे। मगर अंग्रेजों के राज में ही जब 1937 में प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव हुए थे तो आज के पाकिस्तान के संयुक्त पंजाब, सिन्ध व उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश (आज का खैबर पख्तूनवा) जैसे मुस्लिम बहुल राज्यों में मुस्लिम लीग का सफाया हो गया था और पूर्वी सीमा पर बसे संयुक्त बंगाल में भी मुसलिम लीग को आंशिक सफलता ही मिल पाई थी। जबकि शेष सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत मिला था। 
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मुहम्मद अली जिन्ना ने अपनी पार्टी की जबर्दस्त पराजय देखने के बाद तब खुल कर साम्प्रदायिक राजनीति का इस्तेमाल किया था और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी बताते हुए यहां तक प्रचार किया था कि कांग्रेस के हिन्दू राज में इस्लाम धर्म का सफाया हो जायेगा और मुसलमानों को खत्म कर दिया जायेगा अतः मुस्लिम अपने अलग राष्ट्र में ही सुरक्षित रहेंगे। जिन्ना ने अपने इस अभियान में मुस्लिम उलेमाओं खास कर बरेलवी मुल्ला- मौलवियों और उलेमाओं की भी जमकर मदद ली और मुसलमानों के सामने ‘निजामे मदीना’ का सब्जबाग रखा । इसके बाद जब 1945 में एसेम्बलियों के पुनः चुनाव हुए तो मुस्लिम बहुल राज्यों में मुस्लिम लीग को बहुत अच्छी सफलता मिली और इसी आधार पर जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने की अपनी मांग मनवा ली। 
भारत की राजनीति के इस अध्याय का सन्दर्भ देने का आशय यही है कि आज के भारत में हम जिन्नावादी मानसिकता को किसी सूरत में बढ़ावा नहीं दे सकते और मजहब के आधार पर भारतीयों का वर्गीकरण नहीं कर सकते। पिछले दिनों 17 से 19 दिसम्बर तक हिन्दुओं की पवित्र स्थली हरिद्वार में जिस धर्म संसद का आयोजन किया गया था उसका ‘मूल विचार’ यह था कि 2029 में देश के प्रधानमन्त्री पद पर कोई मुसलमान चुना जा सकता है क्योंकि मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ रही है। इस संसद में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने की वकालत की गई जिससे उनकी जनसंख्या को काबू में रखा जा सका। स्वयं को हिन्दुओं के विभिन्न धार्मिक संस्थानों से जोड़ने वाले साधू वेशधारी प्रवक्ताओं ने यहां तक कहा कि हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ देना चाहिए। अकल के इन बादशाहों से कोई पूछे कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों की जन्म दर में क्या अन्तर है ? तो इनके पास जवाब नहीं है। इनका कहना था कि भारत में धर्म परिवर्तन करके हिन्दुओं की संख्या घटा दी जायेगी और ये अल्पमत में आ जायेंगे। 
1947 में भारत के बंटवारे से पहले संयुक्त भारत में मुसलमानों की संख्या 24 प्रतिशत के लगभग थी। यह जनसंख्या भारत पर सैकड़ों वर्षओं तक चले मुस्लिम शासनों के बावजूद थी। मगर बंटवारे के बाद भारत में केवल दस प्रतिशत मुस्लिम रह गये थे। जिनकी जनसंख्या 74 वर्ष बाद अब 14 प्रतिशत के लगभग बतायी जाती है। दूसरी तरफ हिन्दुओं की जनसंख्या 80 प्रतिशत के लगभग है। दूसरी तरफ अगर हम हिन्दू व मुसलमानों की जन्म दर पर नजर डालें तो पिछले तीन दशकों में हिन्दू व मुस्लिम जन्म दर का अन्तर घट कर नाममात्र का रह गया है। यह सब भारत में शिक्षा के प्रसार की वजह से हो रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि पिछले दिनों कराये गये एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार इस सदी के अन्त तक भारत में प्रत्येक परिवार में बच्चों की संख्या दो के करीब हो जायेगी जिसमें हिन्दू व मुसलमान दोनों ही शामिल होंगे।
 सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब भारत में छह सौ साल तक मुस्लिम शासकों का शासन रहने के बावजूद मुस्लिमों की कुल जनसंख्या केवल 24 प्रतिशत ही रही तो वह स्वतन्त्र व पंथ निरपेक्ष भारत में 2029 तक इतनी किस तरह बढ़ जायेगी कि इसका प्रधानमन्त्री कोई मुसलमान इनकी जनसंख्या के आधार पर चुना जा सके? 21वीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में हम इस तरह की ऊल-जुलूल बातें कह कर केवल अपने दिमागी दिवालियेपन का ही परिचय दे रहे हैं और भारत की एकता व सामाजिक भाईचारे के लिए नई मुसीबत पैदा कर रहे हैं। अतः हरिद्वार की उत्तराखंड पुलिस ने धर्म संसद में विष वमन करने वाले जिन और लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की है वह कानून संगत कार्य है । इनमें यती नर्सिंहानन्द का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। भारत में धर्म का स्थान बहुत ऊंचा है यह अंग्रेजी शब्द रिलीजन के अनुवाद रूप मे लिया जाता है जो कि पूरी तरह अनुचित है क्योंकि मजहब का मतलब धर्म नहीं होता है। मजहब मानव निर्मित होता है जबकि धर्म प्रकृति प्रदत्त गुण होता है जिस प्रकार आग का धर्म गर्मी या ताप देना होता है और जल का धर्म प्यास बुझाना होता है उसी प्रकार मनुष्य का धर्म मानवीयता होता है जबकि हर मनुष्य का मजहब अलग-अलग हो सकता है। भारत का तो पूरा संविधान ही मानवीयता पर आधारित है।                                 
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