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जेटली पर दोषारोपण गलत

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08:12 AM Sep 14, 2018 IST | Desk Team

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किंगफिशर कम्पनी के मालिक विजय माल्या ने जिस प्रकार भारतीय बैंकों की अपनी कर्ज देनदारी के मामले को यह कहकर उलझाने की कोशिश की है कि लन्दन आने से पहले उन्होंने वित्तमंत्री श्री अरुण जेटली से भेंट की थी, उससे यही साबित होता है कि वह अपने मामले को स्वयं राजनीति का मुद्दा बनाकर भारत की वित्त व्यवस्था के भीतर की न्यायप्रणाली को बन्धक बनाकर रखना चाहते हैं। भारत की संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सदस्य रहते श्री माल्या को वे ही विशेषाधिकार मिले हुए थे जो किसी अन्य सदस्य को प्राप्त होते हैं। बेशक उन पर उस समय बैंकों से लिए गए 12 हजार करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज की धनराशि अदा न करने का मामला चल रहा था। यह वित्तीय घोटाले या हेराफेरी का मामला था जिसका उनकी संसद सदस्यता से कोई लेना-देना नहीं था बल्कि उनके वाणिज्यिक कारोबार से सीधा सम्बन्ध था। अतः जब 1 मार्च 2016 को श्री माल्या ने संसद के भीतर श्री जेटली से मुलाकात की तो वह एक सांसद को मिले विशेषाधिकार के दायरे में आती थी। श्री माल्या ने स्वयं स्वीकार किया है कि यह कोई निर्धारित भेंट नहीं थी और उन्होंने सांसद के तौर पर संसद के भीतर की उस प्रणाली का लाभ उठाया था जो किसी मन्त्री व साधारण सांसद में भेद नहीं करती है।

एेसी ही आमने-सामने या साथ आते-जाते हुई मुलाकात का लाभ उठाते हुए उन्होंने श्री जेटली से अपनी भविष्य की योजना के बारे में मुंहजबानी बयानबाजी की जिसका श्री जेटली ने कोई जवाब नहीं दिया। जाहिर है कि बैंकों के साथ चल रही उनकी मुकद्दमेबाजी वित्तमन्त्री के अधिकार क्षेत्र में न आकर बैंकिंग व्यवसाय के प्रबन्धकों के अधिकार क्षेत्र में आती थी और श्री जेटली ने अनौपचारिक भेंट की सामान्य औपचारिकता निभाते हुए कह दिया कि उन्हें इस बारे में बैंकों से ही बात करनी चाहिए क्योंकि श्री माल्या का कहना है कि उन्होंने बैंकों का कर्ज अदा करने की अपनी योजना के बारे में श्री जेटली को बताया था और कहा था कि वह जिनीवा एक पूर्व निर्धारित बैठक में भाग लेने जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या उस समय तक श्री माल्या का पासपोर्ट जब्त हो चुका था और क्या उनकी विदेश यात्रा पर न्यायिक प्रक्रिया ने प्रतिबन्ध लगा दिया था ? बेशक श्री माल्या के खिलाफ अक्टूबर 2015 में सीबीआई का निगरानी रखने का नोटिस जारी हो चुका था। इसका मतलब यही था कि सीबीआई उनकी हर हरकत पर नजर रखे हुए थी अतः इस मामले में श्री जेटली पर दोषारोपण किस प्रकार किया जा सकता है।

बेशक विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने अगले दिन ही अपनी प्रैस कांफ्रैंस में कहा था कि माल्या ने लन्दन जाने से पूर्व भाजपा के एक बड़े नेता से मुलाकात की थी। (दूसरा यह तथ्य जानने की सख्त जरूरत है कि बैंकों की कार्यप्रणाली वित्त मन्त्रालय के दायरे में बैंकिंग सचिव के तहत इस प्रकार आती है कि रिजर्व बैंक ही इनका सीधे नियन्त्रण रखे और इनकी वाणिज्यिक व व्यापारिक नीतिगत गतिविधियां सरकारी नियन्त्रण से बाहर रहें) संसद के सेंट्रल हाल से लेकर मन्त्रियों के दफ्तरों तक बने गलियारों के बीच सांसदों या मन्त्रियों के बीच होने वाली मुलाकातों या बातचीत के बारे मे संसद का ही हिस्सा समझे जाने वाले मीडिया के लोगों को भी जानकारी रहती है। क्योंकि ये मुलाकातें औपचारिक नहीं होतीं और सामान्य शिष्टाचार के तहत हो जाती हैं या कोई भी सांसद प्रायोजित तौर पर भी इन्हें करने में सफलता प्राप्त कर लेता है परन्तु इनका स्वरूप पूरी तरह अनाधिकारिक व अनौपचारिक रहता है यहां तक कि सेंट्रल हाल में प्रवेश करने का अधिकार रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार भी विभिन्न दलों के नेताओं व मन्त्रियों के साथ हुई अपनी घनिष्ठ अन्तरंग बातचीत को अाधिकारिक सूचना के तौर पर प्रकाशित नहीं करते।

इसकी वजह यह भी है कि लोकतन्त्र में सत्ता और विपक्ष में बैठे हुए दल दुश्मन नहीं होते बल्कि मात्र विरोधी होते हैं और उनके एक-दूसरे के साथ निजी सम्बन्धों पर विरोधी राजनीति का कोई प्रभाव नहीं रहता। जो भी विरोध होता है वह अाधिकारिक तौर पर संसद के दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा के भीतर होता है। दरअसल विजय माल्या ने लन्दन की अदालत में चल रहे मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान यह विस्फोट करके सोचा था कि इससे उन्हें भारत में उन राजनीतिक तबकों का समर्थन मिल जाएगा जो उनके मुद्दे पर वर्तमान मोदी सरकार को घेर रहे हैं। लन्दन से वापस न आने का उनका निर्णय स्वयं का था जो बताता है कि उन्हें भारत की उस न्यायप्रणाली का डर सता रहा है जिसने उनकी हैसियत अब एक मुजरिम जैसी बना दी है। अपनी यह हालत श्री माल्या ने स्वयं बनाई है क्योंकि भारत के बैंकों को उनसे अपना केवल वह धन वापस लेना है जो उन्होंने अपनी कम्पनी किंगफिशर एयर लाइन के लिए लिया था। उन्हें जो भी कर्ज मिला था वह किसी मन्त्री के कहने से नहीं मिला था और बैंकों ने अपनी कर्ज नीतियों के अनुसार उन्हें दिया था।

जब उन्हें कर्ज मिला तब भी वह राज्यसभा सांसद थे और जब भारत से उड़े तब भी राज्यसभा सांसद थे। अतः कानून की नजर में उनकी हैसियत का कोई महत्व नहीं है। कानून के सामने इस बात के भी काेई मायने नहीं हैं कि संसद परिसर में उन्होंने लन्दन जाने से पहले किस-किस से बात की और किस-किस से वह सेंट्रल हाल में मिले। क्योंकि श्री माल्या धुआंधार सिगरेट पीने वाले (चेन स्मोकर) व्यक्ति हैं और सेंट्रल हाल में स्मोकिंग चैम्बर में उनकी मुलाकात उन सभी मन्त्रियों व सभी दलों के नेताओं से होती थी जो सिगरेट का शौक रखते हैं। एेसी मुलाकातों का भी क्या हम काेई मतलब निकाल सकते हैं?

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