नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे...
21वीं सदी के भारत में क्या हवा चली है कि कुछ लोग इतिहास की कब्रें…
21वीं सदी के भारत में क्या हवा चली है कि कुछ लोग इतिहास की कब्रें खोद कर मस्जिद-मस्जिद भगवान ढूंढते फिर रहे हैं ! मुल्क के निगेहबानों ने 15 अगस्त, 1947 को हमें जो आजाद हिन्दोस्तान सौंपा था उसकी फिजां को ये लोग इस तरह बिगाड़ना चाहते हैं कि हर शहर में खड़ी मस्जिद को विवाद के घेरे में लाकर हिन्दू देवस्थान होने के सबूत ढूंढे जायें। मगर हम जानते हैं कि जो देश अतीत में जीने लगता है उसका भविष्य अंधकार की तरफ जाने लगता है। यह सब तब हो रहा है जबकि मन्दिर-मस्जिद के झगड़े ने ही इस मुल्क के दो टुकड़े कराये। इस क्रम में हमें गंभीरता से सोचना होगा कि बंगलादेश में कहीं इसकी प्रतिक्रिया तो नहीं हो रही है और अन्य मुस्लिम देशों में भी क्या इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा? बेशक भारत पर छह सौ साल तक मुस्लिम शासकों का शासन रहा मगर उसके बाद दो सौ साल तक अंग्रेजों का भी शासन रहा। अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत पक्की करने के लिए ही भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत के बीज को बोया जिसकी खेती 1936 के बाद मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग की मार्फत पूरे देश में की और भारत दो देशों में बंट गया। इस नजरिये से देखा जाये तो सबसे पहले मस्जिदों में भगवान खोजने वालों को पूरे पाकिस्तान पर ही अपना दावा ठोक देना चाहिए। जब हम स्वतन्त्र हुए तो हमने स्वीकार किया कि भारत की सरकार का कोई मजहब या धर्म नहीं होगा और यह धर्मनिरपेक्ष देश बनेगा जिसमें हर धर्म के मानने वाले को पूरी धार्मिक आजादी होगी।
जरा दिमाग खोलकर सोचिये कि जो देश मुस्लिमों के छह सौ साल के शासन के दौरान भी मुस्लिम राष्ट्र नहीं बना और जिसकी आबादी में 14 अगस्त, 1947 को भी मुस्लिमों की संख्या केवल 25 प्रतिशत थी उसकी विरासत और संस्कृति कितनी विशाल व समृद्ध रही होगी। सभी धर्मों के अनुयायियों को एक साथ लेकर चलना भारत का विशिष्ट धर्म पांच हजार साल पहले से रहा है क्योंकि हमारी संस्कृति के इतिहास में महऋषि चरक जैसे भौतिक भोगवादी भी रहे और ईश्वर की सत्ता को मानने वाले अनेक ऋषि व मुनि भी रहे। यहां वेदों के समानान्तर जैन व बौद्ध धर्म भी विकसित हुए और गुरू नानक देव जी जैसे मानवतावादी प्रवर्तक भी हुए। अतः एेसे बहुधर्मी समाज के भीतर मुस्लिम शासकों का छह सौ वर्षों का शासन भी इसका स्वभाव नहीं बदल सका। भारत की सबसे बड़ी ताकत इसका यही स्वभाव है जो विविधता में एकता का उद्घोष करता है। बेशक 1992 में अयोध्या में खड़ी बाबरी मस्जिद ढहा दी गई मगर वह उस समय चले राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन की तीव्रता की आंधी का ही परिणाम थी लेकिन इस आन्दोलन के परिणामों की तीव्रता को रोकने के लिए ही 1991 में भारत की संसद ने ‘पूजा स्थल कानून’ बनाया जिसमें यह प्रावधान किया गया कि 15 अगस्त, 1947 तक देश में जिस पूजा स्थल की जो हैसियत थी वह वैसी ही रहेगी और इसमें कोई बदलाव नहीं किया जायेगा।
वास्तव में यह कानून स्वतन्त्र भारत के इतिहास का एेसा एेतिहासिक पल था जिसमें भारत की एकता व अखंडता को भविष्य में पुख्ता रखने का उपचार किया गया था। इसी वजह से जब 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या राम मन्दिर पर अपना निर्णय दिया तो इस कानून को संविधान के बुनियादी ढांचे का अंग बताया। मगर 2020 में इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय में पहली बार चुनौती दी गई और कहा गया कि 15 अगस्त, 1947 को निश्चित तारीख व समय मानना गलत है क्योंकि धार्मिक स्थलों की स्थिति की न्यायिक समीक्षा करने का हक यह कानून ले लेता है। इसके बाद 2021 में काशी विश्वनाथ परिसर में मौजूद ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा करने के अधिकार को लेकर स्थानीय अदालत में याचिका दायर की गई जिस पर अदालत ने इसका सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया जिसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की गई कि 1991 का विशेष पूजास्थल कानून इसका निषेध करता है तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने मौखिक टिप्पणी की कि सर्वेक्षण की पूजा स्थल कानून मनाही नहीं करता है। उनकी इस टिप्पणी को देश की छोटी अदालतों ने कानून के समान समझ कर अन्य शहरों के मस्जिद-मन्दिर विवाद में याचिकाएं दर्ज करने की इजाजत दे दी । अब जबकि भारत के विभिन्न नगरों से एेसे विवाद अदालतों में पहुंच रहे हैं तो देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लेते हुए आदेश दिया है कि जब तक वह विशेष पूजास्थल कानून-1991 के बारे में सुनवाई कर रहा है तब तक कोई भी अदालत न तो नये मुकदमे दर्ज करे और न कोई सर्वेक्षण कराने के आदेश जारी करे और ना ही किसी धर्मस्थल का सर्वेक्षण कार्य जारी रहे। भारत की न्यायपालिका के इस फैसले से शहर-शहर व गली- गली मस्जिदों में भगवान खोजने का काम निश्चित रूप से बन्द हो जायेगा। दरअसल अपने एेसे कृत्यों से कुछ लोग भारत के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर ही करना चाहते हैं क्योंकि भारत तो सदियों से विभिन्न मत-मतान्तरों को साथ लेकर चलने वाला देश रहा है।
किसी एक धर्म के खिलाफ इतिहास के पन्नों को उधेड़ कर हम नफरत को भारत का स्थायी भाव नहीं बना सकते जबकि प्रेम व भाईचारा इसकी संस्कृति का स्थायी स्वभाव है। हमें गौर करना चाहिए उस कथन पर जो गुरू नानक देव जी ने छह सौ साल पहले कहा था,
कोई बोले राम- राम, कोई खुदाए
कोई सेवे गुसैंया, कोई अल्लाए
कारण कर करन करीम
किरपा धार तार रहीम
कोई नहावै तीरथ, कोई हज जाये
कोई करे पूजा , कोई सिर नवाये
कोई पढे़ वेद , कोई कछेद
कोई ओढे़ नील, कोई सफेद
कोई कहे तुरक , कोई कहे हिन्दू
कोई बांचे बहिश्त, कोई सुरबिन्दू
कह नानक जिन हुकुम पछायो
प्रभु साहब का तिन भेद पायो।