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बिना विपक्ष के संसद में कामकाज की कल्पना भी मुश्किल

05:30 AM Dec 26, 2023 IST | Sagar Kapoor
बिना विपक्ष के संसद में कामकाज की कल्पना भी मुश्किल

नई संसद के शीत सत्र के अंतिम सप्ताह में जब 6 महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए तो ढेर सारे विपक्षी सांसद सदन से बाहर किए जा चुके थे। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों का अपना-अपना राग है, विपक्ष कह रहा है कि सरकार मनमानी पर उतर आई है और सत्तापक्ष का कहना है कि विपक्ष अराजक हो गया है। भारत के गणतांत्रिक इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी सत्र के दौरान संसद से 146 सांसद निलंबित किए गए। इनमें लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 46 सांसद हैं। इसके पहले 1989 में विपक्ष के 63 सांसदों को लोकसभा से निलंबित किया गया था जो इंदिरा गांधी हत्याकांड की जांच रिपोर्ट सदन में रखने की मांग कर रहे थे।
इस बार सांसदों की मांग थी कि संसद की सुरक्षा में जो चूक हुई है, उस पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बयान दें। सत्तापक्ष ने कहा कि जांच चल रही है तो बयान की मांग क्यों? बस यही बात तूल पकड़ गई और एक के बाद एक निलंबन का सिलसिला चल पड़ा। किसी ने टिप्पणी की कि सरकार उस बल्लेबाज जैसा बर्ताव कर रही है जो बिना बॉलर और बिना फील्डर के ही बल्लेबाजी करके रनों का शतक ठोंकना चाहता है। मैं 18 साल तक संसद का सदस्य रहा हूं और बहुत सारे मुद्दों पर भीषण बहस देखी है। खूब हो-हल्ला और हंगामा भी देखा है लेकिन इस तरह से थोक भाव में सांसदों का निलंबन वाकई आश्चर्य पैदा करता है। क्या बिना विपक्ष के संसद की कल्पना की जा सकती है? बिल्कुल नहीं की जा सकती क्योंकि विपक्ष लोकतंत्र का मजबूत हिस्सा होता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का एकछत्र राज था। उनके सामने विपक्ष बिल्कुल ही कमजोर स्थिति में था लेकिन वे विपक्ष को कितना महत्वपूर्ण मानते थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे राममनोहर लोहिया और अटल जी जैसे घनघोर आलोचकों को सदन में हमेशा मौजूद देखना चाहते थे।
आज सत्ता में मौजूद भाजपा खुद लंबे अरसे तक विपक्ष में रही है। वह भी जनता की आवाज उठाने के लिए अपने समय में बहुत सशक्त रवैया अपनाती थी। घपले घोटालों के आरोपों पर तूफान खड़ा करती थी, कॉमनवेल्थ गेम, टू-जी, कोल और मुंबई आदर्श सोसायटी के साथ ही कई अत्यंत स्थानीय विषयों को लेकर भी भाजपा ने तीखा रुख दिखाया था। आज जो आधार सबकी ताबीज बन गया है वह विषय उस समय स्टैंडिंग कमेटी में सुलझ सकता था लेकिन वो संसद में घनघोर चर्चा का विषय बना। अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन पर तो रात भर बहस चली। 26/11 के समय बुलाई गई बैठक में उस वक्त के केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल देर से पहुंचे तो आरोप लगा दिया कि वे सूट बदलने में व्यस्त थे। इस पर कितना हंगामा हुआ। मुझे याद है कि विपक्षी सांसद कई बार वेल के भीतर पहुंच जाते थे लेकिन इतने बड़े पैमाने पर कभी भी निलंबन नहीं हुआ।
विपक्ष का काम ही है आवाज बुलंद करना। जनता के दरबार में यह दिखाना कि सरकार कैसा काम कर रही है। हर देश में विपक्ष हमलावर होता है, ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस में तो विपक्ष और भी ज्यादा हमलावर होता है। हां, विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को ही एक नजरिये से देखा जाना चाहिए क्योंकि दोनों ही आम आदमी के लिए काम कर रहे हैं। लोकतंत्र में चारों पहिये ठीक से काम नहीं करेंगे तो गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी? ध्यान रखिए कि देश जितना आगे बढ़ेगा, दुश्मन उतना ही प्रहार करेंगे। हमें मिलकर मुकाबला करना है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जन भावनाओं के अनुरूप राजनीतिक पार्टियों की भूमिका बदलती रहती है। किसी जमाने में जनता का विश्वास जवाहरलाल नेहरू पर था, कभी इंदिरा गांधी पर विश्वास था तो कभी अटल जी पर था। आज मोदी जी पर अगाध विश्वास है। हमारे यहां सीधे चुनने का प्रावधान नहीं है लेकिन जो प्रावधान है उसमें नेता का चेहरा होता है जो आज मोदी जी हैं। अनुच्छेद 370 तथा कई मामलों में सशक्त रवैया अपनाने के कारण लोगों के मन में अमित शाह की छवि भी सशक्त है। मेरे कहने का आशय यह है कि नेतृत्व किसी का भी हो, लोकतंत्र चिरस्थाई है, यह भाव हमारे मन में हमेशा होना चाहिए। साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा कि उपराष्ट्रपति की मिमिक्री करना कानूनन भले ही गुनाह न हो लेकिन ऐसा करना संसद सदस्यों को शोभा नहीं देता। संसद मिमिक्री की जगह नहीं है, संवैधानिक पदों पर बैठे और निर्वाचित प्रतिनिधियों का सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है।
लेकिन सवाल वहीं आकर अटक जाता है कि यदि संसद से सांसदों को निकाल देंगे तो काम कैसे होगा? भले ही वे संख्या में कम हों लेकिन उनकी बात सुनी जानी चाहिए। केरल से आरएसपी के सांसद एन.के. प्रेमचंद्रन अपनी पार्टी के अकेले सांसद हैं लेकिन वे बोलने खड़े होते हैं तो हर कोई उन्हें सुनना चाहता है। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पूर्व विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज, पूर्व सांसद सीताराम येचुरी या डी. राजा को हर कोई सुनना चाहता था। राज्यसभा में डीएमके के तिरुचि शिवा भी ऐसे ही सांसद हैं, इसलिए संख्या बल को कभी हथियार नहीं बनाना चाहिए। मैंने पहले भी कहा है, आज भी कह रहा हूं और भविष्य में भी कहूंगा कि कमान की तार को इतना नहीं तानना चाहिए कि वह टूट ही जाए। विपक्ष के मन में यह भावना पैदा होना कि उनके साथ दुश्मन जैसा व्यवहार हो रहा है, लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। पा​र्लियामेंटरी अफेयर्स मिनिस्ट्री को इस मामले को इतना बढ़ने ही नहीं देना चाहिए था। ध्यान रखिए कि संसदीय लोकतंत्र की अपनी परंपराएं होती हैं, अपने मूल्य होते हैं, सजा कभी भी लकीर के बाहर नहीं जानी चाहिए।

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