Top NewsindiaWorldViral News
Other States | Delhi NCRHaryanaUttar PradeshBiharRajasthanPunjabjammu & KashmirMadhya Pradeshuttarakhand
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariBusinessHealth & LifestyleVastu TipsViral News
Advertisement

मुसलमानों के हक का सवाल?

01:10 AM Oct 05, 2023 IST | Aditya Chopra

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जातिगत जनगणना राष्ट्रीय आधार पर कराये जाने की कांग्रेस की मांग पर एक बहुत मौजू सवाल पूछा है कि इससे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हकों का क्या होगा? प्रधानमन्त्री का आशय यह है कि यदि जातिगत जनगणना के आधार पर सारे अधिकार हिन्दू समाज के लोगों को ही दिये जाने हैं तो क्या कांग्रेस पार्टी मुसलमानों के हकों की कुर्बानी देना चाहती है? जाहिर है कि मुस्लिम समाज के लोग भी भारत के उतने ही सच्चे नागरिक हैं जितने कि हिन्दू और संविधान दोनों को बराबर हक भी देता है परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता और धार्मिक या मजहब के आधार पर भी आरक्षण नहीं दिया जा सकता। बिहार में जो जातिगत जनगणना हुई है उसके अनुसार हिन्दू 82 प्रतिशत और मुस्लिम 17 प्रतिशत से कुछ ऊपर हैं। यदि आरक्षण की सुविधाएं केवल हिन्दू समाज के ही कुछ वर्गों के लिए हैं तो मुस्लिम समाज का क्या होगा? परन्तु पिछड़ों के वर्तमान 27 प्रतिशत आरक्षण में मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियां भी शामिल हैं। मगर इस्लाम में जातिवाद की कोई अवधारणा नहीं है, इसके बावजूद भारत के मुसलमानों में ‘अशराफिया’ और ‘पसमान्दा’ के नाम पर मुस्लमानों में भी ऊंच-नीच का भाव है।
निश्चित रूप से यह भारत की हिन्दू जातिवादी सामाजिक व्यवस्था का ही प्रभाव है जो इस्लाम पर पड़ा है परन्तु हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भारत में मुस्लिम समाज में इस जातिवादी ऊंच-नीच की असमानता को इस समाज के ‘आलिम’ तक कहे जाने वाले लोगों ने स्वीकार किया था जिसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘सर सैयद अहमद खां’ थे जिन्हें अपने समाज का शिक्षा के क्षेत्र का ‘क्रान्ति दूत’ तक कहा जाता है। उन्होंने ही 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान हिन्दू व मुसलमान दोनों की अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज के खिलाफ हुई बगावत के बारे में अपनी लिखी पुस्तक ‘असबाबे बगावते हिन्द’ में कहा कि अंग्रेजों के खिलाफ जिन मुस्लिम कौमों ने इस बगावत में हिस्सा लिया वे ‘कमजात’ थे। इनमें जुलाहे व छोटा काम करने वाले लोग ही ज्यादा थे। इतना ही नहीं सर सैयद ने तो यहां तक कहा कि वह जिस उच्च अंग्रेजी शिक्षा के मुसलमानों में प्रसार की बात कर रहे हैं वह केवल अशराफिया लोगों के लिए ही है। उन्होंने बरेली में एक अंग्रेजी माध्यम के मुस्लिम स्कूल का उद्घाटन करते हुए तकरीर की और हिदायत दी कि ऊंची और अंग्रेजी शिक्षा केवल मुस्लिम अशराफिया समाज के लोगों के लिए ही है। अगर किसी दर्जी या नाई का बेटा पढ़- लिख कर हुक्मरानी के औहदे जैसे डिप्टी कलैक्टर या कलैक्टर पर पहुंच जायेगा तो फिर अशराफिया का क्या होगा? क्या अशराफिया लोगों को यह कबूल होगा ? इसलिए इन लोगों के लिए रवायती ‘मदरसे’ ही ठीक हैं।
यह सब कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसका जिक्र प्रख्यात लेखक डा. इश्तियाक अहमद ने अपनी बहुचर्चित ‘जिन्ना’ पर लिखी हुई पुस्तक में किया है। अतः बहुत साफ है कि मुसलमानों में भी जाति-बिरादरी के नाम पर इनमें शैक्षणिक व सामाजिक पिछड़ापन सदियों से विद्यमान रहा है। बेशक पिछड़े समुदाय में बिहार में कुछ मुस्लिम जातियों के लोगों की गणना भी की गई है परन्तु इसके बावजूद यह सवाल अपनी जगह मौजू है कि सत्ता में इस समुदाय के लोगों का भी उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व उसी प्रकार होना चाहिए जिस प्रकार कि हिन्दू समुदाय के पिछड़े लोगों का। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को ‘एक वोट’ का बराबर अधिकार देता है और सबके एक वोट की कीमत भी बराबर रखता है परन्तु चुनावों में हार-जीत का फैसला वैयक्तिक जीत के आधार पर होता है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि एक लोकसभा सीट पर दस प्रत्याशी खड़े हैं तो उनमें से वही जीतेगा जिसके सबसे अधिक वोट होंगे। इसमें वही प्रत्याशी विजयी होगा जिसके पक्ष में किसी वर्ग या सम्प्रदाय अथवा जातीय समुदाय के लोगों की गोलबन्दी सबसे ज्यादा होगी।
राष्ट्रीय स्तर पर मुसलानों की जनसंख्या मोटे तौर पर 15 प्रतिशत के करीब मानी जाती है। ऐसे में उनके समाज के प्रत्याशी तब तक जनप्रतिनिधि नहीं बन सकते जब तक कि उन्हें समाज के अन्य हिन्दू वर्गों का समर्थन प्राप्त न हो परन्तु पिछड़ी जातियों की जनगणना में यदि मुस्लिम समाज की पसमान्दा जातियां भी शामिल होती हैं तो इससे एक नया ‘पिछड़ा वोट बैंक’ बन सकता है। इस पिछड़े वोट बैंक में मुसलमानों को उनका जायज हक देना होगा। मगर हम देखते हैं कि राजनैतिक दल भाजपा का डर दिखा कर मुसलानों के वोटों को हथियाने के चक्कर में रहते हैं जबकि उनके समुदाय के लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व देने से गुरेज करते हैं। अतः प्रधानमन्त्री की चिन्ता को गैरवाजिब करार नहीं दिया जा सकता। इससे एक बात और निकल सकती है कि ऐसा समय जल्दी ही आ सकता है जब संविधान में 50 प्रतिशत की आरक्षण की सीमा को हटाया जाये और मुसलानों को भी अनुसूचित जातियों व जन जातियों की तरह राजनैतिक आरक्षण दिया जाये। लोकतन्त्र में किसी भी समाज को सत्ता में उसकी वाजिब हिस्सेदारी से बहुत समय तक अलग नहीं रखा जा सकता है। प्रधानमन्त्री ने मुसलमानों के हक की बात कह कर यही मुद्दा उठाया है। भारत के विकास में मुसलमान जनता की भी उतनी ही हिस्सेदारी है जितनी कि हिन्दू जनता की। देश का विकास हर नागरिक अपने-अपने स्तर पर अपने काम को सच्चाई से अंजाम देकर करता है। चाहे वह किसान हो या सीमा पर लड़ने वाला जवान हो।

Advertisement
Advertisement
Next Article