‘सरकार विरोध’ और ‘देश विरोध’
बम्बई उच्च न्यायालय ने नागरिकता कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों से सम्बन्धित एक याचिका में स्पष्ट किया है कि देश की सरकार के खिलाफ किये जा रहे आन्दोलनों को देश या राष्ट्र के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है।
03:42 AM Feb 16, 2020 IST | Aditya Chopra
बम्बई उच्च न्यायालय ने नागरिकता कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों से सम्बन्धित एक याचिका में स्पष्ट किया है कि देश की सरकार के खिलाफ किये जा रहे आन्दोलनों को देश या राष्ट्र के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है। असल में उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने साफ किया है कि ‘सरकार’ और ‘देश’ के बीच में सीधा फर्क होता है जो इस प्रकार है कि भारत का निजाम ‘बहुमत का राज’ नहीं बल्कि ‘कानून का राज’ है। अतः सरकार द्वारा बनाये गये किसी कानून का विरोध करने वालों पर ‘गद्दार’ का बिल्ला किसी भी सूरत में नहीं लगाया जा सकता। किसी एक कानून का विरोध करने वाले लोगों को न तो राष्ट्रविरोधी और न ही गद्दार कहा जा सकता है।
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न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों ने नौकरशाही को भी चेतावनी दी है कि उन्हें यह अपने दिमाग में रखना चाहिए कि जब लोग यह सोचते हैं कि कोई कानून उनके अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो उन्हें अपने अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार भी होता है। अपने अधिकारों की रक्षा करने को आतुर लोगों की कार्रवाई से कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा होगी या नहीं, यह सोचने का कार्य न्यायालय का नहीं बल्कि राजनीतिक सरकारों का होता है।
न्यायालय में महाराष्ट्र के ‘बीड’ शहर के एक नागरिक ने याचिका दायर करके अपने इलाके के एक पुलिस इंस्पेक्टर के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं दी गई थी। इंस्पेक्टर ने अपने अतिरिक्त जिलाधीश द्वारा जारी उस आदेश की रोशनी में यह फैसला किया था जिसमें कहा गया था कि विरोधी आन्दोलनों से कानून- व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। इस आदेश के एक अनुभाग में नारे लगाने, गाना बजाना करने पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया था।
न्यायालय ने इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि पहली नजर में यह फैसला सभी नागरिकों के खिलाफ लगता है जबकि हकीकत में यह नागरिकता कानून का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ ही था परन्तु न्यायालय ने इस याचिका की समीक्षा करते हुए उन बुनियादी सवालों को छुआ है जो आज प्रत्येक भारतीय नागरिक के दिमाग में घूम रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख नागरिकता कानून को लेकर किया जाने वाला साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण है।
इस सन्दर्भ में विद्वान न्यायाधीशों ने अपनी बेबाक राय जाहिर करते हुए साफ किया है कि भारत एक लोकतान्त्रिक देश है और हमारे संविधान ने हमें ‘कानून का राज’ कायम करने की जिम्मेदारी दी है। जब ऐसा कानून बनाया गया तो कुछ लोगों खास कर मुस्लिम धर्म मानने वाले लोगों को लग सकता है कि यह उनके हितों के विरुद्ध है और इसकी मुखालफत होनी चाहिए। यह उनकी अवधारणा या यकीन हो सकता है जिसके गुण-दोष में न्यायालय नहीं जा सकता है।
न्यायालय को केवल यही विचार करना है कि क्या लोगों को किसी कानून का विरोध करने व आन्दोलन करने का अधिकार संविधान देता है या नहीं। जब यह मूल अधिकार संविधान देता है तो विरोधी आन्दोलनों से कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी होगी या नहीं यह सोचना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है।
यह राजनीतिक सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है अतः यह सरकारों का ही दायित्व बनता है कि वे आन्दोलनकारी लोगों तक पहुंच बनाये, उसे बातचीत करें और उन्हें समझाने या सन्तुष्ट करने का प्रयास करें। इसके साथ ही न्यायालय का यह आकलन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रशासन की यह सोच भी उचित नहीं है कि कानून का विरोध केवल एक ही समुदाय या धर्म के लोग कर रहे हैं। दूसरे समुदायों के भी बहुत से लोग यह सोच सकते हैं कि कानून मानवीय सिद्धान्तों व मानवता के विरुद्ध है हमें ऐसे मुद्दों पर विचार करते समय अपनी संवैधानिक प्रक्रिया के इतिहास को भी ध्यान में रखना चाहिए।
वास्तव में नागरिकता कानून के बारे में चल रहे विवाद पर किसी उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह फैसला ‘मील के पत्थर’ की तरह देखा जायेगा। हालांकि इस कानून की वैधता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर हो चुकी हैं जहां अन्तिम फैसला होगा, परन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि संसद द्वारा बहुमत से पारित किये जाने के बावजूद इसमें संवैधानिक पेचीदगियों के उलझे हुए पेंचोखम भरे हुए हैं, लेकिन इस फैसले के बाद अन्य राज्य सरकारों को भी चौकन्ना हो जाना चाहिए, खास कर कर्नाटक व उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को जहां आन्दोलनकारियों को मुजरिमों की तरह देखा जा रहा है।
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में ऐसा वाकया सामने आया है जिसमें पुलिस ने आन्दोलन के दौरान सम्पत्ति नष्ट होने का खामियाजा भरने का आदेश उन लोगों तक को दे दिया है जो मजदूरी करके बामुश्किल घर चलाते हैं और उस शहर में रहते तक नहीं। इनमें स्कूली छात्र तक शामिल है। ‘मेरा कर्नाटक महान’ के मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा की सरकार ने तो प्राइमरी स्कूल के छात्रों तक राष्ट्रविरोधियों की कतरा में खड़ा करके एक बेवा मां को ही राजद्रोह के मुकदमे में धर लिया है। गलती यह हो गई थी कि इन छोटे-छोटे बच्चों ने नागरिकता कानून के विरोध में एक नाटक खेल डाला था।
लोकतन्त्र हमें सबसे पहली शिक्षा यही देता है कि प्रत्येक अहिंसक विचार से सत्य को बाहर निकाला जाना चाहिए जिससे सर्वानुमति बने और वह लोकशाही की पैरोकारी करे। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद पहले आम चुनावों के दौरान ही सौ के करीब राजनीतिक दलों का गठन हो गया था और सभी ने अपने-अपने विचारों के आधार पर इन चुनावों में हिस्सा लिया था, सभी दल भारत को अपने विचारों के माध्यम से तरक्कीयाफ्ता मुल्क बनाना चाहते थे।
तरक्की की परिभाषा सभी अपने-अपने हिसाब से करते थे। इन चुनावों में ‘हिन्दू कोड बिल’ एक प्रमुख चुनावी मुद्दा था जिसे बाबा साहेब अम्बेडकर के कानून मन्त्री रहते संविधान सभा से परिवर्तित लोकसभा ने अस्वीकार कर दिया था मगर तब पं. नेहरू ने इसके पक्ष में अपना चुनाव अभियान चलाया था और बाद में यह कानून कई टुकड़ों में चुनी गई नई लोकसभा ने बनाया।
हमारा लोकतान्त्रिक इतिहास वास्तव में लोकविजय का ही इतिहास है जिसमें अन्तिम विजय हमारे संविधान की मार्फत आम जनता की हुई है। हकीकत यह है कि पं. नेहरू के पूरी तरह उलट 1971 में उन्हीं की पुत्री स्व. इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के भारी बहुमत के बूते पर 24वां संविधान संशोधन संसद से पारित करा लिया था जिसमें संसद द्वारा संविधान में ही किये गये संशोधन को संवैधानिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया था अर्थात सर्वोच्च न्यायालय के ही हाथ बांध दिये गये थे।
मगर तब की न्यायपालिका ने इस प्रयास को 1973 में ही अपने फैसले से ‘पोस्टमार्टम हाऊस’ में भेज दिया था। यह जीत न्यायालय की नहीं बल्कि भारत के लोकतन्त्र को जिन्दाबाद रखने वाले आम आदमी की ही हुई थी क्योंकि यह संशोधन अन्ततः आम आदमी के संविधान प्रदत्त अधिकारों को ही खाने की जुगाड़ लगा कर किया गया था। अतः सबसे पहले हम लोकतन्त्र को हाजिर-नाजिर रख कर नागरिकता कानून के विरोध व समर्थन की राजनीति को परखें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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