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रामपुर हाट में ‘रावण लीला’

प. बंगाल के जिस वीरभूम जिले में विगत दिनों वीभत्स सामूहिक हत्याकांड कुछ घरों को अग्निकुंड में बदल कर किया गया है वह भारत की दो महान विभूतियों की जन्म स्थली रही है। ये विभूतियां साहित्य और राजनीति के क्षेत्र की थीं

12:57 AM Mar 25, 2022 IST | Aditya Chopra

प. बंगाल के जिस वीरभूम जिले में विगत दिनों वीभत्स सामूहिक हत्याकांड कुछ घरों को अग्निकुंड में बदल कर किया गया है वह भारत की दो महान विभूतियों की जन्म स्थली रही है। ये विभूतियां साहित्य और राजनीति के क्षेत्र की थीं

रामपुर हाट में ‘रावण लीला’
प. बंगाल के जिस वीरभूम जिले में विगत दिनों वीभत्स सामूहिक हत्याकांड कुछ घरों को अग्निकुंड में बदल कर किया गया है वह भारत की दो महान विभूतियों की जन्म स्थली रही है। ये विभूतियां साहित्य और राजनीति के क्षेत्र की थीं। इनमें स्व. राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का नाम सबसे ऊपर आता है जिन्हें वर्तमान दौर का स्टेट्समैन (राजनेता) कहा जाता है। दूसरा नाम स्व. ताराशंकर वन्द्योपाध्याय का नाम का है जिनकी ख्याति बांग्ला साहित्य के ‘शिखर कांति पुरुष’ के रूप में है। भारतीय भाषाओं के साहित्य में पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें ही प्राप्त हुआ था। मगर इसी जिले के रामपुर हाट कस्बे के नजदीक एक गांव में जिस प्रकार रंजिश के चलते आठ लोगों को एक कमरे में बन्द करके जिन्दा जला दिया गया उससे पूरी मानवता आर्तनाद करने लगी और इस घटना की गूंज संसद से लेकर सड़क तक होने लगी। राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी सवालों के घेरे में आ गईं और उनके शासन में हिंसा की बढ़ती घटनाओं को कांग्रेस व भाजपा समेत सभी विपक्षी दलों ने निशाने पर ले लिया। राजनैतिक लोकतन्त्र में यह बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि कानून-व्यवस्था पूर्ण रूपेण राज्य सरकार का विशिष्ट मामला होता है परन्तु इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि बंगाल की क्रान्तिकारी धरती में हिंसा की लोकतान्त्रिक राजनीति में पैठ कराने की शुरूआत क्यों हुई। आजादी के बाद से ही कांग्रेस, कम्युनिस्ट व तृणमूल कांग्रेस के शासनों के दौरान यह ‘पैठ’ बदस्तूर जारी है। हिंसा को किसी भी रूप में राजनैतिक संस्कृति का अंग बनाने की छूट किसी भी राजनैतिक दल को नहीं दी जा सकती है परन्तु वामपंथी शासन के दौर से पहले नक्सलबाड़ी आन्दोलन की मार्फत इस राज्य में जो संस्कृति पनपी उसने आम लोगों को काफी हद तक प्रभावित किया।
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1967 के बाद से जिस तरह इस राज्य में पहले 1969 तक और उसके बाद 1972 तक मिलीजुली साझा सरकारों का दौर चला और इनमें मार्क्सवादी पार्टी की भी आंशिक शिरकत रही उससे समानान्तर रूप से चलते चारू मजूमदार के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के दौरान हिंसा के माध्यम से सत्ता हासिल करने का तरीका भी फैला जिसकी छाया से बंगाली समाज अछूता नहीं रह सका क्योंकि उस दौर में वामपंथी दल भी कुछ समय तक संवैधानिक सत्ता में  (1967 से 1969 तक ) भागीदार रहे थे। 1969 में हुए मध्यावधि चुनावों के बाद भी परिस्थितियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया परन्तु जब 1972 मार्च में चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और इसके नेता स्व. सिद्धार्थ शंकर राय पूरे पांच साल तक मुख्यमन्त्री रहे और उन्होंने पुलिस व शासन तन्त्र का मजबूत घेरा डाल कर नक्सलबाड़ी आन्दोलन को जड़ से समाप्त कर दिया परन्तु राजनीति में हिंसा की पैठ हो चुकी थी और 1977 में वामपंथी दलों की साझा सरकार स्व. ज्योति बसु के नेतृत्व में गठित हो गई। वामपंथियों का शासन 2011 तक चला मगर इस दौरान राजनैतिक संस्कृति में जो परिवर्तन आया उसमें कम्युनिस्ट शासन तन्त्र का रूपान्तरण प. बंगाल में इस तरह हुआ कि पार्टी काडर के हाथ में आम लोगों तक शासन की सुविधाएं पहुंचाने का काम दे दिया गया जिससे समाज में पार्टी के ही बाहुबली पैदा हो गये और वे लोगों के बीच अपनी पार्टी की सत्ता के हित में सभी प्रकार के उपाय (हिंसक और अहिंसक) अपनाने लगे जिसका खात्मा 2011 में ममता बनर्जी ने ही विधानसभा चुनावों में रिकार्ड बहुमत प्राप्त करके किया परन्तु मार्क्सवादी या वामपंथी पार्टियों द्वारा विकसित की गई राजनैतिक हिंसा की संस्कृति को जड़ से साफ नहीं कर सकीं क्योंकि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी पुराने रास्ते पर ही चलने में सुविधा दिखने लगी।
रामपुर हाट में हमने जो वीभत्स कांड देखा है वह वास्तव में तृणमूल कांग्रेस के लोगों के ही बीच की रंजिश का परिणाम माना जा रहा है। यदि मूल स्रोतों की मानें तो यह माफिया युद्ध का परिणाम है जो इलाके में बालू (रेत) व कुछ अन्य वस्तुओं के अवैध कारोबार से सम्बन्धित है। जिस भादुर शेख का पहले कत्ल किया गया वह ग्राम पंचायत का उप प्रधान था और तृणमूल कांग्रेस का ही कार्यकर्ता था। इसके बदले में जिन आठ लोगों को जला कर मारा गया वे भी एेसे परिवारों के लोग हैं जो तृणमूल कांग्रेस के ही समर्थक माने जाते हैं। इनमें बच्चे व स्त्रियां भी शामिल हैं। सवाल यह है कि राज्य के विपक्षी दलों की इस पूरे मामले में क्या भूमिका है? वास्तव में कुछ भी नहीं, मगर लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी फरमा रहे हैं कि संविधान की धारा 355 के तहत राज्य सरकार के कामकाज को निगरानी में रखा जाये। श्री चौधरी के चुनाव क्षेत्र मुर्शिदाबाद से वीरभूम बहुत ज्यादा दूर नहीं है। इस पूरे इलाके में श्री चौधरी की छवि स्वयं में एक ‘डान’ की मानी जाती है।
वीरभूम से सांसद भी तृणमूल कांग्रेस की श्रीमती शताब्दी राय हैं। यदि राज्य में कांग्रेस की कहीं जमीन पर हैसियत होती तो श्री चौधरी की आवाज में कोई दम होता मगर वह तो प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और उनके रहते कांग्रेस की हालत यह हो गई है कि उन समेत केवल दो सांसद ही उनकी पार्टी के लोकसभा के लिए चुने गये हैं। अपने अध्यक्ष काल में उन्होंने स्व. प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र अभिजीत मुखर्जी को ही तृणमूल कांग्रेस में जाने को विवश कर दिया और तो और माल्दा के लौह पुरुष और एक जमाने में बंगाल के शेर कहे जाने वाले स्व. ए.बी.ए. गनी खां की भतीजी मौसम नूर को भी पार्टी छोड़ कर तृणमूल में जाने को विवश किया और यह सब तब किया जब पिछले वर्ष के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का पत्ता पूरी तरह साफ हो गया। अतः धारा 355 लगाने की उनकी मांग को तो भाजपा शासन भी गंभीरता से नहीं लेगा लेकिन प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि रामपुर हाट के दोषियों को किसी भी कीमत पर सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए। इसमें कोई राजनीति नहीं है क्योंकि कांड करने वाले लोग मानवता के दुश्मन हैं। क्या सितम है कि रामपुर हाट में ‘रावण लीला’ हो गई।
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