अब रास्ता क्या है?
राष्ट्रीय लाॅकडाऊन समाप्त होने में अब छह दिन का समय शेष रह गया है और इस दौरान भारत के लोगों ने कमोबेश कोरोना से लड़ने में सरकारी उपायों का समर्थन किया है व प्रतिबन्धों का पालन करने में तत्परता भी दिखाई है
12:09 AM Apr 30, 2020 IST | Aditya Chopra
राष्ट्रीय लाॅकडाऊन समाप्त होने में अब छह दिन का समय शेष रह गया है और इस दौरान भारत के लोगों ने कमोबेश कोरोना से लड़ने में सरकारी उपायों का समर्थन किया है व प्रतिबन्धों का पालन करने में तत्परता भी दिखाई है। परन्तु यह परिस्थिति लगातार नहीं बनी रह सकती खास कर समाज के गरीब, कमजोर व कामगर वर्ग के लिए क्योंकि लाॅकडाऊन ने उसकी रोजी को निगलने का कार्य किया है। किन्तु सरकार का लक्ष्य सर्वप्रथम इसी वर्ग की जान बचाने का था जिससे वह बाद में अपनी रोजी को संभाल सके। लाॅकडाऊन के लागू करने से दूसरी तरफ लाभ यह हुआ है कि देश भर में केवल 20 जिलों में ही कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 60 प्रतिशत है और शेष 40 प्रतिशत लोग अन्य 109 जिलों में हैं।
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15 अप्रैल से लागू हुए लाॅकडाऊन के दूसरे चरण के बाद पिछले 14 दिनों में देश के 250 जिलों में कोरोना का एक मामला भी सामने नहीं आया है। स्वास्थ्य विभाग द्वारा किये गये इस आकलन का अर्थ यह निकाला जाना चाहिए कि आगामी 3 मई के बाद केवल उन्हीं इलाकों या जिलों में लाॅकडाऊन कड़ाई के साथ लागू रहेगा जहां कोरोना ग्रस्त पीड़ित हैं, परन्तु शेष स्थानों में इसका प्रसार रोकने के लिए ‘दो गज की दूरी-बहुत जरूरी’ नियम लागू रहेगा। अतः तीन मई के बाद पूरे देश को इस नियम का पालन करने के लिए अभी से तैयार रहना चाहिए।
जाहिर है लाॅकडाऊन को समाप्त करने के लिए अब विभिन्न सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों से आवाज उठनी शुरू हो गई है और स्वयं सरकार भी सोचती है कि आर्थिक गतिविधियों को चालू करके ही समाज के कमजोर वर्ग में विश्वास पैदा किया जा सकता है मगर उसकी जिन्दगी की कीमत पर नहीं। इसीलिए देश के उन हिस्सों का चयन किया जा रहा है जहां कोरोना अपना असर नहीं डाल सका है और इन्हें ‘ग्रीन जोंस’ कहा जा रहा है। वाजिब है कि ग्रीन जोंस में आर्थिक हलचल पैदा की जाये और इन्हें उन क्षेत्रों से अलग रखा जाये जहां कोरोना पीड़ित हैं।
फिलहाल देश के कुल 736 जिलों में से 207 जिले ऐसे हैं जिनमें कोरोना पीड़ित हैं। इन्हें ‘ओरेंज जोन’ के जिले कहा गया है और इनमें से 20 लोग ऐसे हैं जिन्हें ‘रेड जोन’ कहा गया है और इनमें 60 प्रतिशत कोरोना पीड़ित हैं। एक तस्वीर यह उबरती है कि 3 मई के बाद देश के पांच सौ से अधिक जिलों को लाॅकडाऊन की कही शर्तों से मुक्त किया जा सकता है और इनमें कोई भी कारोबार शुरू करने की शर्त दो गज की दूरी हो सकती है, परन्तु ऐसा करने के लिए इन जिलों का सम्बन्ध ओरेंज जोन के जिलों से काटना पड़ेगा खास कर रेड जोन के जिलों से। यह कार्य भारत की विशालता और विविधता को देखते हुए काफी दुष्कर है। जमीन पर इसे तभी उतारा जा सकता है जबकि इस जोन के लोगों को रेड, ओरेंज या ग्रीन पहचान दी जाये। मगर टेक्नोलोजी के युग में यह असंभव भी नहीं है। जिस देश में 130 करोड़ लोगों का आधार कार्ड हो उनके इन कार्डों को कम्प्यूटर टैक्नोलोजी की मार्फत लाल, हरे या नारंगी कार्डों की पहचान दी जा सकती है। जब आधार कार्ड व अन्य मदद परियोजनाओं का आकलन करके प्रत्येक जरूरतमन्द व्यक्ति के जनधन खाते में केवल पांच दिनों में धनराशि भेजी जा सकती है तो यह कार्य पांच दिनों में आसानी से किया जा सकता है। इस व्यवस्था के बाद एक जिले से दूसरे जिले में जाने की शर्त निर्धारित करके कोरोना को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। ऐसा करना इसलिए आवश्यक होगा क्योंकि लाॅकडाऊन से कसमसाये लोगों की सब्र का बांध भी अब टूटता सा लगता है। घरों में बन्द और रोजी-रोटी से दूर कमजोर तबके के लोग बाहर जाने को बेकरार दिखते हैं जिससे वे अपने बाल-बच्चों के लिए भरपेट भोजन जुटा सकें और जिन्दगी की रफ्तार बढ़ा सकें। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह अधिक समय तक खाली नहीं बैठ सकता और यह भी कहावत है कि ‘खाली दिमाग शैतान का घर’ यही वजह है कि कुछ स्थानों पर लोग सड़कों पर बाहर निकल कर गुस्सा निकाल रहे हैं, परन्तु उन्हें कोरोना से उनकी सुरक्षा करने वाले लोगों जैसे पुलिस व स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला करने का कोई अधिकार नहीं है। ये लोग तो केवल अपना धर्म व दायित्व निभा रहे हैं। उन्हें जो कार्य दिया गया है उसका पालन करना ही उनका फर्ज है और इस काम में वे अपनी जिन्दगी तक दांव पर लगा रहे हैं। उन पर किसी भी प्रकार हमला जघन्य अपराध बन जाता है। हमें ध्यान रखना होगा कि इस प्रकार की गतिविधियां किसी भी रूप मे राजनीतिक रंग न ले सकें।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और ‘शोर-शराबा’ करना इसकी आदत बन चुकी है। अतः इस मोर्चे पर राज्य सरकारों को विशेष सावधान रहना होगा और 3 मई के बाद का ‘शान्त’ रास्ता खोजना होगा। राज्य सरकारों को यह भी सोचना है कि आर्थिक गतिविधियां समाप्त होने से उनके खजाने खाली हो चुके हैं और कुछ प्रदेशों के पास तो अपने कर्मचारियों का वेतन देने तक के पैसे भी नहीं बचे हैं। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि रोज कमा कर खाने वाले आदमी की हालत क्या होगी ?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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