Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

10 फीसदी आरक्षण : सोचने का क्षण!

NULL

07:59 AM Jan 18, 2019 IST | Desk Team

NULL

आरक्षण देश का एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। 1991 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग उठती रही है। इस सम्बन्ध में कई प्रयास भी किए गए। इस देश ने वी.पी. सिंह शासनकाल में आरक्षण आंदोलन भी देखा जब युवा सड़कों पर आकर आत्मदाह करने लगे थे। पी.वी. नरसिम्हा राव ने भी मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इसे खारिज कर दिया था। अब नरेन्द्र मोदी सरकार ने संविधान में संशोधन कर आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की है।

नरेन्द्र मोदी सरकार की पहल सराहनीय है क्योंकि इससे गरीबों को ही लाभ होगा। तमिलनाडु में भी 67 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन यह संविधान के उन प्रावधानों के तहत है ​जिन्हें अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी वर्ग को आरक्षण के लिए दो अनिवार्य शर्तें होती हैं। सबसे पहले तो उनके लिए संविधान में प्रावधान होना चाहिए, दूसरा उसके लिए आधार दस्तावेज होना चाहिए। महाराष्ट्र में भी मराठों को आरक्षण देने के राजनीतिक फैसले से पहले एक आयोग का गठन किया गया था। अगड़ी जातियों को आरक्षण के निर्णय को शीर्ष अदालत में चुनौती दे दी गई है। याचिका में कहा गया है कि इससे 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन हुआ है और यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। फैसला अन्ततः सुप्रीम कोर्ट को ही करना है।

सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा कि क्या 50 फीसदी की सीमा मूल ढांचे का हिस्सा है या नहीं। इन तमाम सवालों के बीच यह भी सवाल उठ रहा है कि सामान्य वर्ग के आरक्षण में 8 लाख का पैमाना कैसे आया? इसी बीच मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने देशभर के 40 हजार काॅलेजों और 900 विश्वविद्यालयों में 10 फीसदी आरक्षण का कोटा इसी शैक्षणिक सत्र से लागू करने की बात कही है। 10 फीसदी आरक्षण के लिए 25 फीसदी सीटें बढ़ाई जाएंगी। उन्होंने देश के निजी सैक्टर के उच्च शिक्षा संस्थानों में भी इसे लागू करने का इरादा व्यक्त किया है। इसी वर्ष से इसे लागू करने के लिए सभी विश्वविद्यालयों को सूचना दी जाएगी और उनके प्रॉस्पैक्टस में यह डाला जाएगा कि जो अनारक्षित वर्ग है, जिनको आज तक आरक्षण नहीं मिला है, ऐसे वर्गों के छात्रों के लिए 10 फीसदी आरक्षण रहेगा।

राजनीतिक रूप से जावड़ेकर का बयान काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि सीटें बढ़ाने का फैसला इसलिए किया गया ताकि 10 फीसदी आरक्षण होने के बाद किसी भी वर्ग को पहले मिल रही सीटों पर कोई असर नहीं पड़े। अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को पहले ही 10 फीसदी आरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है। मौजूदा समय में निजी कॉलेजों में आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं है, इससे जुड़े कुछ मामले अदालतों में चल रहे हैं। मीडिया में आई खबरों के मुताबिक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम जैसे उच्च शैक्षणिक संस्थानों समेत देशभर में शिक्षण संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण देना है तो इसके लिए 10 लाख सीटें बढ़ानी होंगी। भारत के कई शिक्षण संस्थानों का वर्तमान ढांचा काफी अपर्याप्त है, उनमें न तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले शिक्षक हैं और न ही साधन। भारत में निजी संस्थानों ने आधारभूत ढांचे पर काफी धन खर्च किया है और उन पर अपने खर्चों को निकालने का दबाव भी है। एक आदेश से सरकार निजी संस्थानों में आरक्षण कैसे लागू कराएगी, यह सवाल विचारणीय है।

देश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में छात्र दाखिला ही नहीं ले रहे क्योंकि उनकी ज्यादा रुचि एमबीए करने में है। इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करके भी वह बेरोजगार घूम रहे हैं। वर्ष 2018 में कम होते दाखिलों को देखते हुए अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने 800 इंजीनियरिंग कॉलेजों को बन्द करने का फैसला किया था। जो चल रहे हैं वह शिक्षा के नाम पर शोरूम हो चुके हैं। ‘पैसे चुकाओ और डिग्री ले जाओ’, कुछ ऐसी संस्थाएं भी हैं जो घर बैठे लोगों को इंजीनियर बना रही हैं। सवाल यह भी है कि सरकार जुलाई 2019 से इसे कैसे लागू कर पाएगी? मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था कैसे करेगी? बुनियादी सुविधाएं कहां हैं? सीटें बढ़ेंगी तो कमरों की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी, शिक्षक भी बढ़ाने पड़ेंगे। संविधान में निजी कम्पनियों में आरक्षण का प्रावधान नहीं है और सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले राजनेता 1991 से लगातार निजी कम्पनियों में सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिलाने का प्रलोभन देते आ रहे हैं। सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात तो होती है जबकि सरकारी नौकरियों में रोजगार के अवसर लगातार घटे हैं।

नरेन्द्र मोदी शासनकाल के दौरान ही पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने के विरोध में आंदोलनों का सिलसिला चला था। बहुजनों के लिए आरक्षित हजारों सीटें सालों से खाली पड़ी हैं। संसद में भी यह मामला उठा था कि जब हजारों सीटें अभी भरी ही नहीं गईं तो नए आरक्षण से क्या हासिल होगा। सरकार को निजी क्षेत्र को, चाहे वह शिक्षण संस्थान हो या कम्पनियां, उन्हें विश्वास में लेना चाहिए था। 1956 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की गई थी, वह भी आज तक उच्च शिक्षा में एकरूपता नहीं ला सका। अनुदान देने की उसकी कार्यशैली पर भी सवाल उठते रहे हैं। ऐसी स्थिति में 10 फीसदी आरक्षण का कितना लाभ युवाओं को मिलेगा, इस बारे में सोचने की जरूरत है आैर कुछ ठोस कदम उठाने की भी।

Advertisement
Advertisement
Next Article