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23 साल : क्या खोया क्या पाया ?

03:39 AM Oct 11, 2024 IST | Shera Rajput
23 साल   क्या खोया क्या पाया

23 साल एक लंबा समय है ज़िन्दगी बदलती रहती है, कभी बेहतरी के लिए और कभी नहीं। खुशियों के पल आते हैं और ठोकरें भी मिलती हैं, कभी आपकी तारीफ होती है, तो कभी आलोचना। लेकिन आप चलते रहते हैं, एक योद्धा कभी हार नहीं मानता चाहे हालात कैसे भी हों। नरेंद्र दामोदरदास मोदी की ज़िंदगी का इससे बेहतर वर्णन कुछ नहीं हो सकता। 7 अक्टूबर 2001 को नरेंद्र मोदी ने पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। तब वह विधायक भी नहीं थे। उनका पदोन्नयन परिस्थितिजन्य था। उस समय के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की तबीयत बिगड़ रही थी और भुज भूकंप के बाद की चुनौतियां सामने थीं। राज्य का नेतृत्व मोदी को सौंपा गया और इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम है, गुजरात दंगे उनके उतार-चढ़ाव भरे करियर में एक काला धब्बा बनकर रह गए हैं। हालांकि अदालतों ने उन्हें क्लीन चिट दी, लेकिन जख्म इतनी आसानी से जाते नहीं हैं ।
मोदी का विशेष ध्यान था गुजरात के आर्थिक विकास पर, जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री बने रहते हुए बखूबी निभाया। मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मोदी के शासन मॉडल और नीतियों ने स्थिति को बदल दिया। वित्तीय और तकनीकी पार्क स्थापित किए गए, जिससे निवेश आकर्षित हुआ, मोदी के प्रयासों से कई कंपनियां गुजरात आईं, उत्पादन में उछाल आया और गुजरात ‘‘व्यवसाय करने में आसान’’ की विश्व रैंकिंग में शीर्ष पर पहुंच गया। आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में भी गुजरात भारत के राज्यों में पहले स्थान पर रहा। इसलिए जब मोदी गुजरात से दिल्ली पहुंचे, तो वे गोधरा की छवि लेकर नहीं आए, बल्कि उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा गया जिसका प्राथमिक महत्व विकास है। हर महत्वाकांक्षी और प्रगतिशील नेता को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, और मोदी भी इससे अछूते नहीं रहे।
जब उन्हें 2014 के चुनावों से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, तो उनके विरोधियों में एक नाम था उनके पुराने समर्थक एल.के. आडवाणी का। 2002 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को "राज धर्म" का पालन करने की याद दिलाई थी, तब चर्चा थी कि वाजपेयी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने का मन बना लिया था, लेकिन आडवाणी ने इसका विरोध किया। माना जाता है कि उन्होंने मोदी का समर्थन किया और उन्हें इस्तीफा देने से बचा लिया।
वर्तमान में, यह स्पष्ट है कि आडवाणी और मोदी के बीच संबंध अब सौहार्दपूर्ण नहीं हैं। मोदी ने आडवाणी को प्रतिष्ठित भारत रत्न दिलाने में भूमिका निभाई, लेकिन 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का आडवाणी द्वारा विरोध किए जाने के जख्म अब भी ताजा हैं लेकिन वह अब अतीत की बात है। अब आडवाणी सक्रिय राजनीति से बाहर हैं, और मोदी के अन्य नए विरोधी खड़े हो चुके हैं। यह भी एक नई यात्रा के समान हैं जिसकी अपनी चुनौतियां हैं।
हालांकि, मोदी के आलोचक भी उनके विकास के मार्ग और 'नया भारत' की दिशा को नकार नहीं सकते। उन्होंने राष्ट्रवादियों के बीच भारतीय होने का गर्व जगाया। दुनिया ने न केवल भारत को गंभीरता से लेना शुरू किया, बल्कि जब मोदी बोलते हैं, तो लोग सुनते हैं। मोदी के नेतृत्व में भारत एक निर्णायक और प्रमुख शक्ति बनकर उभरा है। आलोचक भले ही इसे बीजेपी की पीआर मशीनरी कहें, लेकिन भारत की वैश्विक स्थिति पर कोई दो राय नहीं हो सकती।
मोदी ने आम भारतीयों के जीवन को बेहतर बनाने के कई प्रयास किए हैं। किस प्रधानमंत्री ने ग्रामीण घरों में शौचालय बनाने की सोची थी? किस प्रधानमंत्री ने सीधे बैंक खातों में पैसे ट्रांसफर करने की व्यवस्था की, खासकर महिलाओं के लिए? किस प्रधानमंत्री ने घरों में चूल्हों को एलपीजी से बदलने की बात की थी?
समग्र स्तर पर मोदी सरकार के कई पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए, जैसे डिजिटल और तकनीकी प्रगति, 'मेक इन इंडिया' पहल के तहत स्थानीय निर्माण को बढ़ावा देना, आधारिक संरचना का विकास, स्वास्थ्य बीमा, जल और पर्यावरण संरक्षण, खेल विकास और गरीबी उन्मूलन सहित बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा वित्त पोषित स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम।
फिर भी सवाल उठता है, मोदी की तीसरी चुनावी दौड़ में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत क्यों नहीं मिला? इसका जवाब आसान नहीं हैं लेकिन इसका मुख्य कारण शायद यह है कि देश में एक भय का माहौल है, कुछ वर्गों को घुटन महसूस होती है, और स्वतंत्रता की कमी शासन पर सवाल खड़े करती है।
सरकार की आलोचना करने वालों को चुप कराने और संस्थानों जैसे सीबीआई या एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट के कमजोर होने के आरोप भी उभरते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि सुधार की आवश्यकता है। लेकिन सुधार का मतलब हार मान लेना नहीं है। हालिया लोकसभा चुनाव परिणाम बीजेपी के लिए चेतावनी हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान होना चाहिए और विकास और स्वतंत्रता के बीच कोई समझौता नहीं होना चाहिए। और साथ ही अपने मन की बात कहने की पूरी आजादी होनी चाहिए। न केवल इन्हें बराबर का महत्व देना चाहिए बल्कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में स्वतंत्रता को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
वर्तमान स्थिति को देखो तो, मोदी के नेतृत्व में भारत में असीमित क्षमताएं हैं लेकिन कुछ पहलू ऐसे हैं जिन्हें तराशने और परिष्कृत करने की जरूरत है, रंग शायद सही हैं, लेकिन उनके मिश्रण में कुछ खामियां हैं जिन्हें सुधारना आवश्यक है। जैसे अब मोदी ने, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर शासन के 23 वर्ष पूरे करने की ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण उपलब्धि को हासिल किया है, उन्हें इसका जश्न मनाना चाहिए। साथ ही, उन्हें उन समस्याओं पर भी नज़रें बनाएं रखनी होंगी जो उनके मार्ग में बाधा बन सकती हैं।

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Shera Rajput

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