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तीन तलाक कानून के 6 साल

04:10 AM Aug 28, 2025 IST | Editorial

भारत में मुसलमान ही एकमात्र ऐसा समुदाय है जिसके लिए तलाक को आपराधिक और दंडनीय माना जाता है। जब तक कि हम अतीत को खंगालकर पिछले छह वर्षों के वर्तमान का आकलन नहीं करते, यह भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न की एक और भयावह याद जैसा प्रतीत हो सकता है।
1937 से 2017 तक, मुस्लिम महिलाओं को तुरंत तीन तलाक देना औपनिवेशिक शरीयत कानून के तहत कानूनी मान्यता के साथ प्रचलन में था। जैसा कि बिहार के वर्तमान राज्यपाल और इस प्रथा के खिलाफ आजीवन संघर्षरत रहे आरिफ मोहम्मद खान का कहना है - यह "क्रूरता" थी –जो पवित्र कुरान और पैगंबर मुहम्मद के जीवन तथा उनके कार्यों और प्रशासनिक आचरण द्वारा प्रतिपादित कानून की मूल भावना के बिल्कुल विपरीत है।
1985 में जब शाह बानो नाम की एक महिला ने तीन तलाक के एक मामले से जुड़े गुजारे भत्ते के लिए अपने वकील पति के खिलाफ अदालत में मुकदमा जीता तो कुछ उप-संप्रदायों और सुधार के कुछ व्यक्तिगत एजेंटों को छोड़कर, सुन्नी मौलवियों ने न केवल इसका समर्थन किया, बल्कि उन्होंने 'शरीयत बचाओ' के नाम पर मुस्लिम जनता के बीच इसके बचाव के लिए उन्माद भी पैदा किया।
इन मौलवियों की दलील का सबसे चौंका देने वाला और दुखद पहलू यह था कि उन्होंने इसे तलाक-ए-बिद्दत (इस्लाम के निर्धारित सिद्धांतों, यानी कुरान और सुन्नत के बाहर विवाह को तुरंत रद्द करने का एक नया तरीका) करार दिया। फिर भी वे इसे शरीयत या इस्लामी न्यायशास्त्र का अभिन्न अंग मानते थे।
शाह बानो मामला भारत के आपातकाल के बाद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है और इसका राजनीतिक लाभ विभिन्न मौलवी और राजनीतिक वर्गों ने उठाया और यह शायद अभी तक कई लोगों के लिए दुधारू गाय बना हुआ है।
कुल मिलाकर, 1 अगस्त 2019 को मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 द्वारा तत्काल तीन तलाक को दंडनीय अपराध घोषित किए जाने के बाद से पिछले छह वर्षों में क्या बदलाव आया है?
पहला, रूढ़िवादी मौलवियों की पकड़ काफ़ी हद तक ढीली पड़ गई है। उन्होंने 2019 के क़ानून के ख़िलाफ लगभग 1986 जैसे आंदोलन की धमकी दी थी लेकिन कुछ रैलियों को छोड़कर, "शरीयत और संविधान बचाओ" अभियान का उनका आह्वान शुरू होने के तत्काल बाद ही विस्मृति के गर्त में समा गया।
सभी प्रमुख मुस्लिम संगठनों जैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा-ए-हिंद और कई अन्य ने मुसलमानों, खासकर महिलाओं को नए कानून का विरोध करने और इसे रद्द करने की मांग करने के लिए प्रेरित करने की कोशिश की। कुछ हद तक इस मुद्दे ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया लेकिन धीरे-धीरे यह मुद्दा गुमनामी के अंधेरे में चला गया।
रूढ़िवादी मौलवियों के इस गुट को हार का सामना इसलिए करना पड़ा कि उन्होंने इसे मुसलमानों की पारिवारिक व्यवस्था के लिए एक सर्वनाश के रूप में देखा था और कहा था कि “यह मुसलमानों के घर तबाह कर देगा।” इसको अस्तित्व में आए छह साल हो गए हैं और किसी भी मुस्लिम संगठन के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि इस कानून ने मुसलमानों के घरों को नुक्सान पहुंचाया है।
इसके अलावा, तीन तलाक क़ानून का भारत में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू होने से जुड़ा विवाद भी है। यूसीसी केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में एक प्रमुख मुद्दा रहा है। पार्टी सभी नागरिक क़ानूनों को एक ही संहिता के जरिए सुव्यवस्थित बनाने का दावा करती है।
सरल परिभाषा के अनुसार भी यूसीसी का आशय एक ऐसा कानून है जो देश के सभी नागरिकों पर विवाह, तलाक, हिरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों में लागू होता है। भाजपा का दावा है कि यूसीसी के उसके विचार का उद्देश्य धर्मों, उनके धर्मग्रंथों और रीति-रिवाजों पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर हर नागरिक पर लागू होने वाले समान नागरिक कानूनों को स्थापित करना है, ठीक उसी तरह जैसे आपराधिक कानून सभी भारतीयों के लिए समान हैं।
हालांकि, यह यूसीसी को देश के सबसे विवादास्पद मुद्दों में से एक बनाता है। उदाहरण के लिए, भाजपा शासित राज्यों में से एक, उत्तराखंड में लागू यूसीसी ने आदिवासियों को इसके दायरे से मुक्त कर दिया। यह इस कानून को उसकी मूल आत्मा और उद्देश्य से वंचित कर देता है और जिस तरह से इस कानून का इस्तेमाल कुछ भाजपा नेताओं की बयानबाजी में किया गया है उससे ऐसा लगता है कि यह मुसलमानों को डराने और केवल चुनावी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने का एक तरीका है। हालांकि एआईएमपीएलबी अपने आदर्श निकाहनामा को लागू नहीं कर पाया है, फिर भी कई युवा विशेष विवाह अधिनियम के तहत अपनी शादियों को पंजीकृत कराने के लिए अदालतों का रुख कर रहे हैं जिससे स्वचालित रूप से तलाक केवल अदालतों के माध्यम से ही हो सकेगा।
हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अदालतों के हस्तक्षेप से तलाक के मामले कम हो जाएंगे लेकिन उम्मीद है कि इससे मामला उतना नहीं उलझेगा, जितना घर पर तलाक कहने और स्थानीय मौलवियों व परिवार के सदस्यों के हस्तक्षेप से विवाद होने पर होता है। तीन तलाक कानून लागू होने के बावजूद, पुलिस थानों तक पहुंचने वाले ज़्यादातर मामले असल में ऐसे ही विवादों से जुड़े होते हैं। शुक्र है कि ऐसे मामले बहुत कम हैं।

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