फिर भगदड़ में मौतें
धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में भगदड़ की बढ़ती घटनाएं चिंताजनक हैं। आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम िजले में काशी बुग्गा श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में अचानक मची भगदड़ में 9 श्रद्धालुओं की मौत हो गई जबकि दर्जनों घायल हो गए। उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत के मंदिरों का प्रबंधन अच्छा माना जाता है लेकिन एक के बाद एक भगदड़ की घटनाओं ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं। आंध्र प्रदेश में इसी वर्ष 5 जनवरी को तिरूपति मंदिर में हुए हादसे के बाद सरकार ने मंदिरों और भीड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर व्यवस्था बनाने और भगदड़ रोकने के कई उपायों की घोषणा की थी लेकिन ठीक 10 महीने बाद एक और हादसा हो गया। देवउठनी एकादशी के मौके पर मंदिर में बहुत ज्यादा भीड़ हो गई थी जिससे रास्ता जाम हो गया। आने और जाने का रास्ता एक ही था। कुछ क्षेत्रों में निर्माण चल रहा था वहां मिट्टी, पत्थर, गड्ढे और लौहे की रॉड्स खुले पड़े थे। भगदड़ मची किसी का पांव फिसला, कुछ लोग गिरे और पीछे से आती भीड़ बेकाबू हो गई। यह मंदिर 4 महीने पहले ही अगस्त में दर्शन के लिए खोला गया था। इसे बनने में 10 साल का वक्त लगा। इस मंिदर का डिजाइन और स्थापत्यकला पूरी तरह से तिरूमाला श्री वेंकटेश्वर मंदिर से प्रेरित है। आयोजनों को अंदाजा ही नहीं हुआ कि इतनी भीड़ आ जाएगी। यह एक निजी मंदिर है। इसलिए यह देवालय विभाग के अंतर्गत नहीं आता। मंदिर प्रबंधन ने सरकार या जिला प्रशासन को इस प्रयोजन की कोई जानकारी नहीं दी थी और न ही भीड़ प्रबंधन की कोई व्यवस्था थी। यह गंभीर लापरवाही है जिस पर अब ध्यान दिया जा रहा है। क्या बिना सूचना के इतना बड़ा आयोजन करना ठीक है? निजी मंदिर प्रबंधन ने सेफ्टी ऑडिट क्यों नहीं करवाया? निर्माणाधीन स्थल पर भीड़ जमा क्यों होने दी गई। धार्मिक स्थानों पर लोग मोक्ष की कामना लेकर आते हैं और उनमें अपार श्रद्धा होती है क्योंकि श्रद्धालुओं में भावनात्मक आवेश का स्तर बहुत ऊंचा होता है। हाथरस और महाकुंभ में श्रद्धालुओं की भीड़ का अनियंत्रित होना इसी आवेश का उदाहरण है। धार्मिक स्थलों पर होने वाली भगदड़ में अक्सर यह देखा जाता है कि श्रद्धालु किसी भी संकेत या चेतावनी को नजरंदाज कर देते हैं और अपनी आस्था की पूर्ति में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उन्हें आसपास के खतरों का भान नहीं रहता। राजनीतिक रैलियों में भी समान परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जहां समर्थकों का उत्साह और नेताओं को देखने की उत्सुकता भीड़ को अनियंत्रित कर देती है। इन सभी स्थितियों में आयोजकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे भीड़ के मनोविज्ञान को समझते हुए उचित व्यवस्था करें। भगदड़ की घटनाओं में जांच निष्कर्षों से पता चलता है कि अधिकांश मामलों में प्रशासनिक और आयोजकों की लापरवाही बड़ी वजह रही है।
हाथरस घटना की न्यायिक जांच में यह पाया गया कि आयोजकों ने जानबूझ कर भीड़ की संख्या कम बताई और प्रशासन ने भी पूर्व तैयारी में कोताही बरती। करूर की घटना में भी सुरक्षा खामियां सामने आईं, जहां रैली स्थल पर पर्याप्त अवरोधक प्रणाली और आपातकालीन निकास की व्यवस्था नहीं थी। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ की घटना में रेलवे प्रशासन की जिम्मेदारी स्पष्ट थी, क्योंकि महाकुंभ के कारण भारी भीड़ की संभावना थी, फिर भी प्लेटफार्म पर समुचित व्यवस्था नहीं की गई। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में भीड़ प्रबंधन को गंभीरता से नहीं लिया जाता और इसे केवल पुलिस बल की तैनाती तक सीमित मान लिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि भीड़ प्रबंधन एक विशेषज्ञता का क्षेत्र है जिसमें मनोविज्ञान, प्रौद्योगिकी और आपातकालीन प्रतिक्रिया का समन्वय आवश्यक है। विकसित देशों में बड़े आयोजनों के लिए विशेष भीड़ प्रबंधन योजनाएं तैयार की जाती हैं और उन्हें लागू करने के लिए प्रशिक्षित दल होते हैं।
इसी वर्ष जून में बेंगलुरु में एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु के आईपीएल चैिम्पयन बनने पर सार्वजनिक जश्न में भी भगदड़ मचने से कई लोगों की मौत हो गई थी।
जिस भी जगह ज्यादा भीड़भाड़ होती है, वहां भीड़ अनियंत्रित अराजकता की शिकार हो सकती है। इससे भगदड़ की आशंका बनी रहती है। हालांकि, योजना बनाने, सीखने और कार्रवाई करने में विफलता इन कमजोरियों को त्रासदियों में बदल देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के भीड़ प्रबंधन दिशा-निर्देशों को छोड़कर दें तो भारत के किसी भी राज्य या शहर में भीड़ प्रबंधन को लेकर एक समान प्रोटोकॉल नहीं है। ऐसा कोई कानून नहीं है जो बड़े सार्वजनिक आयोजनों की योजना बनाने, उन्हें क्रियान्वित करने और प्रबंधित करने के तरीके को अनिवार्य बनाता हो। इसके अलावा, एनडीएमए और राज्य एवं जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण नीति निर्माण और समन्वय निकाय हैं। हालांकि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान एनडीएमए और एसडीएमए की सेवाएं ली जाती हैं लेकिन ये दोनों प्राधिकरण उन आपदाओं के लिए व्यावहारिक हैं, जहां तबाही कई दिनों या हफ्ते तक रहती है। भगदड़ जैसी स्थिति को संभालने के लिए ये शायद उतने उपयुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि भगदड़ अचानक कुछ ही मिनटों में मच जाती है। एकदम से हालात बेकाबू हो जाते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि भीड़ प्रबंधन का भार आमतौर पर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों पर पड़ता है जबकि ये पहले से ही बहुत ज्यादा तनावग्रस्त होते हैं। इनमें से कई के पास भगदड़ के नियंत्रण के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण और जरूरी उपकरण नहीं होते हैं।
भीड़ प्रबंधन के लिए एक स्थायी और व्यावसायिक तंत्र विकसित करने की जरूरत है जो बड़े आयोजनों की निगरानी और मार्ग दर्शन करें। अब तो ड्रोन, सीसीटीवी और नई प्रौद्योगिकी उपलब्ध है। इनका प्रयोग ज्यादा से ज्यादा किया जाना चाहिए। भीड़ के घनत्व और गति को मापने के लिए कृत्रिम बुद्धिमता आधारित भीड़ विश्लेषण प्रणाली का भी प्रयोग किया जाना चाहिए। लोगों की जिंदगी बचाने के लिए कानूनी प्रावधानों को और भी कड़ा करना होगा।