एक चुनाव कठिन, मगर बड़े फायदे का !
राज्य में विधानसभा के चुनाव समाप्त होते हैं तो किसी दूसरे राज्य का नंबर आ जाता है।
ये बात आपको थोड़ी अचरज की लग सकती है लेकिन हकीकत यही है कि हम अखबार वाले अमूमन हर वक्त चुनावी कवरेज में लगे रहते हैं। किसी राज्य में विधानसभा के चुनाव समाप्त होते हैं तो किसी दूसरे राज्य का नंबर आ जाता है, वह खत्म हुआ तो स्थानीय निकायों के चुनाव शुरू हो जाते हैं। आंकड़ों की भाषा में कहूं तो पहले चुनाव से लेकर 2023 तक हर साल औसतन 6 चुनाव हुए, इसमें शुरुआती चार चुनावों को तो आप हटा ही दीजिए क्योंकि 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। आप जानते ही हैं कि हर चुनाव के साथ आचार संहिता लागू हो जाती है और इस दौरान प्रशासनिक निर्णय ठप्प हो जाते हैं। क्या कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि इसका कितना खामियाजा देश को भुगतना पड़ता है? पत्रकार और राजनेता दोनों होने के कारण मैं बहुत करीब से चुनावों का विश्लेषण करता रहा हूं और मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि सभी राजनीतिक दलों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर सहमत होना चाहिए।
निश्चित रूप से क्षेत्रीय दलों का अपना नजरिया हो सकता है, कुछ समस्याएं भी हो सकती हैं लेकिन इस बात पर तो सभी को सहमत होना ही होगा कि राजनीतिक दलों का हित किसी भी हालत में देश से बड़ा नहीं हो सकता। हमें इस बात पर भी गौर करना होगा कि चुनावों का सरकारी खर्च जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, उसे काबू में लाना बहुत जरूरी है। मैं उस खर्च की तो बात ही नहीं कर रहा हूं कि एक-एक सीट के लिए सौ-पचास करोड़ रुपए का खर्च उम्मीदवार करते हैं। मैं तो फिलहाल केवल अधिकृत सरकारी खर्चों की बात कर रहा हूं। यदि हम पैसा बचाएंगे तो विकास कार्यों में खर्च होगा, विशेषज्ञ मानते हैं कि कम से कम लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी एक साथ होने लग जाएं तो देश के जीडीपी में एक से डेढ़ प्रतिशत का इजाफा हो सकता है। 1951-52 के पहले चुनाव में करीब 17 करोड़ मतदाता थे और खर्च हुआ था करीब साढ़े दस करोड़ रुपए, एक मतदाता पर औसतन 60 पैसे! 1957 में तो यह खर्च कम होकर केवल 30 पैसे प्रति मतदाता हो गया था लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में खर्च का यह आंकड़ा करीब 1400 रुपए प्रति मतदाता पहुंच गया है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि लोकसभा चुनाव का खर्च केंद्र सरकार जबकि विधानसभा चुनाव का खर्च संबंधित राज्य सरकारें वहन करती हैं। यदि एक साथ चुनाव होने लगें तो एक ही खर्च या कुछ प्रतिशत के अतिरिक्त खर्च में सभी चुनाव हो जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आता कि गणित जब इतना सीधा-सादा है तो फिर विरोध क्यों हो रहा है। हां, मैं इस बात से सहमत हूं कि इसके लिए व्यापक आधारभूत तैयारियां करनी पड़ेंगी लेकिन यह कोई असंभव काम नहीं है। अभी लोकसभा चुनाव के लिए पूरे देश में विभिन्न चरणों में एक साथ चुनाव होते ही हैं तो उसमें विधानसभा और स्थानीय निकायों को जोड़ देने में हर्ज क्या है? जो लोग यह कहते हैं कि इससे मतदाता भ्रमित होंगे, उन्हें मैं याद दिलाना चाहूंगा कि उन चुनावों को याद करें जब भारतीय मतदाता ने राजनीतिक सोच-समझ को उलट-पुलट करके रख दिया था, हमारा मतदाता सजग और सतर्क है।
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है कि यदि किसी बड़े राजनीतिक दल के पक्ष में हवा चल रही होगी तो उससे विधानसभा के चुनाव में उन्हें घाटा हो सकता है। मैं इस शंका से सहमत नहीं हूं क्योंकि भारतीय मतदाता केंद्र और राज्य को लेकर अपनी सोच रखता है। उसे यदि आप पर भरोसा है तो आप भी भरोसा रखिए कि वह आपको दरकिनार नहीं करेगा। और भारत के लिए वन नेशन वन इलेक्शन कोई अजूबा तो है नहीं, पहले चार चुनाव एक साथ हुए मगर राजनीति की उठापटक, आयाराम-गयाराम के चक्कर में कई राज्यों में सरकारें चली गईं और विधानसभा के चुनाव अलग वक्त पर होने लगे। इस समस्या के लिए दोषी राजनीतिक दल ही रहे हैं तो समस्या का निदान भी उन्हें ही ढूंढना होगा। मैं ऐसे कई देशों का उदाहरण दे सकता हूं जहां एक साथ चुनाव होते हैं। अमेरिका का ही उदाहरण लीजिए जहां राष्ट्रपति, कांग्रेस और सीनेट के लिए न केवल एक साथ बल्कि हर चौथे साल नवंबर के पहले मंगलवार को चुनाव होता है, फ्रांस में हर पांच साल में राष्ट्रपति और नेशनल असेंबली के लिए एक साथ चुनाव होते हैं. स्वीडन में तो संसद, नगरपालिका और काउंटी परिषदों के स्थानीय सरकार के चुनाव भी एक साथ ही होते हैं, एक साथ चुनाव की सूची में कनाडा, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, फिलीपींस और इंडोनेशिया भी शामिल हैं।
भारत में एक साथ चुनाव का मसला अब संयुक्त संसदीय समिति के पास पहुंच चुका है और मेरी उम्मीद सकारात्मक है। क्योंकि यह वक्त की जरूरत है, आज हमारे पास विभिन्न तरह के तकनीकी उपकरण हैं जिनकी सहायता से हम इसे संभव बना सकते हैं। शुरुआती दौर में यह काम कठिन जरूर है लेकिन बाद में आसान भी है और है बहुत फायदे का..! कुछ लोगों की शंका है कि ईवीएम में हेराफेरी हो सकती है तो मेरा कहना है कि मतपत्रों में भी तो हेराफेरी होती थी! और लोकतंत्र भी फुलप्रूफ कहां है? एक बात और कहना चाहता हूं कि यदि किसी दल से कोई अच्छा सुझाव आता है तो दूसरों को भी उसे स्वीकार करना चाहिए, हमारी प्रवृत्ति स्वागत की होनी चाहिए, विरोध की नहीं। वातावरण पर अविश्वास का कोहरा जितना घना होता जाएगा, लोकतंत्र के लिए वह उतना ही ज्यादा घातक होगा।