एक दुःखद आत्महत्या
बैंगलुरु में हाल ही में एक एआई इंजीनियर अतुल की आत्महत्या का बेहद दुःखद मामला…
बैंगलुरु में हाल ही में एक एआई इंजीनियर अतुल की आत्महत्या का बेहद दुःखद मामला सामने आया, जिसकी पुलिस जांच कर रही है ताकि लोगों के सामने सही दोषी लाए जाएं, जो भी नतीजा होगा सो होगा, दुःख तो इस बात का है कि एक जवान, पढ़े-लिखे व्यक्ति ने आत्महत्या कर अपने जीवन को समाप्त कर दिया। एक माता-पिता का जवान बच्चा चला गया, जिसको उन्होंने कितनी मेहनत से पढ़ाया-लिखाया होगा। कई सपने बुने होंगे कि जब लड़का बड़ा होकर कमाएगा तो उनकी दुनिया ही बदल जाएगी। एक का जवान भाई गया, एक छोटे से बच्चे का पिता गया।
एक सामाजिक कार्यकर्ता या समाजसेवी होने के नाते आए दिन मेरे पास केस आते हैं, जो मदद की आशा करते हैं। जो भी कह लो हमारा साॅफ्ट कार्नर लड़कियों के लिए होता है, क्योंकि पहले तो हमेशा लड़कियां ही दुःखी होती थीं। घरेलू हिंसा का शिकार होती थीं, इसीलिए उनके लिए 498 का कानून लाया गया परन्तु जो आजकल के हालात हैं उसके अनुसार लड़कियां तो दुःखी हैं परन्तु लड़के उनसे भी अधिक दुःखी हैं, क्योंकि लड़कियाें द्वारा 498 का दुरुपयोग हो रहा है। जो कानून लड़कियों की मदद के लिए बनाया गया था आज वो ही कानून लड़कों को प्रताड़ित करने का हथियार बन गया है। यह नहीं कि लड़कियां आज भी दुःखी नहीं होतीं, दुःखी होती हैं। अगर 40 प्रतिशत लड़कियां दुःखी होती हैं तो 60 प्रतिशत लड़के आैर लड़कों के माता-पिता दुःखी हैं।
यह सही है कि पति-पत्नी दो अलग-अलग घरों में पले-बढ़े होते हैं तो कई बार आदतें, विचार, रहन-सहन का तरीका नहीं मिलता तो उसको समय चाहिए होता है। पहले लड़कियों को शिक्षा मिलती थी कि जैसे भी हो उस घर में अडजेस्ट करना है। सास-ससुर की सेवा करनी है और उस घर को अपना घर समझना होगा परन्तु आजकल एक या दो बच्चे होते हैं, मां-बाप लड़कियों को अक्सर यही शिक्षा देते हैं कि कुछ सहना नहीं, तुम पढ़ी-लिखी हो आैर हम तुम्हारे पीछे हैं और सबसे अधिक बीमारी आज के मोबाइल फोन हैं जो एक-एक मिनट की खबर इधर-उधर करते हैं। जो समझदार माएं होती हैं वो बेटियों को समझाती हैं, जो समझदार नहीं होतीं वह लड़कियों को शह देती हैं जिससे घर बिगड़ते हैं। छोटी-छोटी बात का बतंगड़ बन जाता है और बात तलाक तक पहुंच जाती है। लड़कियों के लिए इतने कानून हैं कि बेचारे लड़के पिसते हैं। कई तो सिस्टम से लड़ाई लड़ रहे हैं और कई हार जाते हैं, इसिलए तलाक से तंग आकर कई आत्महत्या कर लेते हैं। छोटी-छोटी बातों में अहम (इगो) टकरा जाता है। अभी अतुल के केस में ऐसा क्या हुआ िक उसको 24 पेज लिखकर वीडियो बनाकर आत्महत्या करनी पड़ी। एक हट्टा-कट्टा नौजवान सिस्टम से हार गया। उस पर केस कई डले, िजन्हें उसको झेलना मुश्किल हो गया। उनका सुसाइड नोट रोंगटे खड़े कर देता है।
सच बात तो यह है कि इस सुसाइड केस में देशभर में दहेज कानून के लगातार बढ़ते दुरुपयोग को फिर चर्चा में ला दिया है। पति-पत्नी के बीच अनबन होने पर दहेज अधिनियम की धारा 498ए एक हथियार बन गई है आैर हथियार कानून बनाए जाने के मकसद पर ही चोट कर रहा है। दहेज प्रतिबंध अधिनियम 1961 में बनाया गया था। यह दहेज कुप्रथा के खिलाफ था। इसका मकसद दहेज की वजह से लड़कियों के शोषण के उत्पीड़न पर रोक लगाना था। 1984 में इस कानून में संशोधन हुए िजसमें पति के परिवार द्वारा दहेज हत्या के लिए उकसाना माना गया। वर्ष 1986 में भी इस कानून में संशोधन हुए लेकिन जितना इस कानून का दुरुपयोग हुआ उतना और किसी कानून का नहीं। प्रायः देखा गया है कि पति-पत्नी में अनबन होने पर पति के माता-पिता, बहनों, भाइयों और अन्य रिश्तेदारों को भी फंसाने के लिए दहेज कानून का दुरुपयोग किया जाता है। इंजीनियर अतुल सुभाष की आत्महत्या के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि दहेज कानून के दुरुपयोग को रोकना होगा। 54 साल पहले बना यह कानून अब खुुद कठघरे में है। 10 वर्षों में दहेज उत्पीड़न के मामले दोगुने हो चुके हैं।
मेरा आज भी यही मानना है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में संशोधन तो बाद की बात है लेकिन पुलिस के व्यवहार पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। न्याय देने वालों पर न्याय की आड़ में सैटिंग जैसे घिनौने आरोप लगे तो इसे क्या कहेंगे? एक सभ्य इंसान जब व्यवस्था से टूट जाता है, उसकी पीड़ा का जब कोई अंत नहीं होता तो वह पुलिस तक पहुंचता है आैर वहां उसे एक उम्मीद दिखाई देती है लेकिन यहां उसे हमदर्दी दी जानी चाहिए तथा थानों व न्याय के मंदिर में काउंसिलंग की व्यवस्था अगर सुदृढ़ हो जाए तो बहुत कुछ हो सकता है लेकिन बैंगलुरु के अतुल का केस एक न भुलाने वाला दर्द है तथा ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होनी चािहए आैर इस केस में अब उसकी जान चली जाने के बाद तो गुनहगारों को तुरन्त कड़ी सजा देकर इंसाफ की मोहर लगाकर एक उदाहरण स्थापित किया जाना चाहिए।