‘आधार मेरी पहचान’
भारत संविधान से चलने वाला देश है और इस देश के संविधान का झंडा स्वतन्त्र न्यायपालिका ने हर विषम परिस्थिति में भी हमेशा ऊंचा रखने का प्रयास किया है। यदि केवल 21 महीने के इमरजेंसी काल को छोड़ दिया जाये तो देश की न्यायपालिका ने हर हाल में पूरे देश को संविधान के रास्ते पर चलने की राह दिखाई है और सिद्ध किया है कि भारत में केवल उस कानून का राज ही चलेगा जो सबके लिए बराबर होता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को सरकार का अंग इसीलिए नहीं बनाया था जिससे राजनीतिक स्तर पर चुनी जाने वाली हर सरकार केवल संविधान के अनुसार ही शासन चलाये और हर सरकार की अन्तिम प्रतिबद्धता केवल संविधान के प्रति ही हो। इसी प्रकार हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को भी सरकार का हिस्सा नहीं बनाया और इसकी जिम्मेदारी तय की कि यह भारत के हर नागरिक को मिले एक वोट के अधिकार की सुरक्षा करेगा और देखेगा कि उसके एक वोट की कीमत सार्वभौमिक तौर पर एक बराबर हो। किसी मजदूर के वोट की कीमत भी वही हो जो किसी उद्योगपति के वोट की होती है।
स्वतन्त्रता के बाद से चुनाव आयोग अपनी यह जिम्मेदारी पूरी निष्ठा से निभाता आ रहा था मगर वर्तमान में इसकी विश्वसनीयता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह तब आकर लगा जब इसकी बनाई मतदाता सूची पर सवालिया निशान लगने लगे। बिहार में चुनाव आयोग जो सघन मतदाता सूची पुनरीक्षण का काम करा रहा है उसमें 65 लाख मतदाताओं के नाम हटा दिये गये। ये नाम जिन कारणों से हटाये गये उनके पीछे चुनाव आयोग का अपना तर्क हो सकता है मगर इनके प्रदूषित होने के प्रमाण भी बहुत जल्दी ही देश के विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी ने उजागर कर दिये। चुनाव आयोग का मुख्य कार्य देश में साफ-सुथरे व पारदर्शी चुनाव कराने का है क्योंकि इनकी मार्फत ही देश में लोकतन्त्र का आधार तैयार होता है। बाबा साहेब अम्बेडकर जब चुनाव आयोग का गठन कर रहे थे तो उनके सामने लक्ष्य राजनीतिक समानता व आजादी का था। इसकी आधारशिला मतदाता सूची ही थी। अतः चुनाव आयोग की जिम्मेदारी इसे पूर्णतः स्वच्छ तरीके से बनाने की तय की गई और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा गया कि कोई भी भारतीय नागरिक इससे छूटना नहीं चाहिए और किसी अवैध भारतीय को इसका हिस्सा नहीं बनना चाहिए। अपनी इस जिम्मेदारी को चुनाव आयोग ने 1952 के पहले चुनावों से लेकर अब तक पूरी निष्ठा से निभाया और अपना नजरिया समावेशी रखा जिससे हर गरीब-गुरबे का भी वोट बन सके लेकिन बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण करते समय चुनाव आयोग अपनी इस जिम्मेदारी को भूल गया और पहली बार स्वतन्त्र भारत में उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा। उसने मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराने के लिए 11 एेसे दस्तावेजों की सूची जारी की जो किसी आम भारतीय के पास बामुश्किल ही पाये जाते हैं और राशन कार्ड व आधार कार्ड को इस सूची से गायब कर दिया। राशन कार्ड व आधार कार्ड प्रायः हर गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी होते हैं । आधार कार्ड को तो हर भारतवासी के लिए जरूरी दस्तावेज भी केन्द्र सरकार ने ही बनाया था जो उसके निवासी होने का प्रमाणपत्र था। यह आधार कार्ड हर जरूरी सरकारी कामकाज के लिए जब काम में आता है तो मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की फेहरिस्त से इसे बाहर क्यों किया गया? इससे चुनाव आयोग की मंशा पर सन्देह व्यक्त किया जा सकता है।
चुनाव आयोग ने यह कह कर कुतर्क पेश किया कि आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है। इससे सवाल खड़ा हुआ कि क्या चुनाव आयोग को किसी भारतीय की नागरिकता की जांच करने का अधिकार है। जाहिर है कि यह अधिकार संविधान केवल गृह मन्त्रालय को ही देता है। भारत का कोई भी नागरिक चुनाव आयोग के सामने जब यह लिख कर देता है कि वह भारत का नागरिक है तो उसकी विश्वसनीयता की कानूनन जांच तभी की जा सकती है जब कोई दूसरा व्यक्ति उसके इस दावे को चुनौती दे। अतः आधार कार्ड को मतदाता सूची में शामिल करने के दस्तावेज के मानने से किसी को क्या गुरेज हो सकता है। अतः देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय इस सम्बन्ध में दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए लगातार कह रही थी कि आधार कार्ड को भी 12वां एेसा दस्तावेज माना जाना चाहिए जिसके दिखाने पर किसी नागरिक का नाम मतदाता सूची में शामिल किया जा सके। मगर चुनाव आयोग की बेशर्मी यह थी कि वह उसके इस सुझाव या निर्देश पर ध्यान ही नहीं दे रहा था। अतः अन्त में 8 सितम्बर को सर्वोच्च न्यायालय को लिखित आदेश देना पड़ा कि आधार कार्ड बाकायदा 12वां दस्तावेज होगा। इससे देशवासियों ने बहुत राहत की सांस ली है क्योंकि चुनाव आयोग अब पूरे देश में ही बिहार की तर्ज पर मतदाता सूची पुनरीक्षण करना चाहता है। हालांकि अभी सर्वोच्च न्यायालय को इस बारे में भी अंतिम फैसला देना है कि क्या आयोग एेसा कर भी सकता है या नहीं। गौर से देखा जाये तो चुनाव आयोग का कार्य हर चुनाव से पहले मतदाता सूचियों का संशोधन करना होता है और जब यह कार्य वह करता रहता है तो उसे सघन पुनरीक्षण की जरूरत क्यों पड़े? इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि चुनाव आयोग को अपने ही किये गये कार्य पर विश्वास नहीं है।
पूरे देश में 2024 के लोकसभा चुनाव आयोग की ताजा मतदाता सूची के आधार पर ही हुए थे। मगर ये सब बारीक कानूनी नुक्ते हैं जिनके पेंच सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ व विद्वान वकील ही खोल सकते हैं। फिलहाल तो आधार कार्ड को 12वां दस्तावेज बनाये जाने का मुद्दा ही मुख्य है। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भारत की न्यायपालिका किसी भी संवैधानिक संस्था तक को संविधान के ही रास्ते पर डालने की कला जानती है। चुनाव आयोग का अब यह कर्त्तव्य बनता है कि वह विनम्रता सीखे और अपनी उस जिम्मेदारी को न्यायपूर्वक निभाये जो संविधान निर्माता उसके कन्धे पर डाल कर गये हैं।