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राजनीति में बदजबानी !

राजनीति में किसी स्तर पर न तो बदजबानी को स्वीकार किया जा सकता और न ही चरित्र हत्या को

11:30 AM Jan 06, 2025 IST | Aditya Chopra

राजनीति में किसी स्तर पर न तो बदजबानी को स्वीकार किया जा सकता और न ही चरित्र हत्या को

राजनीति में किसी भी स्तर पर न तो बदजबानी को स्वीकार किया जा सकता है और न ही चरित्र हत्या को। मगर हम देख रहे हैं कि सार्वजनिक विमर्श या बयानियां किस तरह से लगातार नीचे गिरता जा रहा है। भारत की राजनीति की परंपरा अपने विरोधी को भी सम्मान देने की रही है। यदि हम औऱ पीछे जायें तो भारतीय संस्कृति में वाद-प्रतिवाद को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। यह देश उन महात्मा गांधी का है जिन्होंने अपने प्रबलतम विरोधियों के विचारों को भी ध्यान से सुना और फिर अपने विचार रखे। गांधी जी कहा करते थे कि ‘वह अपने विरोधी को अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनना पसन्द करेंगे’ परन्तु वर्तमान राजनीति का चरित्र जिस तरह गिर रहा है उससे हमारे लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा और गरिमा दोनों गिरती हैं। चुनावों के मौके पर राजनीतिज्ञ आपा खो देते हैं और वोट पाने की लालसा में अपने विरोधी का चरित्र हनन करने से भी बाज नहीं आते।

हम आने वाली पीढि़यों के लिए कैसा भारत छोड़ना चाहते हैं ? क्या हम ऐसा भारत बनाना चाहते हैं जिसमें विजय प्राप्त करने के लिए किसी भी स्तर पर नीचे गिरा जा सकता है। लोकतन्त्र में लड़ाई विचारों की होती है, व्यक्तियों की नहीं। परस्पर दो विरोधी विचारधारा वाले लोग अपने निजी जीवन में अच्छे मित्र भी हो सकते हैं। एक ही परिवार में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाले लोग तक हो सकते हैं। भारत में इसके कई उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता सेनानी आचार्य कृपलानी आजादी के बाद कांग्रेस के सैद्धान्तिक विरोध में समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियों के साथ चले गये परन्तु उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस की सदस्य थीं। इसी प्रकार 2004 से 2009 तक लोकसभा के अध्यक्ष रहे स्व. सोमनाथ चटर्जी मार्क्सवादी पार्टी के कद्दावर नेता थे मगर उनके पिता प्रोफे. एस.एन. चटर्जी हिन्दू महासभा के बड़े नेता थे। वह इस पार्टी के अध्यक्ष भी रहे।

अतः राजनैतिक सिद्धान्तों में भेद होने का मतलब निजी रंजिश कभी नहीं होती। मगर भाजपा के दिल्ली विधानसभा प्रत्याशी रमेश बिधूड़ी ने तो सारी हदें पार कर डाली और उन्होंने कह दिया कि यदि वह विजयी हुए तो अपने चुनाव क्षेत्र कालकाजी की सड़कें प्रियंका गांधी के गालों जैसी बना देंगे। ऐसा बयान कोई मानसिक रूप से क्षुब्ध व्यक्ति ही दे सकता है। शारीरिक रचना की तुलना किसी भौतिक वस्तु से करना मानसिक रोग ही कहलाता है। इतना ही नहीं उन्होंने दिल्ली की मुख्यमन्त्री आतिशी के पिता को भी राजनीति में घसीट लिया। इससे पता चलता है कि रमेश बिधूड़ी का बौद्धिक स्तर क्या है? पूरा भारत जानता है कि पिछली लोकसभा में सांसद रहे रमेश बिधूड़ी ने बहुजन समाज पार्टी के साथी सांसद दानिश अली के लिए सदन में किस तरह के शब्दों का प्रयोग किया था और उन्हें धर्म सूचक गालियां तक दी थीं।

एक सांसद के रूप में जब उनका आचरण ऐसा हो सकता है तो एक विधायक के रूप में दिल्ली की विधानसभा में पहुंच कर वह क्या गुल खिलायेंगे? इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन है क्योंकि नीचे गिरने की क्या सीमा हो सकती है यह केवल ऐसा करने वाला व्यक्ति ही जान सकता है। वास्तव में रमेश बिधूड़ी ने श्रीमती प्रियंका गांधी का अपमान नहीं किया है बल्कि अपना सम्मान सामान्य नागरिकों की दृष्टि में खो दिया है। यह अब भाजपा को देखना है कि वह इस बारे में क्या कदम उठाती है। वैसे पिछली लोकसभा में उनकी दानिश अली के बारे में की गई बदकलामी के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, इस बारे में देश की जनता अनभिज्ञ है।

लोकसभा भारत के सभी चुने हुए सदनों में अव्वल नम्बर पर आती है, यदि इसके इजलास में बदकलामी होती है तो वह बहुत गंभीर मसला है। दानिश अली की शिकायत पर यह मामला लोकसभा की आचरण समिति को भेजा गया था मगर वहां इस बारे में आगे क्या कार्रवाई हुई कोई नहीं जानता लेकिन क्या गजब है कि एक तरफ कुछ लोग यह दुहाई देते हैं कि राजनीति में प्रवेश के लिए कोई न्यूनतम शिक्षा स्तर रखा जाना चाहिए और दूसरी तरफ कालेज के डिग्रीधारियों का रमेश बिधूड़ी जैसा आचरण यह सोचने को मजबूर करता है कि बौद्धिक स्तर का पैमाना कभी भी कालेज की डिग्रियां नहीं हो सकतीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 60 के दशक में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष स्व. कामराज नाडार थे जो पांचवीं पास थे। मगर अपनी पार्टी में नव ऊर्जा का संचार करने के लिए लन्दन से पढे़ हुए स्व. प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को उनके पास जाना पड़ा था और उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाना पड़ा था।

उस समय वह तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री थे। अतः राजनीति में डिग्रियों का कोई महत्व नहीं होता है बल्कि बौद्धिक स्तर का महत्व होता है। महात्मा गांधी को भारतीयों की इस बौद्धिकता पर पूरा भरोसा था जिसकी वजह से उन्होंने हर जाति, वर्ग व समुदाय के वयस्क स्त्री-पुरुष को स्वतन्त्र भारत में एक वोट का अधिकार देने का वादा किया था। रमेश बिधूड़ी के पास भी स्नात्तकोत्तर की डिग्री है मगर उनका बौद्धिक स्तर पूरा समाज देख रहा है। यह देश तो पीर-फकीरों और साधु-संतों का देश है जिसमें कबीर और रैदास जैसे संत हुए हैं और इन लोगों ने अपने वक्तों में ही समाजवादी भारत की कल्पना कर डाली थी। संत रैदास की ‘बेगम-पुरा’ रचना इसकी साक्षी है। अतः राजनीति में जीत किन मूल्यों को गिरवी रख कर हुई है इसका लोकतन्त्र में बहुत महत्व होता है। लोकसेवा ही राजनीति का धर्म है और इसके लिए ‘साधन व साध्य’ का पवित्र होना बहुत जरूरी होता है क्योंकि साधन के प्रदूषित होने से साध्य कभी भी पवित्र नहीं हो सकता है।

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