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कृषि विकास हो वार्ता का केन्द्र

भारत में खेती का विकास एक सिलसिलेवार ढंग से इस प्रकार हुआ है कि कृषि क्षेत्र में समुचित धन निवेश करके किसानों की आय में निरन्तर बढ़ावा किया जाये।

12:51 AM Dec 28, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत में खेती का विकास एक सिलसिलेवार ढंग से इस प्रकार हुआ है कि कृषि क्षेत्र में समुचित धन निवेश करके किसानों की आय में निरन्तर बढ़ावा किया जाये।

कृषि विकास हो वार्ता का केन्द्र
भारत में खेती का विकास एक सिलसिलेवार ढंग से इस प्रकार हुआ है कि कृषि क्षेत्र में समुचित धन निवेश करके किसानों की आय में निरन्तर बढ़ावा किया जाये। संयोग से इसकी शुरूआत संयुक्त पंजाब प्रान्त से ही स्व. मुख्यमन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरों के नेतृत्व में हुई और इसकी बदौलत उन्होंने 1963 में ही इस राज्य को भारत का ‘यूरोप’ कहलाने का गौरव दिला दिया। जब यह सब पंजाब में हो रहा था तो उससे पहले ही 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री स्व. गोबिन्द बल्लभ पन्त ने अपने राज्य के पहाड़ के तराई इलाकों में देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आये पंजाबी शरणार्थियों को बसने के लिए वीरान पड़ी हुई जंगल समझी जाने वाली भूमि पर खेती करके गुजर-बसर करने का विकल्प दिया। धरती का सीना चीर कर सोना उगाने वाले पंजाबी किसानों ने इस धरती को कुछ वर्षों बाद लहलहाते खेतों में तब्दील करके ‘जंगल में मंगल’ कर डाला। इतना ही नहीं इस राज्य के पश्चिमी इलाके में गंगा नदी के ‘खादर’ की कटाव वाली जमीन को इन्हीं पंजाबी किसानों ने गन्ने के खेतों में बदल कर अन्य स्थानीय किसानों के सामने हैरत का माहौल बना दिया। मेरठ के करीब स्थित ‘रामराज’ कस्बा इसका जीता-जागता प्रमाण है।
 कहने का मतलब यह है कि पंजाब के किसानों की यह शिफ्त रही है कि वे अपनी किस्मत अपनी मेहनत से ही बनाने में यकीन रखते हैं मगर इसके साथ यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि पंजाब राज्य के लोग आधुनिक वैज्ञानिक विचारों को अपनाने में भी सबसे आगे रहे हैं। इसकी वजह यह है कि महान गुरुओं की इस धरती में इस सोच का बीजारोपण उन्होंने ही किया और पोंगापंथी परंपराओं से इसे मुक्त किया।  इसी वजह से पिछली सदी की शुरूआत में इस राज्य में ‘आर्य समाज’ आंदोलन बहुत तेजी के साथ फैला किन्तु इसकी नींव महान गुरु नानक देव जी ही रख कर गए थे, जिन्होंने कहा ‘न मैं हिन्दू हूं न मुसलमान बल्कि इंसान हूं।’ यह भी अकारण नहीं है कि सिखों के महान ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में उन सन्तों और पीरों की ही वाणी है जिनकी सोच मानवतावादी थी। सन्त रैदास, कबीर व नामदेव की वाणियां इसका प्रमाण हैं। इन सभी सन्तों ने मनुष्य कर्म को ही पूजा की संज्ञा दी। इसी वजह से प्रत्येक पंजाबी के हाथ में ‘कड़ा’ होता है जो कि ‘कर्म’  का प्रतीक है। 
 इसके साथ ही पंजाब का इतिहास भारत का ऐसा कालखंड है जिसने मुगल सल्तनत के खंड-खंड होते ही पूरे भारत में अंग्रेज शासकों को परास्त कर खालसा राज की स्थापना शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में की थी। महाराजा साहब का शासन काबुल से लेकर आगरा तक था। अगर अंग्रेजों ने 1846 में महाराजा की मृत्यु के बाद उनके किशोर पुत्र दिलीप सिंह  को अपनी कठपुतली बना कर पूरी पंजाब रियासत को खरीदा न होता तो 1947 में भारत के दो टुकड़े होने असंभव थे। यह इतिहास लिखने का मन्तव्य यही है कि स्वतन्त्र भारत में इसे आत्मनिर्भर बनाने में पंजाब राज्य की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है और इसमें भी इसके किसानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस राज्य के लोगों की राष्ट्रभक्ति पर सन्देह करना स्वयं अपने ऊपर ही सन्देह करने जैसा है। वैचारिक तौर पर यह कम्युनिस्ट आन्दोलन की भी स्थली रही और जनसंघ की विचारभूमि भी रही। इसी भूमि ने ‘किशन चन्दर’ जैसे मानवतावादी साहित्यकार भी स्वतन्त्र भारत को दिये और हरचरण सिंह सुरजीत जैसा कम्युनिस्ट नेता व वीर यज्ञ दत्त शर्मा जैसा भाजपा नेता भी दिया। वैचारिक दृष्टि से भी यह भूमि बहुत उपजाऊ रही है। अतः यहां के किसानों की भविष्य दृष्टि को कम करके आंकना उचित नहीं होगा और इनकी खुशहाली को व्यंग्यात्मक नजरिये से पेश करना सर्वथा अनुचित होगा।
 हमें पंजाब व हरियाणा के किसानों की उन समस्याओं के मूल में जाना होगा जिसकी वजह से वे आज सड़कों पर हैं। 1966 तक हरियाणा भी पंजाब का ही हिस्सा रहा है और इसकी संस्कृति भी पंजाब से अलग नहीं है। अतः 29 दिसम्बर को सरकार व किसान संगठनों के बीच होने वाली बातचीत में उन मूल विषयों को छुआ जाना चाहिए जिसकी वजह से किसानों में रोष है। दरअसल यह समय स्वतन्त्र भारत के इतिहास का सबसे संजीदा बदलाव का समय है क्योंकि सरकार उस क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन लाना चाहती है जिससे देश के साठ प्रतिशत से अधिक लोग जुड़े हुए हैं। अतः किसानों के आन्दोलन पर विचार करते हुए हमें सबसे पहले ध्यान में रखना होगा कि यह भारत की उस जमीनी हकीकत का प्रतिनिधित्व करता है जिसके बूते पर भारत में सुनियोजित व संगठित तरीके से विकास प्रक्रिया शुरू हुई।  यदि यह प्रक्रिया शुरू न होती तो भारत आज किस प्रकार दुनिया के चुने हुए औद्योगिक राष्ट्रों में स्थान पाता।
 सवाल यह है कि किसान का बेटा जब कम्प्यूटर इंजीनियर होगा तभी विकास इस देश की तहों तक जायेगा और हमने एक हद तक यह स्थिति भी प्राप्त करने में सफलता इसलिए प्राप्त की है कि हमारे किसानों ने अपना उत्पादन बढ़ाने की तकनीकों का विकास किया है। इस उपक्रम में सरकारों का सहयोग निरन्तर रहा है। सवाल किसी भी पक्ष के जिद पर अड़ने का बिल्कुल नहीं है बल्कि भारत की आने वाली 
पीढि़यों के भविष्य का है। अतः किसानों को भी पूरी तरह तार्किक बुद्धि अपनाते हुए कृषि कानूनों का विश्लेषण करना चाहिए और सरकारों को बुनियादी आपत्तियों पर यथोचित ध्यान देना चाहिए।
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Aditya Chopra

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