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भारत की आत्मा है कृषि क्षेत्र

कृषि क्षेत्र भारत की जनमूलक-प्रजातान्त्रिक राजनीति के केन्द्र में इस प्रकार रहा है कि महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपना पहला सबसे बड़ा आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती के विरुद्ध ही शुरू किया था।

12:38 AM Dec 19, 2020 IST | Aditya Chopra

कृषि क्षेत्र भारत की जनमूलक-प्रजातान्त्रिक राजनीति के केन्द्र में इस प्रकार रहा है कि महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपना पहला सबसे बड़ा आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती के विरुद्ध ही शुरू किया था।

भारत की आत्मा है कृषि क्षेत्र
कृषि क्षेत्र भारत की जनमूलक-प्रजातान्त्रिक राजनीति के केन्द्र में इस प्रकार रहा है कि महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपना पहला सबसे बड़ा आन्दोलन 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती के विरुद्ध ही शुरू किया था। स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस से अलग होकर समाजवादी आन्दोलन के दो प्रवर्तकों आचार्य नरेन्द्र देव व डा. राम मनोहर लोहिया ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं को लेकर ही नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना की शुरूआत की। आचार्य कृपलानी ने तो किसान मजदूर पार्टी तक बनाई। ये सभी राजनीतिज्ञ मूल रूप से किसान नहीं थे मगर किसानों का हित उनके लिए सर्वप्रमुख था। भारत के राजनीतिक चिन्तन में कृषि क्षेत्र का समावेश होना इसलिए जरूरी है कि मूलतः यह देश गांवों और खेती-किसानी का इस प्रकार है कि इसकी राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आन्तरिक सुरक्षा तक के क्षेत्र में खेतीहर व ग्रामीण जनता की प्रमुख भागीदारी अंग्रेजी शासनकाल के समय से चलती आ रही है, इसी वजह से इस देश की नब्ज पकड़ते हुए 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ नारे का उद्घोष किया था जिससे इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का सीधा सम्बन्ध इसकी आर्थिक सुरक्षा से पुनः स्थापित हो सके। यह केवल एक नारा नहीं था बल्कि इसके पीछे भारतीय संस्कृति का वह दिव्य ज्ञान था जिसमें अन्न को देवता की संज्ञा दी गई थी और सिपाही को रक्षक की प्रतिष्ठा दी गई थी।
 आधुनिक भारत की लोकतान्त्रिक पद्धति में कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी हिस्सेदारी है क्योंकि आज भी भारत के साठ प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर करते हैं। भारत के कुल 25 करोड़ परिवारों में से 18 करोड़ परिवार ऐसे हैं जिनका भरण-पोषण कृषि आय या इससे जुड़े ग्रामीण उद्योग धन्धों से होता है। अतः प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आज किसानों से की गई अपील के प्रति ध्यान दिया जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि उनकी सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानूनों के बारे में किसानों की मूल आशंकाएं व आपत्तियां क्या हैं जिन पर आन्दोलकारी किसानों व सरकार को बैठ कर बातचीत करनी चाहिए। जाहिर तौर पर भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में इस विषय पर राजनीति होना स्वाभाविक है क्योंकि यह विषय सीधे लोकतन्त्र में सबसे बड़े भागीदार क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। मूल मुद्दा यह है कि क्या कृषि क्षेत्र को सीधे बाजार की शक्तियों के हवाले कर दिया जाये या इसे पहले की भांति सरकारी संरक्षण में रखा जाये।
 कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य का सीधा सम्बन्ध सरकारी संरक्षण से है जिसके लिए आन्दोलकारी किसान सड़कों पर बैठे हुए हैं। उनकी राय में सरकार की तरफ से इस बारे में  नये कानूनों में कोई संरक्षण नहीं दिया गया है और केवल जबानी-जमा खर्च हो रहा है जिसकी कोई संवैधानिक वैधता नहीं है। इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने बीच का रास्ता यह सुझाया है कि बातचीत के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाये और इसके निष्कर्ष आने तक नये कानूनों का क्रियान्वयन रोक दिया जाये मगर सर्वोच्च न्यायालय के सामने ही वह याचिका भी लम्बित है जिसमें इन कानूनों की ही वैधता को चुनौती दी गई है। मूल रूप से यह याचिका राज्यसभा में इन कानूनों को पारित करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को लेकर है जहां धकमपेल करके इन तीनों कानूनों को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया था और इसके खिलाफ समूचा विपक्ष राष्ट्रपति के दरवाजे पर गुहार लगाने भी गया था कि वह संविधान के संरक्षक होने के नाते इन्हें अपनी सहमति न दें मगर ये सब तकनीकी सवाल हैं। किसानों से जुड़ा असली मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही है लेकिन सत्ताधारी पार्टी भाजपा की तरफ से अब यह अभियान जोरों पर चलाया जा रहा है कि नये कानूनों से किसानों को भविष्य में भारी लाभ होगा और उनकी आमदनी में इजाफा होगा। बात अब उस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों से ऊपर चली गई है जिन्होंने किसानों की उपज का मूल्य फसल की लागत कीमत से डेढ़ गुना देने की सिफारिश की थी। नये कृषि कानूनों के तहत किसानों को अपनी उपज अपनी तय की गई कीमत पर बेचने  की छूट दी गई है मगर असली सवाल यह है कि क्या खुले बाजार की शक्तियां उन्हें यह इजाजत देंगी? खेती को घाटे का सौदा होने से रोकने के लिए ही तो 1966 से समर्थन मूल्य की प्रणाली लागू की गई थी। असल पेंच यहीं आकर फंस रहा है जिस पर सरकार और किसान संगठन दोनों को शान्ति के साथ बैठ कर बातचीत करनी है।
गेहूं का एक दाना उगाने के लिए किसान को जितनी मेहनत करनी पड़ती है उससे कई सौ गुना कम मेहनत किसी खदान से स्वर्ण अयस्क निकाल कर सोना बनाने में करनी पड़ती है। इसीलिए पंजाब राज्य में गेहूं को कनक (सोना) नाम से भी जाना जाता है और पंजाब का इतिहास बताता है कि यह राज्य पूरे देश का सबसे समृद्धशाली राज्य इसी कनक (गेहूं) उत्पादन की वजह से बना है। पंजाब में कृषि क्रान्ति का इतिहास मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं जिसे दोहराना नहीं चाहता मगर इतना निवेदन करना चाहता हूं कि पूंजी बाजार (शेयर बाजार) भी तब कुलांचे क्यों भरने लगता है जब यह खबर आती है कि कृषि उत्पादन बेहतर होने के आसार हैं। इसी से अन्दाजा लगया जा सकता है कि किसान की मेहनत कितने रूपों में समग्र व्यवस्था पर असर डालती है। अतः कृषि क्षेत्र भारत की आत्मा में बसा हुआ है।
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Aditya Chopra

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