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अलीगढ़ ‘मुस्लिम’ यूनिवर्सिटी

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने कार्यकाल के अन्तिम कार्यदिवस शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्तर बहाल करते हुए स्पष्ट किया

10:18 AM Nov 09, 2024 IST | Aditya Chopra

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने कार्यकाल के अन्तिम कार्यदिवस शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्तर बहाल करते हुए स्पष्ट किया

अलीगढ़ ‘मुस्लिम’ यूनिवर्सिटी

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अपने कार्यकाल के अन्तिम कार्यदिवस शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्तर बहाल करते हुए स्पष्ट किया कि 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में जो फैसला दिया था वह गलत था क्योंकि इस विश्वविद्यालय की स्थापना मूल रूप से 1920 में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के आदेश से नहीं बल्कि 1877 में मुस्लिम शिक्षाविद सर सैयद अहमद खां द्वारा एक मुस्लिम शिक्षण संस्थान के रूप में हुई थी। जबकि 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि विश्वविद्यालय की संरचना 1920 में सरकारी आदेश के जरिये हुई थी। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 4-3 के बहुमत से फैसला दिया कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के लिए अनुच्छेद 30 में जो भी प्रावधान हैं वे अब 1950 में भारतीय संविधान लागू होने से पहले खुले अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर भी लागू होंगे और एेसे संस्थानों की स्वतन्त्रता व स्वायत्तता बरकरार रहेगी। इसका मतलब यह हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय ने अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को परखने के लिए मापदंड तय कर दिये हैं जिनके आधार पर अल्पसंख्यक स्तर तय होगा।

अनुच्छेद 30 किन्हीं भी अल्पसंख्यकों (धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक आदि) को अपने शिक्षण संस्थान खोलने व चलाने की इजाजत देता है। संविधान पीठ के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि 1967 में जो सर्वोच्च फैसला इस विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त करते हुए दिया गया था वह सही था या गलत। 1967 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने कई प्रश्न थे। एक प्रश्न यह था कि 1951 में इस विश्वविद्यालय के कानून में यह संशोधन किया गया था कि इस संस्थान के सर्वोच्च प्रशासन मंडल ‘यूनिवर्सिटी कोर्ट’ में गैर मुस्लिम भी सदस्य हो सकते हैं। इसके साथ ही इसके मुखिया के तौर पर ‘लार्ड रेक्टर’ की जगह ‘विजीटर’ की व्यवस्था की गई थी और विजीटर देश के राष्ट्रपति को बनाया गया था। इसके बाद दूसरा संशोधन 1965 में किया गया जिसमें विश्वविद्यालय अधिशासी परिषद की शक्तियों में इजाफा किया गया था। जिसका अर्थ यह था कि यूनिवर्सिटी कोर्ट अब सर्वोच्च प्रशासन मंडल नहीं है।

1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विश्वविद्यालय न तो केवल मुस्लिमों द्वारा चलाया जा रहा है और न ही इसकी स्थापना केवल मुस्लिमों द्वारा की गई है क्योंकि इसकी स्थापना 1920 में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के अधीन केन्द्रीय एसेम्बली द्वारा एक कानून के द्वारा की गई। अतः यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। मगर वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय ने इस अवधारणा को सही नहीं पाया और कहा कि मुस्लिम शिक्षण संस्थान की स्थापना का विचार 1877 में पनपा और इसकी स्थापना एक आधुनिक अल्पंसख्यक शिक्षण संस्थान के रूप में हुई। इसकी स्थापना के लिए उस समय धन आदि का प्रबन्ध मुस्लिम लोगों द्वारा किया गया। जिसका उद्देश्य मुस्लिमों में आधुनिक ऊंची शिक्षा का प्रसार था। अतः मूल रूप से यह अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय हुआ जिसे देखते हुए 1967 का फैसला सही नहीं है। मगर इस फैसले के बाद 1981 में केन्द्र सरकार ने संसद में कानून बना कर इस विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान घोषित कर दिया था लेकिन 2005 में इस कानून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया और कहा कि संसद को एेसा कानून बनाने का अधिकार ही नहीं था क्योंकि 1967 में सर्वोच्च न्यायालय इसे गैर अल्पसंख्यक संस्थान घोषित कर चुका है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने 1967 के फैसले को ही निरस्त कर दिया है जिससे विश्वविद्यालय पर 1981 का कानून लागू हो चुका है।

हालांकि सात सदस्यीय संविधान पीठ ने एक तीन सदस्यीय पीठ के हवाले यह काम सुपुर्द किया है कि वह विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का फैसला करे। मगर कानूनविदों की राय में अब इसका ज्यादा महत्व नहीं है क्योंकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर 1981 का संसद का कानून लागू होता है जिसमें इसका अल्पसंख्यक दर्जा बहाल किया गया था। अब जो तीन सदस्यीय पीठ सुनवाई करके फैसला करेगी उसके सामने संसद द्वारा बनाया गया 1981 का कानून ही मान्य होगा जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देता है। जिस सात सदस्यीय संविधान पीठ ने शुक्रवार को फैसला किया है उसके सामने 1967 के फैसले का मामला ही मुख्य प्रश्न था और पीठ ने इस फैसले को निरस्त कर दिया है जिससे 2005 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला स्वयं ही निरस्त हो जाता है । वैसे भी संसद के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती है। संसद आवश्यकता पड़ने पर संविधान संशोधन विधेयक तक पारित कर सकती है। एेसा पूर्व में भी कई बार हो चुका है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का देशभर के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान खुले दिल से स्वागत कर रहे हैं। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में तो यह निर्णय प्राणदायी सिद्ध हो रहा है क्योंकि अब विश्वविद्यालय को अपने प्रशासन को स्वतन्त्रता पूर्वक चलाने का अधिकार प्राप्त हो गया है मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि विश्वविद्यालय पर देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह प्रशासनिक नियम व प्रबन्धकीय निर्देश लागू नहीं होंगे। मसलन विश्वविद्यालय में आरक्षण नियम तो लागू नहीं होंगे मगर शिक्षकों आदि की भर्ती के लिए इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तय नियमों का पालन करना पड़ेगा। इसके साथ अल्पसंख्यक संस्थानों को जो भी सुविधा अनुच्छेद 30 के तहत संविधान देता है, उन सबका लाभ यह संस्थान उठा सकेगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

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