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निर्भय हों सभी अल्पसंख्यक!

नये संशोधित नागरिकता कानून का जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे यही आभास होता है कि इसके लागू होने के परिणामों को लेकर देशवासी भारी भ्रम में हैं।

03:56 AM Dec 16, 2019 IST | Ashwini Chopra

नये संशोधित नागरिकता कानून का जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे यही आभास होता है कि इसके लागू होने के परिणामों को लेकर देशवासी भारी भ्रम में हैं।

नये संशोधित नागरिकता कानून का जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे यही आभास होता है कि इसके लागू होने के परिणामों को लेकर देशवासी भारी भ्रम में हैं। हालांकि इसका भारत के वर्तमान नागरिकों पर कोई असर नहीं होगा परन्तु इसके बन जाने के बाद पूरे देश में नागरिक रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया में इस नये कानून की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यदि राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण को पूरे देश में लागू किया जाता है तो यह नया कानून भारतीय जनता को साम्प्रदायिक खांचों में बांट कर अपना प्रभाव दिखायेगा। 
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इसकी आशंका विरोधी दल के वे नेता जता रहे हैं जिन्होंने लोकसभा और राज्यसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध किया था। उन्हें इस बात की भी आशंका है कि इसका लाभ वे इस्लामी देश विशेषकर पाकिस्तान उठायेगा जहां गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर धार्मिक आधार पर अत्याचार किये जाते हैं। इन अल्पसंख्यकों को अपने देश से बाहर करने में पाकिस्तान को और आसानी हो जायेगी। दूसरी तरफ बांग्लादेश जैसा उदारवादी मुस्लिम राष्ट्र अपनी घरेलू राजनीति में सक्रिय कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों के प्रभाव से पुनः जूझने लगेगा। 
इन तत्वों को इस देश की राजनीति में सक्रिय उदारवादी राजनीतिक दलों ने इस प्रकार दबाया हुआ है कि इनकी सभी उग्र गतिविधियां राष्ट्र विरोध के घेरे में आ जाती हैं और इन्हें उस पाकिस्तान का समर्थक माना जाता है जिसने 1971 तक आम बांग्लादेशी नागरिकों पर ‘जौर’ और जुल्म का दौर चलाया हुआ था। पाकिस्तान के सरकारी आतंकवाद का विरोध इश देश के गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने भी मुस्लिमों के साथ मिल कर किया था। 
यह संयोग है कि 16 दिसम्बर को बांग्लादेश का मुक्ति दिवस है इसी दिन 1971 में स्वतन्त्र बांग्लादेश का उदय उस समय हुआ था जब भारत की संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को भारत के वीर रणबांकुरे सैनिकों के कमांडर जनरल सैम मानेकशा ने यह सूचना दी थी कि ढाका में पाकिस्तान पर विजय प्राप्त कर ली गई है और स्वतन्त्र देश बांग्लादेश का उदय हो गया है। आजाद भारत की पिछली सदी में यह महान विजय थी जो मानवता के संरक्षण के लिए लड़ी गई थी। 
बांग्लादेश का युद्ध मानवीय युद्ध था जो भारत ने पूर्वी पाकिस्तान की मुस्लिम बहुल जनता के लिए लड़ा था। 1947 में जिस बंगाल के दो टुकड़े करके उसके पूर्वी भाग को पूर्वी पाकिस्तान घोषित कर दिया गया था उसने मजहब का मुलम्मा उतार कर अपनी मूल बांग्ला संस्कृति की स्तुति में अपनी पहचान बनाई थी और मुहम्मद अली जिन्ना के हिन्दू-मुसलमान के आधार पर गढे़ गये द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को कब्र में गाड़ कर ऐलान किया था कि मजहब से मुल्क कभी नहीं बना करते मुल्क उसकी जमीन पर तरबो-तबीयत से बना करते हैं और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की तरबो-तबीयत बांग्ला थी जिसकी वजह से बांग्लादेश वजूद में आया। 
किसी भी मुल्क की सरकार वहां पर सदियों से बसे नागरिकों को अपनी जमीन-जायदाद छोड़ कर किसी दूसरे मुल्क में जाने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। मजहब के आधार पर अगर वह उन पर जुल्म और जबर ढहाती है तो अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ऐसे मुल्क को अलग-थलग किये जाने के बाकायदा नियम कायदे बने हुए हैं मगर भारत के सन्दर्भ में हमें पूरे मामले को दूसरे फलक पर रख कर देखना होगा क्योंकि 1889 में ब्रिटिश सरकार द्वारा अफगानिस्तान को स्वतन्त्र खुद मुख्तार मुल्क का रुतबा दिए जाने के बाद 1919 में श्रीलंका को इससे अलग किया और 1935 में बर्मा (म्यांमार) को अलग किया और 1947 में पाकिस्तान को अलग किया और फिर 1971 में इसी पाकिस्तान में से बांग्लादेश बना। 
जाहिर है कि पूरे अखंड भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि रहते थे। जैसे-जैसे इसका बंटवारा होता गया वैसे-वैसे ही इससे अलग हुए देशों में रहने वाले नागरिक शान्तिपूर्ण तरीके से अपना जीवन यापन करने लगे और सम्बन्धित देश के नियम कायदों से बन्धे रहे, परन्तु 1947 में जब हिन्दू-मुसलमान के आधार पर शेष बचे भारत का बंटवारा हुआ तो धर्म को राष्ट्रीयता की पहचान बना दिया गया जिसका विरोध तब के भारत का संविधान लिखने वाले मनीषियों ने किया और स्वतन्त्र भारत के नागरिक की पहचान को धर्म से ऊपर मानवीय आधार पर तय किया। संविधान लिखने वाली इस सभा में भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी मौजूद थे। 
वह 1948 तक हिन्दू महासभा में ही रहे। उन्होंने हिन्दू महासभा तत्कालीन पं. नेहरू की राष्ट्रीय सरकार में मन्त्री रहते हुए इसलिए छोड़ी थी क्योंकि वह सभा में गैर हिन्दुओं की सदस्यता भी खोलना चाहते थे, परन्तु 1951 में नेहरू की सरकार इसलिए छोड़ी कि वह 1950 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के बीच हुए उस समझौते के खिलाफ थे जिसमें दोनों देशों के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए एक-दूसरे देश में आयोग बनाने का फैसला किया गया था और उनके अधिकारों की गारंटी दी गई थी। 
वह चाहते थे कि पूर्वी पाकिस्तान और प. बंगाल के बीच हिन्दू-मुस्लिम आबादी की पूरी अदला-बदली हो जाये और उनकी जमीन जायदाद की एवज में पाकिस्तान क्षेत्रीय सरकारी स्तर पर भरपाई करे अर्थात त्रिपुरा, बिहार, प. बंगाल व असम राज्यों को पर्याप्त भूमि दे। अतः आज 72 साल बाद हमें बदली हुई परिस्थितियों में वह रास्ता अख्तियार करना होगा जिससे भारतीय उपमहाद्वीप के किसी भी देश में रहने वाले किसी भी धर्म के अल्पसंख्यकों को किसी भी बात का खतरा न हो।
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