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अम्बेडकर और दलित राजनीति

बाबा साहेब अम्बेडकर की जयन्ती हम मना चुके हैं अतः यह वाजिब सवाल बनता है कि आजादी के 74 साल बाद आज देश में दलितों या अनुसूचित जातियों के लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति क्या है।

01:38 AM Apr 15, 2022 IST | Aditya Chopra

बाबा साहेब अम्बेडकर की जयन्ती हम मना चुके हैं अतः यह वाजिब सवाल बनता है कि आजादी के 74 साल बाद आज देश में दलितों या अनुसूचित जातियों के लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति क्या है।

अम्बेडकर और दलित राजनीति
 बाबा साहेब अम्बेडकर की जयन्ती हम मना चुके हैं अतः यह वाजिब सवाल बनता है कि आजादी के 74 साल बाद आज देश में दलितों या अनुसूचित जातियों के लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति क्या है। बेशक हमने संविधान में यह व्यवस्था की कि इस वर्ग के लोगों को आरक्षण दिया जायेगा जिससे  स्वतन्त्र नागरिक के रूप में उनकी हैसियत में परिवर्तन हो सके और उस आत्मसम्मान के साथ वे जीवन गुजार सकें जो स्वतन्त्रता आन्दोलन का मूल सिद्धान्त था। वास्तव में महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई केवल अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का संग्राम ही नहीं था बल्कि आम भारतीय में गौरव भरने का जज्बा भी था जो अंग्रेजाें की गुलामी करते-करते मृत हो चुका था। यही वजह थी कि भारत का संविधान महात्मा गांधी ने दलित वर्ग के ऐसे  विद्वान व्यक्ति से लिखवाया था जिसे उस समय अछूत कहा जाता था। यदि हम भारतीय संस्कृति के मूल भाव में जायें तो जन्म से दलित होने के बावजूद बाबा साहेब एक ‘पंडित’ थे क्योंकि विप्र या पंडित का कार्य ज्ञान देना ही होता है। यह बाबा साहेब का ही ज्ञान था जिससे आज भारत का लोकतन्त्र जगमगा रहा है और इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहा जाता है परन्तु महात्मा गांधी व बाबा साहोब में कुछ विषयों को लेकर गंभीर मतभेद भी थे। विशेष कर अम्बेडकर मानते थे कि हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम प्रथा के भीतर जो शूद्र जाति रखी गई है वह हिन्दू होकर भी हिन्दू धर्म से वंचित रही है और सदियों से उसके साथ हिन्दुओं द्वारा ही पशुओं से बदतर व्यवहार किया जाता रहा है।
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महात्मा गांधी इस स्थिति को बदलना चाहते थे और इसी वजह से उन्होंने 1931 से लेकर लगभग 1936 तक अछूत प्रथा के खिलाफ महाअभियान चलाया और उन्हें ‘हरिजन’ से सम्बोधित किया। इसी बीच 1932 में जब अम्बेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की तो महात्मा गांधी ने इसका पुरजोर विरोध किया और आमरण अनशन किया। इसकी पृष्ठभूमि में पुणे में 1932 में गांधी-अम्बेडकर समझौता हुआ जिसमें बाबा साहेब पृथक निर्वाचल मंडल की मांग से हट गये और बापू ने उन्हें आश्वासन दिया कि स्वतन्त्र भारत में दलितों को संवैधानिक रूप से आरक्षण दिया जायेगा जिससे उनका सामाजिक व आर्थिक उत्थान हो सके। अतः जब संविधान लिखने की प्रक्रिया 1946 के अंत से शुरू हुई तो इसे संविधान में शामिल किया गया। 26 जनवरी 1950 को लागू हुए संविधान से ही आरक्षण लगातार जारी है और आज भी हम देख रहे हैं कि दलितों की स्थिति में वह परिवर्तन नहीं आ सका है जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि केवल 74 वर्षों के दौरान हजारों साल तक किये गये अन्याय को किसी भी पैमाने से इतनी कम अवधि  में दूर नहीं किया जा सकता है बल्कि जरूरत यह थी कि इस गति को प्रशासन के अन्य संभागों के माध्यम से गति दी जाती। इसमें सबसे बड़ा क्षेत्र शिक्षा का आता है और दलोंतों में शिक्षा के प्रसार के लिए वे कारगर कदम नहीं उठाये जा सके जिनकी बदौलत दलित शिक्षित होते और समाज के हर क्षेत्र में प्रगति करते। इसके उलट हमने दलितों का वोट बैख बनाने का फार्मूला निकाला और उन्हें समाज में अलग-थलग रखने की तक्नीकों में ही भिड़ गये। दलित सम्मान के नाम पर चन्द नेताओं ने अपनी नेतागिरी चमकायी और स्वयं को राजसी स्वरूपों में भी पेश करके दलितों को दलित ही बनाये रखने के नुस्खे निकाले।
बेशक संविधान में सरकारी नौकरियों व सत्ता में भागीदारी के लिए दलितों को आरक्षण दिया गया परन्तु यह तब तक फलीभूत नहीं हो सकता जब तक कि इस वर्ग के लोग यथानुसार शिक्षित न हों। बाबा साहेब भी यह मन्त्र देकर गये थे कि ‘शिक्षित बनो-संगठित रहो और आगे बढ़ो’ मगर उसके इस मन्त्र को बाद में ऐसे  लोगों ने हथिया लिया जो केवल संगठित करने के लिए दलितों को अशिक्षत ही रखना चाहते थे। आज जब बाजार मूलक अर्थव्यस्था का दौर है और उच्च शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है और प्राथमिक स्तर पर ही अच्छी शिक्षा देने वाले स्कूल ‘दुकानें’  बनते जा रहे हैं तो हमें नीतिगत परिवर्तन इस प्रकार करने होंगे कि प्रत्येक दलित परिवार के बच्चों की शिक्षा के अच्छे इन्तजाम उनकी जेब के अनुसार हो सकें। इसके लिए दलित शिक्षा के लिए पृथक बजट की आवश्यकता होगी। प्रत्येक राज्य सरकार को इस काम में इस प्रकार हाथ बंटाना होगा कि दलितों के बच्चे शिक्षित होकर समाज में सिर उठा कर ही न चल सकें बल्कि सीधे राजनीति के गुरों को भी सीख कर वोट बैंक की नीयत वाले राजनीतिज्ञों को जवाब भी दे सकें। जिन शूद्रों की ​जिम्मेदारी वर्ण व्यवस्था मे सेवा करने की कही गई है उन्हें भी सेवा करवाने के लायक बनाने का माध्यण केवल शिक्षा ही हो सकती है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने हालांकि गरीब कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं अतः शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका विस्तार होना चाहिए।
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Aditya Chopra

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