अमोनिया सिर्फ यमुना में नहीं, भाषा में भी फैला
अमोनिया का ज़हर यमुना के जल में तो शायद नहीं मिल पाया…
अमोनिया का ज़हर यमुना के जल में तो शायद नहीं मिल पाया, मगर यह ज़हर नेताओं की भाषा व शब्दों में अवश्य फैल चुका है। इस ज़हर का असर उनके चेहरों पर भी देखा जा सकता है। भाषा एवं शब्दों में ज़हर की मात्रा इतनी बढ़ चुकी है कि उसे शुद्ध कर पाना भी सम्भव नहीं रहा। उपाय एक ही है कि इतनी ज़हरीली भाषा एवं शब्दावली का खुला प्रयोग करने वालों को शालीनता के साथ नकार दिया जाए। कुछ नेताओं को उनके चाहने वाले भी आगाह नहीं करते कि ‘श्रीमान ! श्रीमती जी !’ सामान्य आदमी अब धीरे-धीरे ऐसी भाषा का प्रयोग करने वाले नेताओं को पढ़ना, सुनना व देखना भी पसंद नहीं कर पा रहे। सामान्यजन को आशंका यह भी है कि उनकी नई पीढ़ी इन नेताओं द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले अभद्र शब्दों को सीख जाएगी तो अमोनिया की मात्रा ‘जेहन’ में घर कर जाएगी।
पिछले दिनों कुछ नेतागणों व पार्टी प्रवक्ताओं ने ‘भड़ुवा’, ‘उठाईगीर’, ‘नीच’, ‘बेशर्म’, ‘चोर’ आदि शब्दों को खुलकर प्रयोग किया। जिस चैनल या साक्षात्कार में वे आमंत्रित थे, उसी चैनल को भी अपनी गाली वाली भाषा में घसीट लिया। ‘मोदी मीडिया’, ‘गोदी मीडिया’ और ‘बिकाऊ मीडिया’ सरीखे विशेषणों से मीडिया को भी नवाज़ने में इन नेताओं ने संकोच नहीं किया। इनकी नज़र में हर वो ‘मीडिया-कर्मी’ चोर एवं बिकाऊ है जो उन्हें ज़्यादा समय या ‘स्पेस’ में ज़हरीले शब्दों को परोसने की छूट नहीं देता। ऐसे नेताओं को इस बात का भी शायद एहसास नहीं हो पा रहा कि उन्हें सम्मान से देखने, सुनने या पढ़ने वालों की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगी है।
बजट-सत्र में महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जिस तरह की अभद्र टिप्पणियां की गईं, उनमें शालीनता का पूर्ण अभाव खटकता है। महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण से असहमति जताने का प्रतिपक्ष को अधिकार है, लेकिन उसे ‘बोरिंग’ बताना और एक सांसद द्वारा ‘लव लैटर’ की संज्ञा देना बेहद अभद्र भी है और अत्यंत दुखद भी। प्रतिपक्ष इस पर किसी भी प्रकार का खेद जताएगा, इसकी कोई उम्मीद भी नहीं। राष्ट्रपति पूरे राष्ट्र की ‘आबरू’ हैं और उनके विषय में किसी भी प्रकार की अभद्र टिप्पणी, असभ्य आचरण है व गरिमा विहीन है।
गरिमा-विहीन आचरण तब भी दिखाई दिया था जब दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री ने यमुना-जल से दिल्ली में नरसंहार सरीखी स्थिति की आशंका जता दी थी। जब हरियाणा के मुख्यमंत्री ने स्वयं यमुना के जल को पी कर दिखाया तो भी पूर्व मुख्यमंत्री ने उन पर यमुना के जल का अपमान करने का आरोप चस्पा कर डाला। पारस्परिक नफरत फैलाने वाले ऐसे आचरण व ऐसी भाषा का प्रयोग एक घुटनभरा माहौल पैदा कर रहा है। एक सभ्य व लोकतांत्रिक देश में भाषा व संस्कृति के मामले में इतनी गिरावट को रोकना चाहिए।
ऐसा भाषाई पतन रोका जाए, इसकी जिम्मेदारी भी दोनों पक्षों की है। कुछ गरिमाएं ऐसी भी हैं जिसका पालन करने के लिए दोनों ही पक्षों की जवाबदेही है। लोकतंत्र में आचरण की एक सीमा-रेखा, एक मर्यादा रेखा तय करना ज़रूरी है। इसके लिए आवश्यक है कि वरिष्ठ नेतागण, वरिष्ठ पत्रकार और वरिष्ठ विचारक एवं लेखक गण आगे आएं। यद्यपि फिलहाल ऐसे आसार भी दिखाई नहीं दे रहे लेकिन यह समय की मांग है और इसकी उपेक्षा खतरनाक भी सिद्ध हो सकती है।
भाषा, शब्द, आचरण और आपसी सौहार्द के द्वारा ही हालात को अराजक होने से रोका जा सकता है। अब यह बात अलग है कि पहलकदमी कहां से हो? इससे पहले भी ‘खूनी पंजा’, ‘मक्कार’, ‘बेशर्म’ व ‘फैंकू’ सरीखे शब्दों को संसद से सड़क तक उछाला जा चुका है। सब कांचघरों में रहते हैं और सबके हाथ में पत्थर हैं। यह स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
पद राष्ट्रपति का हो या लोकसभाध्यक्ष, राज्यसभा-सभापति का या प्रधान न्यायाधीश का पद, ऐसे पदों को घटिया किस्म की छींटाकशी से बख्शा जा सकता है। ये पद देश की अस्मिता के प्रतीक हैं। महामहिम राष्ट्रपति को जब आप ‘पुअर लेडी’ सरीखे संबोधन देंगे तो गरिमाविहीन आचरण का आरोप आप पर भी आएगा। एक आदिवासी महिला को राष्ट्र की मुख्यधारा में शिखर-पद मिला है उस पद की गरिमा का सम्मान करना ही चाहिए। अभिभाषण में कहीं कोई अधूरापन आपको लगा है तो उसकी आलोचना स्वस्थ व साफ-सुथरी भाषा में भी हो सकती है। विशेष रूप से यह सावधानी संवैधानिक पदों के बारे में आवश्यक हो जाती है।
यही स्थिति हरियाणा के मुख्यमंत्री वाले प्रसंग में है। चुनावी दहलीज पर खड़े होकर कचरानुमा भाषा का प्रयोग पूरी तरह अनुचित है। दिल्ली की सरकार और उसके नेतागण अगर अपने आरोपों को संतुलित भाषा तक सीमित रखते तो इसका शायद कुछ लाभ उन्हें भी मिलता। लेकिन आरोप भी बेतुके हों और भाषा भी लचर हो जाए तो आपको जनादेश पर दावा जताने का भी अधिकार नहीं रह जाता। बहरहाल, एक आईआईटी-शिक्षित एवं मैगासेसे पुरस्कार से सम्मानित राजनेता की भाषा व सोच का स्तर गिरने लगे तो उसे सिर्फ जनमत ही कोई सबक दे सकता है। इन दोनों मामलों में राष्ट्रपति-अभिभाषण और ‘दिल्ली का जल’ को लेकर गरिमाओं पर गहरी चोट की गई है और इस चोट का दर्द तो पूरे परिवेश को होगा।
– डॉ. चंद्र त्रिखा