सीवर में मौतों का अंतहीन सिलसिला
सीवर सफाई में मौतें: कब थमेगा ये सिलसिला?
सीवर की सफाई करते समय मजदूरों की जान जाना कोई नई बात नहीं है। ये बात सुनने में थोड़ी कड़वी जरूर है लेकिन है बिल्कुल सच। बीती छह मई को बठिंडा में एक ट्रीटमेंट प्लांट की सफाई लिए उतरे तीन लोग अपनी जान गंवा बैठे। इस घटना के हफ्ते बाद हरियाणा रोहतक के माजरा गांव में एक व्यक्ति और उसके दो बेटे एक-दूसरे को जहरीले मैनहोल से बचाने की कोशिश में एक के बाद एक मर गए। पंद्रह मई को फरीदाबाद में एक मकान मालिक ने नियुक्त सफाईकर्मी को बचाने के लिए सेप्टिक टैंक में छलांग लगा दी। दोनों की ही जहरीली गैस से दम घुटने से मौत हो गई। कितना दुखद है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी सीवर-सेप्टिक टैंकों का काम मैनुअली कराया जाता है। इन टैंकों में सफाई करने के लिए उतारने वालों को सुरक्षा उपकरण तक मुहैया नहीं कराए जाते। दो-चार दिन के हो-हल्ले के बाद गाड़ी पुरानी पटरी पर दौड़ने लगती है।
भले हम इस बात पर गर्व करें कि हमारा देश तकनीकी मामले में इतना आगे बढ़ गया है कि चांद पर सफलतापूर्वक चंद्रयान भेज रहा है। मंगल ग्रह पर पानी की खोज कर रहा है, पर इस बात पर शर्म महसूस होती है कि क्या हमारे पास इतनी भी क्षमता नहीं कि वह गटर या सीवर-सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए मशीनी तकनीक विकसित कर सके। यदि ये क्षमता है तो फिर क्यों गटरों-टैंकों की सफाई करते हुए मजदूर मारे जा रहे हैं? और यदि शासन-प्रशासन की लापरवाही से ये मौतें हो रही हैं तो फिर इन्हें मौतें नहीं बल्कि हत्याएं कहा जाएगा। देश में साल 1993 में पहली बार सीवरों की मैनुअल सफाई और मैला ढोने की प्रथा पर बैन लगाया गया था।
इसके 20 साल बाद मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट, 2013 के जरिए इस पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई थी। कानून के मुताबिक, अगर मजदूरों को परिस्थितिवश सीवर में उतरना पड़ता है तो उनको 27 दिशा-निर्देशों का पालन करना होग। इसके बाद भी आए दिन सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मजदूरों की मौत के मामले सामने आते रहे हैं। इससे पहले भी सीवर में सफाई के दौरान जानें जाने के मामले अलग-अलग जगहों से सामने आते रहे हैं। सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में आंकड़े शेयर कर बताया कि पिछले 31 सालों में 1248 जानें जा चुकी हैं। सीवर और सेप्टिक टैंक में सफाई के दौरान सबसे ज्यादा 253 जानें तमिलनाडु में गई।
उसके बाद गुजरात में 183, उत्तर प्रदेश में 133 और दिल्ली में 116 लोगों की मौत हो चुकी है। देश के पास चांद तक पहुंचने की तकनीक है लेकिन सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए आज भी मशीनों की कमी है। यही वजह है कि मजदूर इस जहरीली गैस वाले टैंकरों में खुद उतरकर सफाई करते हैं। कई बार तो उनकी जान तक चली जाती है।
विडंबना ही है कि रोजगार के रूप में हाथ से सफाई के रोजगार पर प्रतिबंध, सफाईकर्मियों के पुनर्वास अधिनियम 2013 तथा खतरनाक सफाई पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद मौतों का सिलसिला थमा नहीं है। ऐसे मामलों में सुरक्षा प्रोटोकॉल की अनदेखी की जाती है। कानून के मुताबिक सफाई एजेंसियों के लिए सफाई कर्मचारियों को मास्क, दस्ताने जैसे सुरक्षात्मक उपकरण देना अनिवार्य है लेकिन एजेंसियां अक्सर ऐसा नहीं करतीं, कर्मचारियों को बिना किसी सुरक्षा के सीवरों में उतरना पड़ता है। एक सर्वे के अनुसार सीवर की सफाई में लगे लोगों में से 49 फीसदी को सांस संबंधी और 11 फीसदी से अधिक को त्वचा संबंधी कई परेशानियां हो जाती हैं। गटर/सीवर साफ करने वाले 90 फीसदी सफाई कर्मचारियों की 60 की उम्र से पहले ही मौत हो जाती है।
उनके पास कोई उपकरण नहीं होता जिससे पता लगाया जा सके कि सीवर में जहरीली गैस है या नहीं। ऐसे में ये हादसों के शिकार हो जाते हैं और अगर हादसों से बच जाते हैं तो इनके शरीर में बीमारियां घर कर जाती हैं जिससे ये भरी जवानी में ही मौत के शिकार हो जाते हैं। सीवर सफाई के लिए मशीनें खरीदने के दावों के बावजूद हाथ से सफाई का क्रम नहीं टूटता। कई जगह मशीनों के खरीदने पर करोड़ों का परिव्यय दिखाया गया लेकिन जमीनी हकीकत नहीं बदली। मशीनें तो धूल फांक रही हैं और इंसानों को नरक में धकेला जा रहा है। प्रायः सरकारी तंत्र ठेकेदारों को दोषी ठहराकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है।
आखिर इन ठेकेदारों को काम पर कौन रखता है। निस्संदेह, सरकारी तंत्र भी इस आपराधिक लापरवाही के लिए जिम्मेदार है। आखिर सफाई कर्मियों से जुड़े सुरक्षा मानकों की निगरानी की जवाबदेही तय क्यों नहीं होती? नगर पालिकाएं और राज्य एजेंसियां आउटसोर्सिंग की दुहाई देकर अपने कानूनी और नैतिक कर्त्तव्यों से बच नहीं सकती। निर्विवाद रूप से हमारे समाज पर मैनुअल स्कैवेंजिंग एक काला धब्बा है।
भारत में 70 फीसदी सीवेज लाइनों की सफाई आमतौर पर होती ही नहीं। 2015 में एक सर्वे में पता लगा कि तब हमारे देश में 810 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स थे लेकिन चालू हालत में केवल 522 ही थे। बाकी या तो खराब थे या बनने की प्रक्रिया में थे। मैक्सिको में सीवेज का पूरा सफाई का काम इकोलॉजिकल सेनिटेशन मॉडल पर होता है, ये मॉडल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स से जुड़ा होता है। अमेरिका में मशीनों का इस्तेमाल होता है। वहां इसके लिए समूचित सुरंगें और उपकरण हैं। इससे ही काम होता है। इस काम में मानव का इस्तेमाल बहुत कम है। यूरोप में भी यही सिस्टम है।
हमारे देश में सीवेज प्लांट्स में हर तरह की गंदगी गिरती है। इसमें सूखा, गीला, प्लास्टिक और मलबा सभी कुछ होता है। ये गलत है। इससे जानलेवा जहरीली गैस बनने लगती है और जब कोई सफाई कर्मचारी सीवर या सेप्टिक टैंक में सफाई के लिए घुसता है तो दम घुटने की स्थिति बन जाती है। इस काम को अब पूरी तरह मशीनों से किया जाना चाहिए।
ये जरूर है कि भारत में कुछ समय पहले सुलभ इंटरनेशनल ने बाहर से आयात करके दिल्ली में एक सीवेज क्लीनिंग मशीन पेश की थी, जिसकी कीमत तब 43 लाख थी। अब दिल्ली या देश के दूसरे शहरों में ऐसी कितनी मशीनें हैं और इनसे कितना काम लिया जाता है-ये जानकारी नहीं है। वर्ष 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा पूरी तरह खत्म हो। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट्स को सीवर से होने वाली मौतों से संबंधित मामलों की निगरानी करने से ना रोके जाने का निर्देश दिया। अदालत ने कहा था कि सफाई के दौरान कोई सफाई कर्मी स्थायी दिव्यांगता का शिकार होता है तो न्यूनतम मुआवजे के रूप में उसे 20 लाख रुपए दिया जाएगा। वहीं, अन्य दिव्यांगता पर अफसर उसे 10 लाख रुपए तक का भुगतान करेंगे।
अदालतों की सख्ती और सख्त लहजा इसे रोकने को कहता है, सत्ताधीश आदेश की औपचारिकता पूरी करते हैं लेकिन फिर भी सीवर की जहरीली गैस में लोगों के मरने का सिलसिला थमा नहीं है। किसी सफाईकर्मी के मरने पर कुछ समय तो हो-हल्ला होता है, मगर फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। समस्या की गंभीरता को देखते हुए नगर निकायों को इन हादसों के लिये सीधे जवाबदेह बनाया जाए। सीवर की सफाई से जुड़ी मौत के लिये स्वतः कानूनी कार्रवाई, तत्काल मुआवजा और विभागीय कार्रवाई की जाए। मानवीय श्रम की जगह तकनीक के उपयोग से बहुमूल्य जीवन को बचाया जाना चाहिए।