हमारी भाषाओं को जोड़ती एक विचारधारा
मौजूदा दौर में भी और अतीत में भी जिस प्रकार से भाषाओं को लेकर आपसी वैमनस्य और यहां तक कि मारपीट तक होती रही है, ऐसा बर्ताव भाषा के साथ दोस्ती नहीं, दुश्मनी है। जहां उर्दू, हिंदी, गंगा-जामुनी तहज़ीब का प्रतीक है, उसी प्रकार से पंजाबी या गुरुमुखी भी एक दिलदार जुबान है। किसी भी भाषा के लिए सबसे बड़ी दुश्मनी यह है कि उसे किसी धर्म, संप्रदाय, प्रांत अन्यथा देश से जोड़ कर देखा जाए। एक समय ऐसा भी हुआ कि कर्नाटक में भी हिंदी और कन्नड़ और हिंदी में विध्वंस हुआ और हिंदी की तख्तियों और बैनर्स को काली स्याही पोती गई। किसी भी भाषा के साथ इस से बड़ा अन्याय कोई नहीं हो सकता। भाषाओं का धर्म नहीं दिल अवश्य होता है, जिनको इनके चाहने वाले शैदाई दिल से बोलते हैं। वैसे भाषा को लेकर देशों में भी विभाजन हुआ है। बांग्ला और उर्दू के झगड़े में बांग्लादेश की स्थापना हुई और हिंदी उर्दू के फसाद ने पाकिस्तान बना डाला, जबकि उर्दू भारत में जन्मी और पली बढ़ी।
इस संदर्भ में, भारत के स्कूलों में विभिन्न प्रांतों की भाषाओं को पढ़ाने की अवधारणा न केवल एक शैक्षिक सुधार है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने का एक प्रभावी माध्यम भी हो सकता है। भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता भारत में भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, इतिहास, और पहचान का प्रतीक भी है। प्रत्येक भाषा अपने साथ साहित्य, परंपराएं, और जीवनशैली की एक अनूठी झलक लेकर आती है।
उदाहरण के लिए, बांग्ला भाषा रवींद्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे साहित्यकारों की विरासत को समेटे हुए है, तो पंजाबी भाषा गुरबानी और लोक संगीत की जीवंतता को दर्शाती है। भाषाओं की दिलों और आत्मा को जोड़ने की दिशा में ही, ज़मीन से जुड़े दशमेश पब्लिक स्कूल की मैनेजिंग कमेटी के चेयरमेन सरदार बलबीर सिंह विवेक विहार कहते हैं कि भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोली जाती हैं, जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं। लेकिन यह विविधता कभी-कभी क्षेत्रीय और भाषाई दीवारें भी खड़ी कर देती है, जो लोगों के बीच आपसी समझ और एकता को कमजोर कर सकती है। इस संदर्भ में, भारत के स्कूलों में विभिन्न प्रांतों की भाषाओं को पढ़ाने की अवधारणा न केवल एक शैक्षिक सुधार है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने का एक प्रभावी माध्यम भी हो सकता है।
वह इस बाबत महाराष्ट्र के संत नामदेव का उदाहरण देते हैं कि वे मूल रूप से महाराष्ट्र से थे। उन्होंने अपने जीवन के करीब दो दशक पंजाब में व्यतीत किए। उनके अनेक दोहे श्री गुरुग्रंथ साहिब में हैं। संत नामदेव के नाम पर एक मंदिर भीष्म पितामह मार्ग है। इसे संत नामदेव ट्रस्ट चलाता है। नामदेव जी ने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएं लिखीं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियणा और पंजाब समेत सारे देश में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं।
कितना भला महसूस होता है, जब सुष्मिता बोस और आमना ज़की राजधानी के विवेक विहार के दशमेश पब्लिक स्कूल की लाइब्रेरी के बाहर धाराप्रवाह पंजाबी में बातचीत कर रही थीं। इनके बीच में हो रहे संवाद को सुनकर कोई कह नहीं सकता था कि इन दोनों की मातृभाषा पंजाबी नहीं है। बांग्ला भाषी सुष्मिता और अमना के घर में उर्दू या कहें हिन्दुस्तानी बोली जाती है। इन दोनों ने पंजाबी लिखना और बोलना अपने स्कूल में सीखा। इधर पंजाबी भाषा सभी बच्चों को आठवीं कक्षा तक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। इन दोनों के अलावा, यहां से बीते तीन दशकों के दौरान हजारों गैर पंजाबी परिवारों के बच्चों ने पंजाबी लिखना- बोलना सीखा। अगर सारे देश के स्कूलों के बच्चे अपनी मातृभाषा के अलावा किसी अन्य राज्य की भाषा भी पढ़ें और सीखें तो कितना अच्छा हो। मुंबई के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को तमिल, बांग्ला,असमिया आदि जुबानें सीखने का अवसर मिले और तमिलनाडू के बच्चों को पंजाबी,हिन्दी, मलयाली आदि भाषाएं सीखने का विकल्प हो। यदि स्कूलों में बच्चों को विभिन्न प्रांतों की भाषाएं पढ़ाई जाएं, तो यह न केवल उनकी भाषाई क्षमता को बढ़ाएगा, बल्कि उन्हें अन्य क्षेत्रों की संस्कृति, परंपराओं, और जीवनशैली को समझने का अवसर भी देगा।
शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्रदान करना ही नहीं, बल्कि एक संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करना भी है। बहुभाषी शिक्षा बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के संबंध में प्रख्यात शिक्षाविद् सरिता सक्सेना का मानना है कि बहुभाषी होना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जैसा कि शोध बताते हैं कि जो बच्चे एक से अधिक भाषाएं सीखते हैं, उनकी संज्ञानात्मक लचीलापन, समस्या-समाधान क्षमता, और रचनात्मक सोच में वृद्धि होती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहां हर कुछ सौ किलोमीटर पर भाषा और बोली बदल जाती है, बच्चों को विभिन्न भाषाएं सिखाने से उनकी बौद्धिक क्षमता बढ़ेगी।
भारत में क्षेत्रीयता और भाषाई पहचान कई बार सामाजिक तनाव का कारण बनती है। विभिन्न भाषाई समूहों के बीच गलतफहमियां और पूर्वाग्रह अक्सर इसलिए उत्पन्न होते हैं, क्योंकि लोग एक-दूसरे की संस्कृति और भाषा से अपरिचित होते हैं। यदि स्कूलों में बच्चों को कम उम्र से ही विभिन्न प्रांतों की भाषाएं सिखाई जाएं, तो यह एक-दूसरे के प्रति समझ और सहानुभूति को बढ़ावा देगा।
उदाहरण के तौर पर, जब एक बांग्ला भाषी बच्चा पंजाबी सीखता है, तो वह न केवल भाषा सीखता है, बल्कि पंजाब की संस्कृति, त्योहारों, और जीवनशैली को भी समझता है। यह उसे पंजाबी लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील और सम्मानजनक बनाएगा। इसी तरह, हिंदी भाषी बच्चे जब असमिया सीखेंगे, तो वे असम की सांस्कृतिक समृद्धि, जैसे बिहू उत्सव और असमिया साहित्य, से परिचित होंगे। यह प्रक्रिया बच्चों में एक समावेशी दृष्टिकोण विकसित करेगी, जो भविष्य में सामाजिक एकता को मजबूत करेगा। बहुभाषी शिक्षा के व्यावहारिक लाभ भी कम नहीं है। भारत एक तेजी से वैश्विक होने वाला देश है, जहां नौकरी और व्यापार के अवसर अब क्षेत्रीय सीमाओं से परे हैं। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान बच्चों को भविष्य में बेहतर अवसर प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक मलयाली जो हिंदी जानता है, वह न केवल केरल में, बल्कि दिल्ली, मुंबई, या अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी आसानी से काम कर सकता है। इसी तरह, एक बांग्ला भाषी व्यक्ति जो पंजाबी जानता है, वह पंजाब में व्यापार या नौकरी के अवसरों का बेहतर उपयोग कर सकता है।
इसके अलावा, पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के क्षेत्र में भी बहुभाषी शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जब लोग एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को समझते हैं, तो वे अधिक आसानी से एक-दूसरे के साथ घुलमिल सकते हैं। यह पर्यटन को बढ़ावा देगा और विभिन्न प्रांतों के बीच आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहित करेगा। हालांकि विभिन्न प्रांतों की भाषाओं को स्कूलों में पढ़ाने का विचार आकर्षक है, इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियां भी हैं। सबसे पहले, भारत में शिक्षा का ढांचा पहले से ही जटिल है, और कई स्कूलों में संसाधनों की कमी है। विभिन्न भाषाओं को पढ़ाने के लिए योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होगी, जो एक बड़ी चुनौती हो सकती है। इसके अलावा, पाठ्यक्रम में नई भाषाओं को शामिल करने से पहले से ही भारी पाठ्यक्रम पर अतिरिक्त बोझ पड़ सकता है।
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए कुछ व्यावहारिक कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, स्कूलों में भाषा शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू किया जा सकता है, ताकि छात्र अपनी रुचि के अनुसार भाषा चुन सकें। उदाहरण के लिए, एक बांग्ला भाषी बच्चा पंजाबी, तमिल, या मराठी में से किसी एक को चुन सकता है। दूसरा, डिजिटल तकनीक का उपयोग करके ऑनलाइन भाषा पाठ्यक्रम और ऐप्स विकसित किए जा सकते हैं, जो बच्चों को अपनी गति से सीखने में मदद करेंगे। शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए, विभिन्न प्रांतों के शिक्षकों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पंजाब से शिक्षक पश्चिम बंगाल के स्कूलों में पंजाबी पढ़ाने के लिए जा सकते हैं, और बंगाल से शिक्षक पंजाब में बांग्ला पढ़ा सकते हैं। इससे न केवल भाषा शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि शिक्षकों को भी एक-दूसरे की संस्कृति को समझने का अवसर मिलेगा।