Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

एक और पहाड़ की कहानी

गजानन माधव मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आ रही हैं। याद इसलिये आ रही हैं क्योंकि देश के आदिवासी समाज ने आज भी जमीन में गड़कर भी जीने की लालसा नहीं छोड़ी।

03:27 AM Jun 15, 2019 IST | Ashwini Chopra

गजानन माधव मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आ रही हैं। याद इसलिये आ रही हैं क्योंकि देश के आदिवासी समाज ने आज भी जमीन में गड़कर भी जीने की लालसा नहीं छोड़ी।

कोशिश करो, कोशिश करो
Advertisement
कोशिश करो जीने की
गड़कर जमीन में भी
गजानन माधव मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आ रही हैं। याद इसलिये आ रही हैं क्योंकि देश के आदिवासी समाज ने आज भी जमीन में गड़कर भी जीने की लालसा नहीं छोड़ी। पिछले कई दशकों से विकास योजनाओं से पीड़ित आदिवासी समाज अपने अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है। वह आज भी जल, जंगल और जमीन में रहकर जीने की शैली को छोड़ नहीं रहा है बल्कि अपनी परम्पराओं को बनाये रखने की कोशिश कर रहा है। यद्यपि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिला में आदिवासियों के आन्दोलन के बाद भूपेश बघेल सरकार ने बैलाडीला क्षेत्र की डिपाजिट नम्बर 13 में खनन गतिविधियों पर रोक लगाई है। 
हजारों की संख्या में आदिवासियों ने अपने देवताओं के घर कहे जाने वाले बैलाडीला के एक हिस्से नंदराज पहाड़ी को बचाने के लिये आन्दोलन चलाया था। आदिवासी बैलाडीला की पहाड़ियों पर हो रहे लौह अयस्क खनन का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस खनन से नंदराज पहाड़ी के अस्तित्व पर संकट छा गया है जिसे गोंड, घुरवा, भुरिया और भतरा समेत दर्जनों आदिवासी समूह अपना देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। बस्तर में सरकारी उपक्रम वर्षों से चल रहा है, उसका कोई विरोध नहीं है। जिस उद्योग में सरकार की भागीदारी है उसका कोई विरोध नहीं होना चाहिये लेकिन कोई बस्तर से खिलवाड़ करे तो आदिवासी विरोध करेंगे ही। 
आदिवासियों के लिये जल, जंगल और जमीन से बढ़कर कुछ नहीं होता। पहाड़ आदिवासियों की जीवन शैली में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी मान्यतायें और रहन-सहन इन्हीं पर केन्द्रित होता है। इसके बिल्कुल विपरीत सरकारें पहाड़ को उखाड़ने में ही लगी रहती हैं क्यों​कि उन्हें पहाड़ से खनिज सम्पदा चाहिये। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम ने बेलाडीला की पहाड़ी डिपाजिट-13 को लौह अयस्क उत्खनन के लिये एक निजी कंपनी को लीज पर दे दिया था। आरोप यह है कि वर्ष 2014 में एक फर्जी ग्राम सभा की बैठक कर इस पहाड़ी पर लोह अयस्क खनन की अनुमति दे दी गई थी।
मात्रा 104 लोगों की मौजूदगी में ग्राम सभा के प्रस्ताव पर ग्रामीणों के हस्ताक्षर हैं जबकि ग्रामीण साक्षर ही नहीं हैं, वह तो अंगूठा लगाते हैं तो फिर हस्ताक्षर किसने किये। इस सम्बन्ध में आदिवासी नेताओं और संयुक्त पंचायत संघर्ष समिति के सदस्यों ने मिलकर खनन के लिये प्रस्ताव पारित कराने वालाें के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने का अनुरोध भी किया था। आदिवासियों का कहना है कि इस खदान ने उनके खेतों को लाल कर दिया है, पेयजल भी लाल हो गया है। हमारा घरबार सब लाल हो गया है। धन्ना सेठ यहां से लोहा मिट्टी के भाव ले जाते हैं और सोने के भाव बेच देते हैं। इस पर्वत पर आदिवासियों के ईष्टदेव नंदराज और उनकी पत्नी पिटोड रानी विराजमान हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 (i) के अनुसार सम्पूर्ण बस्तर संभाग पांचवीं अनुसूची में शामिल है और इस पर पंचायती राज अधिकार कानून 1996 लागू होता है। इसमें ग्रामसभा की अनुमति के बिना एक इंच भूमि न तो केन्द्र की सरकार और न ही राज्य की सरकार दे सकती है लेकिन फर्जी ग्रामसभा की बैठक कर जमीनों को हड़पा जा रहा है।  निजी कंपनी को लीज पूर्ववर्ती डा. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने दी थी। ऐसा ही आन्दोलन ओडिशा के नियमगिरी पहाड़ को बचाने के लिये किया गया था। कालाहांडी जिले में नियमगिरी और उसके आसपास के क्षेत्र में रहने वाले डोंगरिया कोंध आदिवासी समुदाय की श्रद्धा इस पहाड़ी से जुड़ी हुई थी। 
इस पहाड़ पर खनन की अनुमति वेदांता कंपनी को दी गई थी। कुछ संगठनों ने इस पहाड़ी पर अवैध खनन को मुद्दा बनाया। नियमगिरी पहाड़ को बचाने के लिये आन्दोलन ने तब तीव्रता पकड़ी जब अमेरिका और यूरोप के फैशन सर्किल में काफी लोकप्रिय एक पत्रिका में नियमगिरी और डोंगरिया कोंध समुदाय के रिश्तों पर एक स्टोरी छपी। कुछ पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने लंदन में निर्वस्त्र प्रदर्शन कर इस मुद्दे को उठाया। इसी विषय पर एक चर्चित फिल्म ‘अवतार’ भी बनी थी। जब आन्दोलन उठा तो नियमगिरी पर्वत पर खनन ​रोक दिया गया। दरअसल सरकारों और निजी उद्योगपतियों की सांठगांठ से नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। 
खनन का ठेका लेकर निजी कंपनियां अवैध खनन कर पहाड़ खाली कर देती हैं। पेड़ों को काट दिया जाता है। राज्य सरकारें आंख मूंदकर अंधाधुंध एमओयू पर हस्ताक्षर करती आ रही हैं। अत्यधिक खनन हमारे पारंपरिक जल स्रोतों को समाप्त कर रहा है। कोई जल स्रोतों को बचाने का प्रयास नहीं कर रहा है। उद्योगपतियों ने लूट का साम्राज्य कायम कर लिया है। सरकारों के लिये पूंजी निवेश की खातिर सब कुछ जायज है। सैकड़ों परियोजनाओं के चलते आदिवासी लगातार बेदखल हो रहे हैं। देश में खनिज संसाधनों की हिफाजत की लड़ाई आज भी आदिवासी लड़ रहे हैं। अपने मुनाफे के लिये आदिवासी जीवन या वन पर्यावरण कानूनों की धेलाभर भी किसी को परवाह नहीं। जब जल, जंगल और जमीन छिनते हैं तो आदिवासी हथियार उठा लेते हैं। आखिर वे जाएं तो जाएं कहां?
Advertisement
Next Article