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बिहार: गठबन्धन की राजनीति

04:45 AM Oct 16, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

बिहार के मतदाता पूरे देश में राजनैतिक रूप से सर्वाधिक सजग मतदाता माने जाते हैं। इसके कुछ एेतिहासिक व सांस्कृतिक कारण भी हैं परन्तु वर्तमान में इस राज्य में पिछले तीस वर्षों से जिस प्रकार की राजनीति हो रही है उसमें जातिवाद ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया है मगर इसके बावजूद 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों में हमें देखने को मिला कि लोगों ने जाति-धर्म को तिलांजिली देकर अपने मत का प्रयोग किया और अपनी मनमर्जी की सरकारों का गठन किया। निश्चित रूप से इन दोनों ही चुनावों में बिहार की जनता की पहली पसन्द वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जद (यू) रही। वास्तव में यह जनादेश बिहार को जातिवादी राजनीति से उबारने के लिए था। परन्तु क्या इसमें नीतीश बाबू सफल रहे ? इसका उत्तर हमें नकारात्मक मिलता है क्योंकि इस दौरान नीतीश बाबू ने जाति के आधार पर ही अपना नया वोट बैंक तैयार कर लिया जिसे अति पिछड़ा वोट बैंक कहा जाता है।
सवाल यह है कि बिहार में जिन लालू प्रसाद यादव को 1990 में भारी धूम-धड़ाके के साथ स्व. देवीलाल ने मुख्यमन्त्री बनाया था उन्होंने अपने राजनीतिक मसीहा स्व. चौधरी चरण सिंह के ग्रामीण वोट बैंक को जातिगत आधार पर बांट डाला और मुस्लिम-यादव वोट बैंक बना डाला। उनके इस कार्य को स्व. रामविलास पासवान ने भी आगे बढ़ाया और एकजुट ग्रामीण मतदाताओं को दलित-मुस्लिम वोट बैंक में बांट डाला। नीतीश बाबू भी इस काम में पीछे नहीं रहे और महादलित या अति पिछड़ा व मुस्लिम वोट बैंक बना डाला। इसकी वजह से बिहार में राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस व भाजपा की महत्ता समाप्त सी होती चली गई जिसके कारण से इन्हें अन्ततः क्षेत्रीय दलों की शरण में जाना पड़ा। लालू प्रसाद ने इस काम में होशियारी दिखाई और उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया और एक जमाने के कांग्रेस के वोट बैंक को ही अपनी पूंजी बना डाला। दूसरी तरफ नीतीश कुमार ने भाजपा का दामन थामा और उसके सीमित सवर्ण जातियों के वोट बैंक के साथ अपना वोट बैंक मिलाकर चुनाव जीतना शुरू किया। बिहार में भाजपा की खास पकड़ शुरू से ही नहीं रही अतः उसे नीतीश के रूप में अपना विस्तार करने का अवलम्ब मिला। इसकी वजह यह रही कि राज्य की राजनीति में पहले कम्युनिस्टों व बाद में समाजवादियों का प्रभुत्व बढ़ने से साम्प्रदायिक राजनीति का दायरा बहुत सीमित रहा। जनसंघ या भाजपा के विस्तार के लिए बहुत जरूरी था कि उसे नीतीश बाबू जैसे किसी जनाधार वाले नेता का अवलम्ब मिले। यह कार्य भाजपा ने बहुत चतुरता के साथ किया और श्री रामविलास पासवान के जीवित रहते ही 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व उनकी लोक जनशक्ति पार्टी के साथ भी गठबन्धन किया। यह लोकसभा चुनाव नीतीश बाबू ने अकेले अपनी पार्टी जद(यू) के बूते ही लड़ा और उन्हें भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। इससे यह साबित हो गया कि नीतीश बाबू की अकेले दम पर ताकत इतनी नहीं है कि वह बिहार में बहुमत प्राप्त कर सकें।
अतः 2015 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने लालू प्रसाद की पार्टी राजद के साथ गठबन्धन किया और बहुमत प्राप्त करके भाजपा को 243 सदस्य वाली विधानसभा में 52 पर समेट दिया। उस समय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर थी। इससे एक बात साफ हो गई कि बिहार में यदि समूचा ग्रामीण वोट बैंक कमोबेश तरीके से एकजुट हो जाये तो वह किसी भी सीमा तक सफलता प्राप्त कर सकता है। हालांकि स्व. पासवान की पार्टी 2015 के चुनावों में भाजपा के साथ ही थी। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि बिहार में आज भी हार-जीत का फैसला वह आबादी ही करती है जिसकी जनसंख्या 86 प्रतिशत है। इसमें 63 प्रतिशत मतदाता पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के हैं और 23 प्रतिशत के लगभग अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के हैं। भाजपा की चतुरता और कुशलता यह है कि वह इन वर्गों के बीच एेसे राजनीतिक गठबन्धन बनाती है जिससे इन वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा उसके पाले में आ जाये। राज्य में जो एनडीए गठबन्धन है वह इसका जीता-जागता प्रमाण है क्योंकि इसमें नीतीश कुमार के अलावा जीतन राम मांझी, चिराग पासवान व उपेन्द्र कुशवाहा भी शामिल हैं। इन सभी दलों की अकेले-अकेले शक्ति इतनी नहीं है कि वे अपने बूते पर विधानसभा सीटें जीत सकें।
दूसरी तरफ लालू प्रसाद की पार्टी राजद का जो गठबन्धन है उसका गणित थोड़ा भिन्न है क्योंकि इसके साथ राज्य के अल्पसंख्यक या मुस्लिम मतदाता एक मुश्त रूप से हैं और पिछड़े वर्ग व अति पिछड़े भी हैं। इसके गठबन्धन में वामपंथी दल भी शामिल हैं जिनका वोट बैंक भी अति दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े हैं। इसके साथ ही मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी भी है जिसके साथ अति पिछड़ों का एक समुदाय है। इस प्रकार देखें तो दोनों ही गठबन्धन सिर्फ ग्रामीण वोट बैंक पर ही खेल रहे हैं और उसे जातियों में बांटकर अपना बहुमत लाना चाहते हैं। एेसे माहौल में भाजपा या कांग्रेस की भूमिका बहुत सीमित हो जाती है। यही वजह रही कि बिहार में नीतीश बाबू की पार्टी जद(यू) को एनडीए में बड़ा भाई कहा जाता था। मगर वर्तमान विधानसभा चुनावों में यह भूमिका भाजपा के पास चली गई है और उसने जद(यू) को अपने बराबर 101 सीटें ही लड़ने के लिए दी हैं। इसके साथ ही भाजपा यह हुंकार नहीं भर रही है कि चुनावों के बाद एनडीए के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ही होंगे। दूसरी तरफ लालू के इंडिया गठबन्धन में भी कमोबेश हालत यही है क्योंकि कांग्रेस भी आवाज नहीं दे रही है कि चुनावों के बाद राजद के श्री तेजस्वी यादव ही मुख्यमन्त्री होंगे। दोनों ही गठबन्धन भावी मुख्यमन्त्री का चेहरा खुलकर सामने नहीं ला रहे हैं। इसकी वजह से दोनों ही गठबन्धनों में सीट बंटवारे को लेकर तरह-तरह के विवाद जन्म ले रहे हैं और पनप रहे हैं। मगर अब पहले चरण के नामांकन के लिए केवल दो दिन का समय शेष रह गया है अतः हमें देखने को मिल सकता है कि एक सीट पर कहीं-कहीं कई-कई उम्मीदवार पर्चा दाखिल करते हुए मिलें। परन्तु इससे घबराने की जरूरत इसलिए नहीं है कि बिहार के मतदाता उड़ती चिड़िया को भी हल्दी लगाने में माहिर होते हैं। वे जानते हैं कि प्रशान्त किशोर की जनसुराज पार्टी किस उद्देश्य से मैदान में है और वोट कटवा का तमगा लिये घूम रही है।

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