बिहार में नीतीश बाबू के पुत्र का आगमन
भारत की राजनीति में बिहार का स्थान इसलिए विशिष्ट माना जाता है क्योंकि इस…
भारत की राजनीति में बिहार का स्थान इसलिए विशिष्ट माना जाता है क्योंकि इस राज्य के आम लोगों में राजनैतिक पेंचों को समझने की सूझ-बूझ बहुत गहरी है। य़हां के मतदाता चतुर और सुजान समझे जाते हैं। इसका प्रमाण आपको किसी भी कस्बे या गांव में फड़ लगाकर छोटा- मोटा धंधा करने वाले व्यक्ति से बातचीत करने में ही मिल जायेगा जिसके पास ताजा अखबार भी मिलेगा। वह व्यक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प से लेकर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी तक की राजनीति के बारे में अपने सुगठित विचार व्यक्त करते हुए मिलेगा। मगर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि बिहार का समाज जातिगत आग्रहों से बुरी तरह बंधा हुआ है। ये जातिगत बन्धन हमें चुनाव के मौके पर साफ दिखाई देते हैं। हालांकि इसी राज्य से महात्मा गांधी ने चम्पारन के किसानों के बीच जाकर अपनी राजनीति को जनोन्मुख बताया था और नील की खेती के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा था।
वस्तुतः बिहार भारत की एेसी सांस्कृतिक विरासत का मालिक है जिसके तार चन्द्रगुप्त मौर्य उनके पोते सम्राट अशोक के शासन से जाकर जुड़ते हैं। प्रकृति ने भी इसे जमकर नवाजा है जिसकी वजह से रमणीक स्थलों की सजावट को भी अपने भीतर छिपाये बैठा है। मगर वर्तमान में बिहार राज्य शासन की दृष्टि से निचले पायदान पर खड़ा हुआ मिलता है। आर्थिक दृष्टि से यह और भी अधिक नीचे है। यहां के लोग राज्य की अर्थव्यवस्था से बेजार होकर ही भारत के अन्य राज्यों को भारी संख्या में पलायन करते हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत में जो भी विकास कार्य होता है उसमें बिहार के लोगों की भागीदारी जरूर होती है।
यह हकीकत है कि इस राज्य की अर्थव्यवस्था में पलायन करके दूसरे राज्यों में जाने वाले बिहारियों द्वारा भेज गये धन की भी प्रभावशाली भूमिका रहती है। यहां के लोग कर्मठ व थोड़े में गुजारा करने वाले माने जाते हैं। यह भी तथ्य है कि देश के सर्वोच्च सेवा दल आईएएस और आईपीएस में भी पिछले दो दशकों से बिहार का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है। इससे इस राज्य के युवा तबके की बुद्धि और सुजानता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। वर्तमान में प्रदेश की राजनीति वह नहीं है जो कभी सत्तर के दशक तक हुआ करती थी। पिछले बीस सालों में से बिहार वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चल रहा है। केवल एक साल वह मुख्यमन्त्री नहीं रहे। नीतीश कुमार ने इस दौरान अपनी राजनीति के कई रंग प्रस्तुत किये हैं। वह लगातार मुख्यमन्त्री इसलिए रहे कि उन्होंने संसदीय लोकतन्त्र में हुकूमत करने के नये-नये समीकरण बनाये जिसके चलते बिहार में उन्हीं की सत्ता रही।
बेशक इससे नीतीश कुमार के राजनैतिक चातुर्य का पता चलता है। मगर हाल-फिलहाल में उनके स्वास्थ्य को लेकर विभिन्न प्रकार की अफवाहें भी उड़ रही हैं तथा कहा जा रहा है कि वह जिस भाजपा के साथ पटना में गठबन्धन करके शासन चला रहे हैं उससे उनकी पार्टी जनता दल (यू) के रसातल में जाने की संभावना ज्यादा है क्योंकि आगामी नवम्बर महीने में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में जनता दल (यू) की सीटें 43 से गिर कर और भी नीचे जा सकती हैं।
राज्य विधानसभा में भाजपा की 75 सीटें हैं लेकिन नीतीश बाबू इस समस्या का निदान भाजपा के साथ हुकूमत में रहते ही निकालना चाहते हैं। इसकी वजह से उन्होंने अपने पुत्र निशान्त कुमार को बिना घोषणा किये ही राजनीति में प्रवेश करा दिया है। नीतीश बाबू एेसे नेता हैं जो मीडिया से बड़ी बेबाक सहृदयता के साथ मिलते हैं और हर सवाल का जवाब भी देते हैं। उनके दिल्ली में केन्द्रीय मन्त्री रहते उनसे अनेक बार भेंट हुई और हर मुलाकात में नीतीश बाबू अपने जमीनी ज्ञान से पहले से ज्यादा ज्ञानवान ही मिले। दरअसल नीतीश बाबू जेपी आन्दोलन में सक्रिय थे मगर उनकी असल पहचान सत्तर के दशक में स्व. चौधरी चरण सिंह ने की थी और अपनी पार्टी लोकदल की युवा शाखा युवा लोकदल का अध्यक्ष बनाया था।
नीतीश बाबू गांवों की पृष्ठ भूमि के उच्च शिक्षित नेता थे। उन्होंने बिहार की राजनीति में प्रमुख स्थान बनाने वाले श्री लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान के साथ टकराने का जब निश्चय किया तो वह केन्द्र में वाजपेयी सरकार में शामिल हुए हालांकि इसमें स्व. रामविलास पासवान भी थे। नीतीश बाबू ने समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज के साथ 1994 में समता पार्टी बनाई और बाद में वह भाजपा के नेतृत्व में एनडीए में शामिल हो गये। यह लिखना इसलिए जरूरी है कि नीतीश बाबू मूलतः समाजवादी हैं मगर भाजपा के साथ वह उसी प्रकार काम कर रहे हैं जिस तरह स्व. जार्ज फर्नांडीज ने किया था। उनके समाजवादी तेवरों से भाजपा को कभी कोई परेशानी नहीं हुई बल्कि उल्टे भाजपा ने उन्हें अपने लिए मूल्यवान सम्पत्ति माना और उनके नेतृत्व में राज्य में अपनी जड़ें जमाई। यह एक वास्तविकता है कि भाजपा के पास स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के बाद बिहार में केवल स्व. कैलाश पति मिश्रा को छोड़ कर अभी तक दूसरा सर्वमान्य नेता नहीं हुआ है। बेशक स्व. सुशील मोदी जरूर उभरे थे मगर वह जमीन पर कम और मीडिया और कागजों में ज्यादा रहते थे।
अतः नीतीश बाबू को भारतीय जनता पार्टी आसानी से नहीं छोड़ सकती है। यही वजह है कि नवम्बर में होने वाले प्रादेशिक चुनावों से पहले ही निशान्त बाबू ने कह दिया है उनके पिता को ही एनडीए को चुनाव में चेहरा बनाना होगा। राज्य की राजनीति में लालू जी के बीमार होने के बाद जिस तरह उनके पुत्र तेजस्वी यादव उभरे हैं उसी तरह नीतीश बाबू भी अपने पुत्र को देखना चाहते हैं। जनता दल (यू) में भी कोई दूसरा व्यक्ति नहीं उभरा है और पूरी पार्टी को नीतीश बाबू पर ही भरोसा है अतः नीतीश द्वारा अपने पुत्र को राजनीति में लाने का यह उपयुक्त समय माना जा रहा है। इस एक तीर से नीतीश बाबू कई शिकार एक साथ करना चाहते हैं। एक तो उनके पुत्र का राजनीति में पिछला कोई रिकार्ड नहीं है। वह पढ़ाई-लिखाई में भी तेज रहे हैं। उनके सक्रिय राजनीति में आने से बिहार की राजनीति दूसरी पीढ़ी के हाथ में चली जायेगी और अपने पिता के समान ही सौम्य व शालीन समझे जाने वाले निशान्त बाबू बिहार की राजनीति का रुख मोड़ देंगे।
राजनैतिक जानकारों का यह आंकलन गलत नहीं है। मगर बिहार के अलावा भी राजनीति में कर्नाटक में उठा पटक सुनाई पड़ रही है। राज्य में कांग्रेस की सरकार है और इसके उपमुख्यन्त्री डी.के. शिवकुमार जो अभी तक आलाकमान की आंख के तारे थे, पटरी से उतरते दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने संघ के करीबी माने जाने वाले धार्मिक गुरु जग्गी वासुदेव के पास जाकर नया विवाद छेड़ दिया है। इसे लेकर तरह- तरह की अटकलेें लगाई जा रही हैं। बिहार में कांग्रेस पार्टी जहां कमजोर मानी जाती है वहीं कर्नाटक में इसकी सरकार है । डीके शिवकुमार की छवि कांग्रेस के संकट मोचक की रही है। डर है कि अब वह खुद ही कहीं कोई नया संकट न खड़ा कर डालें। बिहार की तरह कर्नाटक की राजनीति भी स्व. देवराज अर्स के बाद उथल-पुथल भरी रही है। बिहार में तो पल्टी मारने के बादशाह नीतीश बाबू का शासन है वहीं कर्नाटक में भी जनता दल के ही नेता एच.डी. कुमारस्वामी भी पलटी मारने में सिद्धहस्त माने जाते हैं। डर यह है कि पलटी मारने की राजनीति कहीं कर्नाटक में भी कोई नया गुल न खिला दे।