नीतीश कुमार क्यों जरूरी?
बिहार में लगातार दसवीं बार मुख्यमन्त्री पद की शपथ लेने वाले श्री नीतीश कुमार ने जिस प्रकार भाजपा की मदद से चुनावों में सफलता प्राप्त की है उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राज्य की राजनीति का वह ऐसा स्थिरांक (कांसटेंट) हैं जिसके दोनों ओर सत्ता और विपक्ष की राजनीति चक्कर लगाती रहती है। दरअसल बिहार की राजनीति ने यह सिद्ध कर दिया है कि नीतीश बाबू के बिना राज्य में किसी स्थिर सरकार का गठन नहीं हो सकता। बिहार में क्षेत्रीय दलों का बेशक प्रभाव है मगर सत्ता पर काबिज होने के लिए इन्हें किसी राष्ट्रीय दल की जरूरत पड़ती है। राज्य में भाजपा व नीतीश बाबू की पार्टी जद(यू) के साथ तीन अन्य क्षेत्रीय दलों की जरूरत भी पड़ी है जो लोकजन शक्ति पार्टी, हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा (हम) व राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी हैं जिनके मुखिया क्रमशः चिराग पासवान, जीतन राम मांझी व उपेन्द्र कुशवाहा हैं।
ये तीनों दल जाति आधारित दल माने जाते हैं जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में अच्छा खासा दबदबा है। पूरे एनडीए को वर्तमान चुनावों में 47 प्रतिशत वोट मिले हैं मगर इसका लाभ विपक्ष नहीं ले पाया है और इंडिया या महागठबन्धन के खाते में संयुक्त वोटों का प्रतिशत 40 से भी कम रहा है। दोनों गठबन्धनों के खाते में बड़ा अन्तर होने की वजह से एनडीए को तूफानी विजय मिली है और 243 सदस्यीय विधानसभा में 202 सीटें प्राप्त हुई हैं जबकि महागठबन्धन को 35 सीटें ही मिल पाईं। विपक्ष की इतनी बड़ी पराजय का राज यही है कि इसके गठबन्धन में शामिल राजनीतिक दलों को जनता का अपेक्षित समर्थन नहीं मिल सका जिसकी वजह से महागठबन्धन को चौंकाने वाली पराजय का सामना करना पड़ा। विपक्ष की इस करारी हार का मतलब है कि बिहार के लोगों ने श्री नीतीश कुमार व श्री नरेन्द्र मोदी की जुगल-जोड़ी पर अपना स्नेह बरसाया।
बेशक राजनीति कोई गणित नहीं होता मगर यह रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) जरूर होती है क्योंकि इसके अनुसार राजनीतिक दलों को जय-पराजय का सामना करना पड़ता है। राजनीति में यह रसायन विज्ञान की यौगिक क्रियाओं पर निर्भर करता है कि सामाजिक संरचना के कौन-कौन से पदार्थ आपस में जुड़कर राजनीतिक दलों की सत्ता की समीकरण बनाते हैं। नीतीश बाबू विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं इसलिए वह भाजपा के साथ अपनी पार्टी के समीकरणों को अच्छी तरह समझते हैं। एनडीए की शानदार जीत का अर्थ भी यही है कि जमीन पर लोगों ने स्वयं वे गठबन्धन बनाये जो संसदीय लोकतन्त्र प्रणाली में विजय की गारंटी होते हैं। इसलिए नीतीश बाबू ने अपने मन्त्रिमंडल में जिस प्रकार सामाजिक ढांचे का प्रतिबिम्ब बनाया है वह जीत से निकली समीकरणों का ही प्रभाव है। गुरुवार को श्री नीतीश कुमार के साथ ही 26 अन्य मन्त्रियों ने भी शपथ ली। जिनमें 9 जदयू) कोटे से व 14 भाजपा के कोटे से मन्त्री बनाये गये और दो लोक जनशक्ति पार्टी के व एक-एक मन्त्री हम व रालोपा के बनाये गये।
इनमें आठ कथित ऊंची जाति के लोग हैं जबकि पिछड़े व अति पिछड़े समाज के 14 मन्त्री हैं और पांच दलित मन्त्री हैं, जबकि एक मुस्लिम जद(यू) विधायक को भी मन्त्री बनाया गया है। इस समीकरण से ही स्पष्ट है कि बिहार के चुनावों में एनडीए को सफलता जमीन पर मतदाताओं के गठबन्धन ने ही दिलाई। अतः यह निश्चित होकर कहा जा सकता है कि एनडीए का ‘दल समागम’ 47 प्रतिशत वोटों के साथ विजयी मुद्रा में रहा। राजनीति में ऐसे सामाजिक समीकरण तभी संभव होते हैं जब लोगों में भी इनका प्रभाव पड़ने लगता है। यह गठबन्धन स्वतः स्फूर्त होता है लेकिन जमीन पर उतरने की इसकी एक शर्त होती है। वह शर्त यह होती है राजनीतिज्ञों के गले से वह आवाज निकले जो जनता के दिलो-दिमाग में बसी होती है। इस मामले में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का कोई जवाब नहीं है। वह भारत के हर क्षेत्र की सामाजिक संरचना से अच्छी तरह वाकिफ लगते हैं अतः उनकी पार्टी भाजपा चुनाव से पहले ही ऐसे समीकरण गढ़ लेती है।
श्री मोदी व उनकी पार्टी के अन्य नेताओं ने 1990 से 2005 तक बिहार में चले लालू राज को खुलकर जंगल राज बताया और लोगों से एनडीए को समर्थन देने की अपील की। उन्होंने श्री नीतीश कुमार के पिछले 20 वर्ष के शासन को सुशासन की संज्ञा दी और इसकी तुलना लालू राज से करके लोगों को सोचने के लिए मजबूर किया कि वे अपने व अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचे हैं। कथित जंगल राज का प्रधानमन्त्री के मुख से विवरण सुनकर लोग यह सोचने को मजबूर हो गये कि उनका वोट सुशासन के पक्ष में ही जाना चाहिए। अब जरा 2010 के चुनावों को याद कीजिये जिनमें नीतीश बाबू की पार्टी को अभी तक के इतिहास में अपार सफलता प्राप्त हुई थी। 2010 के चुनावों में नीतीश बाबू की पार्टी को 115 सीटें मिली थीं और भाजपा को 91 सीटें। तब जाहिर है कि मतदाता पुनरीक्षण का काम चुनाव आयोग ने नहीं कराया था।
इसके बावजूद भाजपा व जद(यू) अपने शीर्ष पर थे। अतः चुनाव आयोग की आलोचना सकारात्मक तरीके से ही होनी चाहिए। नीतिश बाबू ने अपने मन्त्रिमंडल में तीन महिला विधायकों को भी जगह दी है। इससे पता चलता है कि नीतीश बाबू सामाजिक संरचना के मुद्दे पर कितना सजग हैं और अपने कथित बीमार होने की अफवाहों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। उन्होंने अपने मन्त्रिमंडल में 12 नये लोगों को स्थान दिया है जिनमें नौ सदस्य पहली बार मन्त्री बन रहे हैं। इस समीकरण को देखकर लगता है कि नीतीश बाबू इस बार किसी प्रकार का जोखिम उठाने की मुद्रा में नहीं हैं।