जितनी आबादी उतना हक़ ?
केन्द्रीय सरकार ने दो चरणों में जनगणना जिसमें जाति जनगणना भी शामिल होंगी…
केन्द्रीय सरकार ने दो चरणों में जनगणना जिसमें जाति जनगणना भी शामिल होंगी, की घोषणा की है। उम्मीद है कि पूरी प्रक्रिया तीन साल में पूरी हो जाएगी। क्या परिणाम 2029 के चुनाव से पहले सामने आ जाएगा, यह आने वाले समय का सबसे बड़ा प्रश्न होगा। जनगणना क्यों ज़रूरी है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि विकास आंकड़ों पर आधारित किया जाता है और मूलभूत आंकड़ा जनसंख्या और उसका स्वरूप है। इस बार आर्थिक स्थिति से जुड़ी जानकारी के अलावा धर्म और जाति के बारे भी जानकारी एकत्रित की जाएगी। यह जनगणना छह साल की देरी से हो रही है। सरकार का बहाना था कि कोविड है पर कोविड 2023 के मध्य तक समाप्त हो चुका था। सरकार मामला लटकाती गई जिसके पीछे भाजपा का अपना असमंजस था कि जाति जनगणना के बारे क्या किया जाए? भाजपा इसे बिल्कुल नहीं चाहती थी। एक तरफ़ राहुल गांधी का दबाव था तो दूसरी तरफ़ अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने की ज़रूरत थी। आगे बिहार के चुनाव हैं और उससे पहले भाजपा राहुल गांधी और कांग्रेस का हथियार छीनना चाहती थी। राहुल गांधी तो शेखी बघार ही रहे हैं कि केन्द्र सरकार डर गई और जाति जनगणना के लिए तैयार हो गए। पर इसके क्या दुष्परिणाम निकलेंगे, और ज़रूर निकलेंगे, यह समय बताएगा।
समाज को और बांटने से देश का भारी अहित होगा। राजनीति ने राहुल गांधी को अंधा कर दिया और भाजपा कमजोर निकली। यह अंग्रेजों के डिवाइड एंड रूल का नया संस्करण है। राहुल गांधी उस नीति पर चल रहे हैं, जो उनके पूर्वजों ने रद्द कर दी थी। अंतिम जाति जनगणना 1931 में हुई थी। उस समय अविभाजित भारत की जनसंख्या 35 करोड़ थी। तब 4147 जातियां रिकाॅर्ड की गईं। उसके बाद जाति जनगणना 2011 को छोड़कर नहीं हुई थी। जवाहर लाल जी के समय, इंदिरा जी के समय जो जनगणना हुई उनमें जाति को शामिल नहीं किया गया। क्यों? क्या राहुल गांधी ने यह सवाल खुद से किया है ? क्या जवाहर लाल जी या इंदिरा जी को सामाजिक न्याय की चिन्ता नहीं थी? उन्होंने जाति जनगणना इसलिए नहीं करवाई, क्योंकि वह जानते थे कि इससे तनाव पैदा होगा और विकास को जाति में नहीं बांटना चाहिए। जब देश तरक्की करेगा तो सब ऊपर उठेंगे। यही बात प्रधानमंत्री मोदी भी कहते रहे। 2011 में जाति जनगणना की गई। उस वक्त यूपीए की सरकार थी जिसके प्रधानमंत्री कांग्रेस के मनमोहन सिंह थे और पीछे से सोनिया गांधी चला रही थीं। बताया जाता है कि जनगणना से उन्हें पता चला कि देश में 38 लाख जातियां,उपजातियां और जनजातियां हैं। यह आंकड़ा इतना परेशान करने वाला था कि सरकार ने जाति जनगणना का आंकड़ा ही सार्वजनिक नहीं किया।
वह समझदार लोग थे नादान नहीं थे। जानते थे कि इससे देश में बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। पर उसी रास्ते पर राहुल गांधी ने देश को धकेल दिया। देश जात-पात की बीमारी से उभर रहा था कि फिर फंसा दिया गया। इतिहास राहुल गांधी को माफ़ नहीं करेगा। वह शायद समझते हैं कि भाजपा के हिन्दुत्व की काट केवल जाति की राजनीति है। पर यह और ख़तरनाक रास्ता है जो समाज का और अधिक जाति विभाजन कर देगा। इंदिरा गांधी ने तो नारा दिया था, ‘न जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’। पर राहुल गांधी का सब कुछ जात-पात है। उनका नारा है जितनी आबादी उतना हक़। यह नारा आकर्षक बहुत है पर ज़मीन पर कैसे लागू होगा? क्या सब कुछ संख्या के अनुसार होगा? क्या जाति आधारित आरक्षण को और बढ़ाया जाएगा? क्या देश में मैरिट की कोई जगह नहीं रहेगी? आरटिफिशल इंटेलिजेंस के जमाने में हम मैरिट को पीछे डालने का जोखिम ले भी सकते हैं? मुक़ाबला चीन से है। हमारे सामने जो चुनौतियां हैं वह असाधारण योग्यता की मांग करती हैं। इस वक्त तो, जैसे पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने भी कहा है, हमारी नीतियां न सामाजिक न्याय दे रही है न ही अच्छा शासन दे रही है। वह लिखते हैं, “चीन की व्यावहारिक नीतियों के कारण उनके पास प्रतिभा और विद्वता का भंडार है जो केवल अमेरिका से कम है। हम बहुत पीछे रह गए हैं”। अगर इस खाई को पाटना है तो श्रेष्ठता को प्रोत्साहित करना होगा। जाति राजनीति इसके उलट चल रही है। सबसे बड़ा प्रमाण बिहार है जहां जाति जनगणना हो चुकी है। दशकों से वहां जाति की राजनीति चल रही है पर बिहार स्थाई पिछड़ा प्रदेश बन चुका है।
आपरेशन सिंदूर कई सबक़ सिखा गया कि आने वाले युद्ध अब ज़मीन पर कम और टैक्नालोजी से अधिक लड़ें जाएंगे? दक्षिण कोरिया तो सैनिक इस्तेमाल के लिए रोबोट तैयार कर रहा है। क्या इस बदल रहे जमाने और एआई का मुक़ाबला हम और कोटे से करेंगे? प्रधानमंत्री मोदी की धारणा है कि देश में केवल चार जातियां हैं, गरीब, युवा, किसान और महिलाएं। यह खूब सूरत इज़हार है। केन्द्रीय मंत्री किरण िरजीजू समेत कई केन्द्रीय मंत्रियों ने तो दो वर्ष पहले चेतावनी दी थी कि राहुल गांधी की ‘जितनी आबादी उतना हक़’ की मांग ‘भारत की हत्या’ कर देगा। प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा था कि कांग्रेस ‘आग से खेल रही है’। उनका सवाल था कि क्या बराबर हक़ का मतलब होगा कि अल्पसंख्यक और दक्षिण के प्रांतों के साथ धक्का किया जाएगा? योगी आदित्य नाथ कह चुकें हैं कि ‘जातिगत जनगणना करवाने वाले लोग देश को बांटना चाहते हैं’। मैं इन सज्जनों से बिल्कुल सहमत हूं। इससे राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी और विकास की दौड़ में हम पिछड़ जाएंगे, पर आज यही भाजपा जाति जनगणना को मास्टर स्ट्रोक पेश कर रही है। जो जातिविहीन हिन्दुत्व की वकालत करते रहे वह आज जाति जनगणना को प्रोग्रेसिव कदम बता रहे हैं, क्योंकि आगे बिहार के चुनाव हैं। पर योगी जी का ‘बंटेंगे तो कटेंगे’, का क्या बनेगा? एक और बड़ी समस्या डीलिमिटेशन जिसे परिसीमन कहा जाता है, से भी होगी। पर यह संवैधानिक मजबूरी है। उत्तर और दक्षिण के प्रदेशों में जनसंख्या का अनुपात गड़बड़ा गया है। दक्षिण के प्रदेशों की जनसंख्या कम हो रही है।
इस वक्त दक्षिण के लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में औसतन 21 लाख लोग हैं, उत्तर भारत में यह संख्या 31 लाख है और पूर्व में 28 लाख। क़ानून के अनुसार 2026 के बाद की जनसंख्या के अनुसार संसद में सीटें तय की जानी है। दक्षिण के प्रदेशों को आशंका है कि उनकी सीटें कम हो जाएगी और उत्तर भारत, विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार का राष्ट्रीय राजनीति में वर्चस्व बढ़ जाएगा। वह कहते हैं कि उन्हें जनसंख्या पर नियंत्रण करने की सजा नहीं मिलनी चाहिए। वह चाहते हैं कि संसद की सीटें वर्तमान पर ही फ्रीज कर दी जानी चाहिए। यह विवाद देश को परेशान कर सकता है और उत्तर बनाम दक्षिण स्थिति बन सकती है। अगर ‘जितनी आबादी उतना हक़’ वाला फ़ार्मूला लगाया जाए तो दक्षिण की सीटें निश्चित तौर पर कम होंगी। और यह वह प्रदेश है जहां कांग्रेस का कुछ आधार है। इस मामले को बहुत संवेदनशीलता से निपटना होगा।
जो पिछड़े हैं उन्हें आगे लाने के लिए शिक्षा का सुधार बहुत ज़रूरी है। पर इस तरफ़ कोई देखेगा नहीं, फिर बिहार की मिसाल है। यहां के युवा कोटा या दूसरी जगह कोचिंग लेने क्यों जाते हैं ? लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे जाति शिरोमणि बिहार के शिक्षा ढांचे को सही क्यों नहीं कर सके? योगी आदित्य नाथ उत्तर प्रदेश को सुधारने में लगे हैं पर बिहार में कोई हरकत नज़र नहीं आती। चुनाव से पहले लोगों को जाति का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है और जब जातियों की गिनती हो जाएगी तो फिर क्या होगा? हज़ारों जातियां और उपजातियां हैं, इन्हें कैसे सम्भाला जाएगा? क्या हम सामाजिक दलदल में तो फंस नहीं जाएंगें? चंद सरकारी नौकरियों को लेकर घमासान होगा। सर फूटेंगे? हर कोई आबादी के अनुसार हक़ मांगेगा जो देना सम्भव नहीं होगा।
कोटा बढ़ाने की मांग होगी। सवर्ण जातियां अपना रोना रोएंगी। सामाजिक न्याय मंत्रालय में सचिव रहे आर. सुब्रमण्यम कहते हैं, “वंचित समाज को सामाजिक न्याय देने के लिए जाति जनगणना की ज़रूरत नहीं है। जाति ने भारतीय समाज को बांट दिया है और राष्ट्र की अवधारणा को कमजोर किया है…इसने भारी बहुमत को केवल अभाग्य दिया है। इससे समाज में विभाजन बढ़ेगा”। पर हम इस ओर बेधड़क बढ़ रहे हैं। लालू प्रसाद यादव का कहना है कि “बहुत कुछ बाक़ी है। हम इन्हें (संघ-भाजपा) नचाते रहेंगे”। इस पर तो आपत्ति नहीं पर वह देश को क्यों नचा रहें हैं? अगर इनका फ़ार्मूला सही होता तो गाड़ियां भर-भर कर लोग बिहार छोड़ने के लिए मजबूर न होते और क्या हमारे नए राजनीतिक क्रान्तिकारी राहुलजी का ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का फ़ार्मूले प्राइवेट सेक्टर पर भी लागू होगा?
आख़िर औचित्य तो वही बनता है। डाक्टर, जज, इंजीनियर, जरनैल, अफ़सर, सीईओ, सब आबादी के अनुसार बनेंगे? एप्पल जैसी कम्पनियां भारत में निवेशकर रही हैं, क्योंकि यहां प्रतिभा बहुत है। क्या अब उन्हें कहा जाएगा कि जाति के अनुसार भर्ती करो? और फिर राजनीति भी अछूती क्यों रहे? जितनी आबादी उतना हक। सबसे पहले तो कांग्रेस से शुरू होना चाहिए। गांधी परिवार को त्याग की मिसाल स्थापित करनी पड़ेगी क्योंकि शिखर पर उनका ‘हक़’ तो आबादी की किसी कसौटी से नहीं बनता।