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महाराजा हरिसिंह का रवैया

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09:15 AM Oct 05, 2018 IST | Desk Team

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होते-होते वह दिन भी आया जब भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्र देश घोषित कर दिया गया मगर इसके साथ ही अंग्रेजों ने एक दिन पहले 14 अगस्त काे भारत के पश्चिमी व पूर्वी प्रान्तों की मुस्लिम बहुल आबादी को देखते हुए नया देश पाकिस्तान बनाने की घोषणा कर दी। ब्रिटिश सरकार ने एेलान किया कि भारत के दो टुकड़े किए जाते हैं जो भारत व पाकिस्तान के नाम से जाने जाएंगे। इन दोनों की स्थिति स्वतन्त्र राष्ट्र (डोमिनियन स्टेट) की होगी लेकिन इसके साथ ही ब्रिटिश हुकूमत ने एेलान किया कि कानूनी तौर पर वह हुकूमत उन सभी राजे-रजवाड़ों व नवाबों को उनकी रियासतें वापस करके देगी जिन्हें उसने अपने नियन्त्रण में लिया था। इस प्रकार भारत व पाकिस्तान दो देश बनने के बाद इन रियासतों के पास विकल्प खुला रखा गया कि वे चाहें तो किसी भी एक देश का हिस्सा बनने का फैसला कर सकते हैं और चाहें तो स्वतन्त्र भी रह सकते हैं।

अंग्रेजों ने भारत व पाकिस्तान की सीमाएं तय कर दी थीं और इनके अन्तर्गत आने वाली रियासतों के सामने भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में अपने विलय का विकल्प छोड़ दिया था। यह बहुत चालाकी भरा और भारत को पुराने दौर में ही जीते रहना छोड़ने का निर्णय था। भारतीय भौगोलिक सीमा में साढ़े पांच सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतें आती थीं। सरदार पटेल जो कि कैबिनेट मिशन में गृह विभाग पहले से ही देख रहे थे, इस समस्या से वाकिफ थे। इसके साथ ही संविधान सभा में भी राजा-महाराजाओं का थोड़ा प्रतिनिधित्व था। संविधान सभा स्वतन्त्र भारत का पाकिस्तान बन जाने की रोशनी में नए गणतन्त्र भारत का एेतिहासिक कानूनी दस्तावेज लिख रही थी। अतः 15 अगस्त 1947 से पहले सरदार पटेल ने सभी देशी राजे-रजवाड़ों को भारत में शामिल होने के लिए मना लिया परन्तु न तो हैदराबाद रियासत के निजाम राजी हुए और न ही जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह।

सरदार पटेल ने सेना के ‘आपरेशन पोलों’ को अंजाम देकर हैदराबाद के निजाम के घुटने टिकवा लिए परन्तु महाराजा हरिसिंह ने इस दौरान पाकिस्तान बन जाने पर इसके साथ एेसा यथास्थिति बरकरार रखने का (स्टैंड स्टिल) समझौता किया जिससे वह भारत व पाकिस्तान दोनों के बीच उदासीन राज्य (बफर स्टेट) बने रहें। इस समझौते के तहत पाकिस्तान के साथ जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध इसके वजूद में आने से पहले जैसे ही बने रहने थे। उन्होंने घोषणा की कि उनकी रियासत एक स्वतन्त्र राज रहेगी जो भारत व पाकिस्तान किसी का हिस्सा नहीं बनेगी। पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की कमजोर सैनिक स्थिति को भांपते हुए सितम्बर 1947 के महीने से ही इस राज्य के सीमावर्ती इलाकों में फौजी हरकतें तेज कर दी थीं। इस राज्य की सीमाओं को तोड़ते हुए उसने अपनी तरफ से हथियारबन्द कबायलियों को सेना के साथ भेजा और बाकायदा आक्रमण कर दिया।

महाराजा हरिसिंह को तब पाकिस्तान की असलियत का अन्दाजा हुआ और वह श्रीनगर छोड़कर जम्मू आ गए क्योंकि तब तक पाकिस्तानी फौजें श्रीनगर से कुछ किलोमीटर की दूरी तक रह गई थीं। पाकिस्तानी फौजों ने गिलगित बाल्टिस्तान से लेकर कश्मीर घाटी का वह पूरा इलाका हथिया लिया था जिसमें सीधा रास्ता अफगानिस्तान को जोड़ता था। महाराजा हरिसिंह को तब आभास हुआ कि पाकिस्तान के साथ उनके राज्य की सीमाएं लगे होने की वजह से अपनी फौज के बूते पर अपनी रियासत की सुरक्षा कभी नहीं कर सकते जबकि दूसरी ओर भारत से सीमाएं लगी होने से उन्हें किसी प्रकार का खतरा नहीं है। उधर राज्य के जनप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने भी पाकिस्तान के इस आक्रमण का विरोध किया और महाराजा को सलाह दी कि वह भारत से मदद लें। तब महाराजा ने अन्तिम ब्रिटिश वायसराय लार्ड माऊंटबेटन को अक्तूबर 1947 में खत लिखा कि वह अपनी पूरी रियासत का विलय कुछ विशेष शर्तों के साथ भारतीय संघ में करने के लिए तैयार हैं बशर्ते कि भारत उन्हें पाकिस्तान के आक्रमण से बचाए।

लार्ड माऊंटबेटन ने तब प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू से इस बारे में सलाह ली और पं. नेहरू इसके लिए तुरन्त तैयार हो गए। उन्होंने तब महात्मा गांधी से भी इस बारे में जिक्र किया और बापू ने अपने जीवन में पहली बार फौजी आक्रमण का जवाब उसी भाषा में देने का समर्थन करते हुए कहा कि एक फौजी का कर्तव्य सीमा पर अपने देश की सुरक्षा में लड़ने का होता है। भारत को तुरन्त फौज भेजनी चाहिए। भारतीय फौज ने पाकिस्तानी फौजों को खदेड़ना शुरू कर दिया। पाकिस्तानी कबायलियों और फौजियों ने जम्मू-कश्मीर में आक्रमण के समय भारी तबाही मचाई थी और गांव के गांव जला कर महिलाओं से बलात्कार तक किया था। भारतीय फौज ने इस चीत्कार को पूरी तरह बन्द कर दिया और जम्मू-कश्मीर के लोगों को सुरक्षा दी। (क्रमशः)

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