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आजाद का छोड़ा हुआ सवाल?

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08:15 AM Oct 20, 2018 IST | Desk Team

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हम लगातार इस गफलत में स्वयं ही अपनी मजबूत नींव को कमजोर करते जा रहे हैं कि भारत के समूचे लोगों को किसी एक विशेष जीवनशैली की विशेषताओं के दायरे में कैद करके देखा जा सकता है। भारत की मजबूती इसकी आर्थिक ताकत में इस कदर छिपी हुई थी कि पूरी दुनिया के देशों को यह अपने पिछड़ा होने का एहसास कराती थी। अतः यह बेवजह नहीं है कि अंग्रेजों ने इस देश को अपना गुलाम बनाने के लिए सबसे पहले इसकी इसी रीढ़ को तोड़ा औऱ इसके लिए उन्होंने इसके भीतर मौजूद धार्मिक व क्षेत्रीय विविधता को जरिया बना कर आपस में ही यहां के राजे-रजवाड़ों और रियासतों को लड़वाया जिससे ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के हर रियासत मंे ‘रेजिडेंट बहादुर’ का रुतबा और एहतराम बिना किसी विरोध के कायम रह सके।

इसके प्रमाण में तथ्य यह है कि जब 1756 में लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को छल से मीर जाफर की गद्दारी की बदौलत हराया तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के लगभग था। बंगाल पर कब्जा करके अंग्रेजों के हाथ में भारत विजय का नुस्खा आ चुका था क्योंकि तब तक दिल्ली की मुगल सल्तनत पूरी तरह कमजोर हो चुकी थी और शहंशाह ‘शाहजहां’ के बनाये गये हीरे-जवाहरात से जड़े हुए बेशकीमती राजसी मयूर सिंहासन ‘तख्त-ए-ताऊस’ का ईरान का आक्रमणकारी नादिरशाह 1740 में ही लेकर जा चुका था वह ‘कोहेनूर हीरा’ भी तब के कमजोर मुगल सम्राट ‘मोहम्मद शाह’ से ले जा चुका था। इसके बावजूद यदि 1756 में भारत का विश्व व्यापार में हिस्सा 25 प्रतिशत बना हुआ था तो वह उसकी उस टूटती हुई एकल ताकत का सबूत था जो मुगलों के शासन के दौरान इसकी शान बनी हुई थी।

लेकिन अंग्रेजों ने इसी ताकत को जब तोड़ना शुरू किया तो धीरे-धीरे इसके उद्योग धन्धों और व्यापारिक व वाणिज्यिक गतिविधियों को अपना निशाना बनाया और इंग्लैंड या मेनचेस्टर में बने माल से भारत के बाजारों को पाटना शुरू किया तथा आधुनिकतम टैक्नोलोजी व विज्ञान की प्रगति से हुए उन्नयन से भारत के बाजारों को महरूम रखा। मगर यह काम अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था इसके लिए उन्होंने यहां रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम नागरिकों के बीच दरारें बढ़ानी शुरू कीं और धर्म के आधार पर सत्ता की रियायतें तक जारी करनी शुरू कर दीं। इस क्रम में अंग्रेजों ने हर उस देशी रियासत को अपने छल-बल से ढहा दिया जिसका नजरिया आधुनिक था और जो वैज्ञानिक विधि द्वारा शासन चलाना चाहते थे। इसमें सबसे प्रमुख नाम शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की पंजाब रियासत का आता है जिसका दायरा आगरा से लेकर काबूल एक तरफ दक्षिण-पश्चिम में मराठा मसनबदारों को अंग्रेज अपने साथ रखे हुए थे और उत्तर भारत में कमजोर होती मुगल सल्तनत के खिलाफ इनकी हिमायत करते हुए भारत की देशी रियासतों को हिन्दू-मुसलमान के आधार पर इस तरह तकसीम करते जा रहे थे कि भारत में ये दोनों कौमें एक दूसरे के खिलाफ खड़ी रहें और अपनी आर्थिक ताकत को भूल जायें।

यह क्रम 1846 तक महाराजा रणजीत सिंह की रियासत को हड़पने तक धीमी गति से चला, मगर तब तक भारत की मुद्रा का आकार व रंग बदल चुका था। रुपये और सिक्कों पर इंगलैंड के सम्राट की मुहर आ चुकी थी। इसका एक चरण 1857 मंे पूरा तब पूरा हुआ जब मुगल शहंशाह बहादुर शाह जफर को कैद करके अंग्रेजों ने अपना फरमान जारी करना शुरू कर दिया और 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हिन्दोस्तान की सारी सल्तनत इंगलैंड की महारानी विक्टोरिया को विधिवत तरीके से बेच दी। इसके बाद का दौर 1947 तक हिन्दू-मुस्लिम बैरभाव जगाने का आक्रमणकारी दौर था। इसी वजह से महात्मा गांधी ने 1916-17 में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजों के किलाफ चलाये गये खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया था जिससे भारत में अंग्रेजों के विरुद्द हिन्दू व मुसलमानों का लक्ष्य उनके निजाम से मुक्ति पाना हो सके। इसके बावजूद 1947 में धर्म के नाम पर ही अंग्रेजों ने भारत के दो टुकड़े कर दिये और पाकिस्तान को इससे अलग कर दिया। लेकिन 1947 में ही भारत के लोगों ने शपथ ली कि वे आपस में मिल कर बिना किसी भेदभाव के एक रहेंगे और इस मुल्क की तरक्की मंे कन्धे से कन्धा मिला कर काम करेंगे।

उनकी सांझी विरासत को मजहब के नाम पर बांट कर अंग्रेजों ने मुहम्मद अली जिन्ना को जिस तरह अपना मोहरा बनाया उसका विरोध करने वाले लोगों मे मुसलमानों की संख्या भी कम नहीं थी और उन्होंने फैसला किया था कि वे अपने मादरे वतन को नहीं छोङेंगे। अतः यह बेमतलब नहीं था कि पाकिस्तान से भी ज्यादा मुसलमानों की संख्या भारत में थी और आज भी है। यह भी हकीकत है कि 1947 के बाद से भारत के मुसलमानों ने अपनी रहनुमाई किसी अपने ही धर्म के नेता के हाथ में नहीं दी और उनकी रहबरी हिन्दू नेताओं ने ही की। यह सब इतिहास लिखने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि कांग्रेस के नेता श्री गुलाम नबी आजाद ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक समारोह में कहा कि 2014 से अब तक यह फर्क आ चुका है कि अब उन्हें उन्हीं की पार्टी के हिन्दू चुनावी प्रत्याशी चुनाव प्रचार में बुलाने में संकोच करने लगे हैं। आजाद राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं। उनके कथन को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसका राजनीतिक लाभ उठाने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि यदि यह हकीकत है तो भारत को बजाये आगे ले जाने के पीछे की तरफ धकेल रही है। हमंे सोचना होगा कि लोकतन्त्रीय भारत में हम इस मुकाम पर पहुंचने से पहले आत्म विश्लेषण क्यों नहीं कर रहे हैं?

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