मुस्करा रही होगी बाबा साहब की आत्मा
‘स्माइलिंग बुद्धा’ की तर्ज पर अब बाबा साहब अम्बेडकर की आत्मा भी मुस्करा…
‘स्माइलिंग बुद्धा’ की तर्ज पर अब बाबा साहब अम्बेडकर की आत्मा भी मुस्करा रही होगी अपने देश के राजनेताओं पर। उनको भारतीय संविधान का मसीहा घोषित करने वालों में अब देश के सभी राजनैतिक दलों में होड़ लगी है। यह होड़ सिर्फ उनकी 134वीं जयंती पर उनका महिमा-मंडन के लिए नहीं है, यह होड़ एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की है।
बाबा साहब की आत्मा मुस्करा रही है। ये वही नेतागण हैं जिनकी पहली पीढ़ी ने उन्हें दो बार लोकसभा चुनाव में पराजित किया था। अपने समय के इस शिखर पुरुष को इतनी भी फुर्सत नहीं थी कि वह अपने आलोचकों से जूझते। उनके पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या 35000 से भी अधिक थी। वह अर्थशास्त्र में विदेश से पीएचडी करने वाले पहले भारतीय थे। वह तब भी अपने देशवासियों पर मुस्कराए होंगे जब संविधान का प्रारूप उनसे तैयार कराने वालों ने ही वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव में उन्हें उत्तरी मुम्बई से हरा दिया था।
‘भारत रत्न’ के प्रश्न पर उनकी आत्मा हम लोगों की कथित दूरदर्शिता पर मुस्कराई तो होगी। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू का निधन 1964 में हुआ था, मगर उन्हें ‘भारत रत्न’ का सम्मान 1955 में ही दे दिया गया था। श्रीमती गांधी को यह सम्मान 1971 में ही मिल गया था, जबकि उन्होंने अंतिम सांस 1984 में ली थी। श्री राजीव गांधी को 1991 में ‘भारत रत्न’ दे दिया गया। मगर बाबा साहब को यह सम्मान 1990 में निधन के 34 वर्ष बाद ही दिया जा सका था।
तो क्या यह माना जाए कि कुछ नेताओं, बड़े लोग संवाद का सलीका भूल चुके हैं? संसद के लोग सड़क पर और सड़क के दृश्य भीतर, तो क्या मतलब निकाला जाए। निर्वाचित सांसद, सड़क पर अपने सियासी हिसाब-किताब चुकता नहीं कर सकते। इस खींचतान में बाबा साहब अम्बेडकर की मर्यादाओं को भी नहीं बख्शा।
कभी-कभी लगता है बाबा साहब की आत्मा इस देश की सर्वाधिक व्यग्र एवं व्यथित आत्माओं में शामिल होगी। बचपन व यौवन में सामाजिक उत्पीड़न, राजनैतिक क्षेत्र में अपनों द्वारा ही नपी- तुली साजि़शों के तहत मिली चुनावी पराजय और फिर उसके बाद उनकी विरासत को लेकर धक्का-मुक्की, बवाल व बाहुबल का सहारा, ये सब शर्मनाक है।
दरअसल अधिकांश सियासी दामन पिछले 78 वर्षों में दागों से भरे हैं। प्रतिपक्ष जिस लोकतंत्र व संविधान की रक्षा का तूफान उठाता है, वहीं मुख्य प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के पास आपातकाल-1975 के पक्ष में कोई दलील नहीं। इतिहास की यही तो मुसीबत है कि वहां तथ्यों की इबारतें ‘लौहो कलम’ से दर्ज हो चुकी होती हैं। इसी प्रतिपक्ष के कर्णधारों से बाबा साहब को किस तरह अपमानित एवं पराजित होना पड़ा था, वह भी वक्त की दीवार पर लिखा है। अब प्रतिपक्ष उन्हीं सवालों पर सत्तापक्ष को कठघरे में खड़ा करना चाहता है, जिन सवालों पर वर्ष 1975 से उसे कठघरे में रहना पड़ा है।
हमारे संविधान के पावन दस्तावेज के जनक बाबा साहब को दो बार चुनावों में किसने हराया था? जिन बाबा साहब को संसद में जनप्रतिनिधि के रूप में प्रवेश नहीं करने दिया गया, अब उनके नाम पर वोट-बैंक खड़ा करने के लिए मशक्कत में जुटे हैं। अब यह धक्कमपेल पुलिस थानों में पहुंच गई है और दिखाई यही दे रहा है कि यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। हमारे देश में बाबा साहब की लगभग उतनी ही प्रतिमाएं लगी हैं जितनी गांधी बाबा की या शहीदे आज़म भगत सिंह की।
हकीकत यह भी है कि हमारे इसी लोकतांत्रिक परिवेश में हमारे तत्कालीन नेताओं ने दो बार बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर को संसद की दहलीज पर चढ़ने नहीं दिया। उन्हें दो बार लोकसभा के चुनाव में बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा था। दोनों बार बाबा साहब के खिलाफ चुनावी रैलियों के प्रमुख वक्ता स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू थे।
भारतीय संविधान के निर्माता माने जाने वाले बाबा साहब ने पहली बार 1952 में उत्तर मध्य बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था। उनके खिलाफ कांग्रेस ने उन्हीं के निजी सहायक को खड़ा कर दिया था और उस शख्स नारायण काजरोलकर के पक्ष में चुनावी सभा को सम्बोधित करने स्वयं जवाहरलाल नेहरू भी उतरे थे। तब अम्बेडकर ने ‘बैनर’ के रूप में एक नवगठित पार्टी ‘शिड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन पार्टी’ का प्रयोग किया था। वह पार्टी अभी मान्यता प्राप्त नहीं थी, इसलिए बाबा साहब को निर्दलीय ही माना गया था। उस चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी और हिन्दू महासभा ने भी अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। तब उन्हें चौथे स्थान पर धकेला गया था। इस पराजय ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस उनका सम्मान करते हुए उन्हें निर्विरोध जिताने का प्रयास करेगी। इस चुनाव से महज एक वर्ष पूर्व तक बाबा साहब नेहरू-मंत्रिमण्डल में कानून मंत्री के पद पर आसीन रहे थे।
उन्हें तोडऩे का सिलसिला वहीं नहीं थमा। वर्ष 1954 में वंडारा लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ। उन्होंने वहां से भी चुनाव लड़ा। मगर तब भी वह कांग्रेसी प्रत्याशी से ही हारे। पहली पराजय के बाद भी वह अस्वस्थ रहने लगे थे। इस दूसरी पराजय से तो वह बुरी तरह टूट गए थे। इसी अस्वस्थता के कारण 6 दिसम्बर 1956 को उन्होंने अंतिम सांस ले ली थी। बाद में उनकी वे पुस्तकें भी प्रकाशित हुई, जिनमें उन्होंने गांधी व नेहरू के राजनैतिक-चिंतन की कड़ी आलोचना की थी।
अब 58 वर्ष बाद उनके नाम पर जनाधार बटोरने का प्रयास वही लोग कर रहे हैं जिन्होंने उनके संसद-प्रवेश का रास्ता भी अवरुद्ध कर दिया था। ऐसे महान महानायक के प्रति श्रद्धा का तकाज़ा तो यह था कि इन ऐतिहासिक गुस्तािखयों के लिए राजनेता खेद व्यक्त करते और उनकी आत्मा से क्षमा याचना करते। लेकिन बाबा साहब तो अपने जीवन काल में ही ‘कैवल्यज्ञान’ प्राप्त कर चुके थे।
हर वर्ष 14 अप्रैल को देश में एक विशेष दिन होता है क्योंकि इस दिन बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की 135वीं जयंती मनाई जाती है। बाबा साहब का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में हुआ था। वे अपने समय के सबसे शिक्षित व्यक्ति थे और जीवनभर उन्होंने अस्पृश्यता और गरीबी के खिलाफ संघर्ष किया।
बाबा साहब का असली उपनाम अंबेडकर नहीं था उनका असली उपनाम ‘आंबावडेकर’ था। उनके पिता ने यह नाम स्कूल में पंजीकरण कराया था। इसके बाद उनके एक शिक्षक ने उन्हें अंबेडकर उपनाम दिया। क्यों परिवर्तन हुआ, यह स्पष्ट नहीं। उनके समकालीन नेताओं की संतानें व परिजन बहुत आगे निकल गए लेकिन बाबा साहब का परिवार? यह प्रश्न अनुत्तरित रहेगा।