धार्मिक पर्यटन का नया केंद्र ‘बड़ा मंदिर’
धार्मिक पर्यटन का नया केंद्र बना छतरपुर का बड़ा मंदिर…
छतरपुर-दिल्ली का ‘बड़ा मंदिर’ पिछले लगभग डेढ़ दशक से न केवल ‘सैलिब्रिटीज़’ व सम्भ्रांत (इलीट) की प्रमुख शख्सियतों के लिए आकर्षण का केंद्र है बल्कि सामान्यजन भी दर्शनार्थ अपनी बारी की प्रतीक्षा में रहते हैं। कभी कोई प्रवचन नहीं दिया, न ही ग्रंथों की व्याख्या। यह विशुद्ध रूप से लाखों की ‘आस्था’ से जुड़ा है। गुरु जी का शाश्वत शरीर अब मौजूद नहीं है। वह 30 मई, 2007 को ही अनंत की यात्रा पर निकल गए थे। मगर उनके लाखों श्रद्धालु अभी भी उनकी सशरीर मौजूदगी को अपने आसपास महसूस करते हैं। उनके आध्यात्मिक आभामण्डल में केवल नामी-गिरामी बॉलीवुड हस्तियों की ही लम्बी फहरिस्त नहीं है, बल्कि दर्शनार्थ आने वालों की सूची में लालकृष्ण अडवाणी, राजनाथ सिंह, मेनका गांधी, हेमा मालिनी, दिवंगत ऋषि कपूर व उनका परिवार आदि के नाम भी शामिल हैं।
7 जुलाई, 1952 को लुधियाना के समीप डुगरी गांव में जन्मे निर्मल सिंह को शुरुआती दौर में एक ऐसे घुमक्कड़ संत के रूप में सामान्य लोग जानते थे। धीरे-धीरे आसपास के लोगों को उनके गिर्द एक रहस्यमय आभामण्डल महसूस होने लगा था। अब लगता है शायद मैं उन गिने-चुने ‘सौभाग्यशाली’ व्यक्तियों में से एक था जिन्हें ‘गुरुजी’ के बेहद करीब रहने का मौका मिला लेकिन तब कभी-कभी लगता है कि इस मामले में मैं दुर्भाग्यवान भी था कि इतने करीब रहकर भी उनके जीवनदर्शन व अध्यात्म दर्शन को समझ नहीं पाया। उनके अपने बारे में प्रारंभिक जानकारी मुझे गुरुजी के मुख से सुनने को मिली थी, जब वह लम्बे प्रवास के लिए पंचकूला आए थे। वहां उनका ठिकाना एक पूर्व सेना-जनरल का निवास था। जनरल उनके श्रद्धालुओं में से थे।तब यह नियम था कि गुरुजी अपने दो-चार अन्य सेवकों के साथ मुझे भी अपने साथ पंचकूला में ही स्थित टोपियारी पार्क में ले जाते। मेरा उनसे प्रारंभिक परिचय एक चिकित्सक के रूप में था।
उन्हीं सैर के दिनों में ही गुरुजी ने मुझे सीधी- सादी भाषा में अपना सांसारिक परिचय दे दिया था। मेरा सीधा ‘प्रश्न’ था, ‘गुरुजी संन्यास कब लिया?’ उत्तर था जन्म के साथ ही लेकिन तुम संन्यास का जो अर्थ लगाते हो, उसके अनुसार तो बरसों लगे थे।’ उनके द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार उनका जन्म 7 जुलाई, 1954 को मलेरकोटला के समीप डुगरी गांव में एक सामान्य परिवार में हुआ था। तब नाम था निर्मल सिंह जो बाद में निर्मल सिंह जी महाराज के नाम से पहचाना जाने लगा था। उनकी ‘माताजी’ ने एक बार बताया था कि वैसे उनके परिवार में ‘पहले भी कुछ संत पुरुषों का जन्म हुआ था लेकिन मुझे पता नहीं था कि एक ऐसे ऊंचे स्तर के संत की मां होने का गौरव मुझे प्राप्त होगा। मुझे प्रसव के समय मौजूद ‘दाई’ ने बाद में बताया था कि जिस दिन निर्मल सिंह महाराज का जन्म हुआ उसने उन क्षणों में एक दिव्य सांप दिखा था, जिसके माथे पर मणि चमक रही थी। तब एकाएक सारा कमरा रोशनी से भर गया था।
एक बार गुरुजी ने सैर के मध्य ही बताया था ‘प्राथमिक शिक्षा डुगरी में ही प्राइमरी स्कूल में हुई। बाद में मलेरकोटला के ही गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश लिया।’अंग्रेजी व अर्थशास्त्र में एमए तक शिक्षा प्राप्त की लेकिन गुरुजी का बोलचाल पूर्णतया ‘देसी’ ही था। जब आवश्यकता पड़ती अंग्रेजी भी शुद्ध उच्चारण में बोलते लेकिन सामान्य रूप से वह ठेठ पंजाबी में ही बोलते और पढ़ाई के दिनों में भी खेती के काम से जुड़े रहते। उन्हीं दिनों उनका झुकाव वहीं गांव में संत सेवादास के डेरे की ओर हो गया। संत सेवादास, सदा तप में ही लगे रहते थे। वहां पर अधिक समय बिताना गुरुजी के परिवार वालों को अच्छा नहीं लगता था लेकिन गुरुजी घरवालों के समझाने-बुझाने के बावजूद अपना खाली समय वहीं डेरे पर बिताते और वह समय आंखें मूंद कर तप करने में ही लग जाता था।
गुरुजी तपो-साधना में पूर्ण समय व्यतीत करने से पूर्व गृहस्थी थे। उनका परिवार भी था लेकिन अपने गृहस्थ के अलावा वह अपने शिष्यों को भी अपना परिवार ही मानते थे। उनका कहना कि गृहस्थ आश्रम में रह कर कठोर तप-साधना में लीन होना संन्यासी जीवन से भी अधिक कठिन है। उनका कोई आश्रम नहीं था। उनका दिया ज्ञान भी अत्यंत सरल भाषा में होता था। बस, उनके पास एक डायरी थी जिसमें श्रद्धालुओं के पते व संपर्क दूरभाष दर्ज रहते थे। वैसे कभी प्रवचन भी नहीं देते थे। न ही कोई दार्शनिक व्याख्या। वर्ष 1975 में गुरुजी ने अपना गांव छोड़ दिया। कुछ दिन संगरूर में शिक्षा विभाग पंजाब के कार्यालय में सेवारत भी रहे लेकिन उन दिनों भी रुझान तप-साधना की ओर ही रहता। उनकी जीवनशैली बिल्कुल अलग थी। मैं प्राय: उनके लिए उनकी बताई तकलीफों के लिए दवाएं बनाकर ले जाता।
एक दिन कहने लगे, ‘जानते हो डॉक्टर, मैं तुम से दवाएं क्यों मंगवाता हूं? दवाएं बाज़ार से भी मिल जाती हैं। पैसों का कोई अभाव नहीं है लेकिन अब मेरा शरीर पूर्णतया अध्यात्म के प्रकाश से भरा है। मैं तुम्हारे जैसे प्रिय श्रद्धालुओं को सेवा पर लगा देता हूं ताकि जो कुछ मैंने तप साधना से प्राप्त किया, उसका कुछ फल तुम लोगों से भी बांट दूं। यह सेवा है तुम्हारी ओर से।’
मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि शुरुआती दिनों में मैंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। स्वभाववश मैं हर साधू-संन्यासी का सम्मान भी करता था, वन्दन भी और यथासंभव सेवा भी। मेरा मित्र कहता, ‘गुरुजी, डॉक्टर को भी कोई वरदान दे दो?’ गुरुजी का उत्तर था, ‘इसके मुकद्दर में सेवा है। वह अवसर इसे मिल रहा है। फल वाहेगुरु देगा।’ बाद में गुरुजी के श्रद्धालुओं ने उन सभी स्थलों पर पूजा-अर्चना, संकीर्तन आरंभ किए जहां-जहां वह स्वयं ठहरा करते थे। जालंधर की डिफैंस कॉलोनी में भी एक मंदिर उनके नाम पर है। ऐसे ही संकीर्तन स्थल लोगों ने चंडीगढ़, पंचकूला व अन्य स्थलों पर बना रखे हैं। गुरुजी ने 90 के दशक में छतरपुर (दिल्ली के समीप) में एक विशाल शिव मंदिर का निर्माण कराया था। वहीं पर 31 मई, 2007 को उन्होंने अंतिम समाधि ली।
उनकी कुछ बातें विचित्र थीं। पहली बात, उनके निकट श्रद्धालु उन्हें शिव का अंशावतार मानते थे। गुरुजी स्वयं भी शिव-साधक थे। कई बार अपने कुछ श्रद्धालुओं से शिव स्तोत्र चाव से सुनते थे। दूसरी बात, यह थी कि गुरु ग्रंथ साहब में उनकी गहरी आस्था थी। किसी भी प्रश्न को स्पष्ट एवं विश्लेषित करने के लिए गुरुजी प्राय: गुरबाणी में से ही उदाहरण देते और एक ही बात कहते, ‘मन में ज्ञान का प्रकाश रखो। ‘अहम् भाव व्यागो बाहरी प्रकाश से कुछ भी हासिल नहीं होता। घर में ‘गुरु ग्रंथ साहब’ का प्रकाश हो और जीवन की दैनिक चर्चा में सिर्फ लोभ, मोह, अहंकार भरे हों तो गुरबाणी का प्रकाश भीतर कहां होगा।’नई दिल्ली में पंजाबी बाग के कपूर परिवार व उनसे जुड़े अन्य परिवारों में मैंने गुरुजी के प्रति जो अपार श्रद्धा देखी वह अद्भुत थी।
हर संकट के समय गुरुजी इस परिवार के पास पहुंच जाते, चाहे विदेश के अस्पतालों में उपचार की अवधि हो या दिल्ली के किसी अस्पताल में उपचार, गुरुजी की एक छोटी सी फोटो यह परिवार अपने साथ रखता है और गुरुजी देह छोड़ गए लेकिन अभी भी कई बार आभासी रूप में अपने श्रद्धालुओं को आ जाते हैं, किसी संकट समय पर याद करते ही।