बिहार में चुनावी वादाें के ‘बहार बा’
बिहार में चुनाव सरगर्मियां जोर पकड़ चुकी हैं। चुनावी मुद्दे उछाले जाने लगे हैं। पलायन और रोजगार सब से संवेदनशील चुनावी मुद्दा जुड़ा हुआ है। करीब 50 लाख बिहारी दूसरे राज्यों में पलायन कर नौकरी या मजदूरी अथवा रिक्शा चलाने का काम करते हैं और बिहार में रह रहे अपने परिवारों का पेट पालते हैं। अधिकांश प्रवासी बिहारी असंगठित और प्राइवेट क्षेत्रों में काम करते हैं। छठ पर्व सम्पन्न होने के बाद कितने लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने के लिए बिहार में रहेंगे या वापिस अपने काम धंधों पर लौट जाएंगे यह भी तय नहीं है लेकिन बिहार के चुनावी दौर में राजनीतिक दलों के वायदों से ऐसा लगता है जैसे बिहार में नौकरियों की बहार आ चुकी है। राजद नेता और महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने चुनावी घोषणापत्र यानि तेजस्वी प्रण जारी करते हुए न केवल युवाओं, महिलाओं और कर्मचारियों को लुभाने वाले वायदे किए हैं बल्कि इन्हें चेंज मेकर का नारा देकर बिहार के बदलाव का प्रतीक बना दिया है।
देखने में तो ये वादे न केवल आकर्षक लगते हैं, बल्कि बिहार की बेरोजगारी (लगभग 15%) और पलायन जैसी समस्याओं को सीधे निशाने पर लेते हैं। फिर भी, इनकी व्यावहारिकता, वित्तीय बोझ और विपक्ष के हमलों ने इन्हें जोखिम भरा बना दिया है। तेजस्वी यादव ने अपनी यात्राओं और प्रेस कॉन्फ्रेंसों के जरिए एक के बाद एक वादे किए, जो मुख्यतः रोजगार, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय पर केंद्रित हैं। इनमें से सबसे प्रमुख वादा है राज्य के हर परिवार को एक सरकारी नौकरी। तेजस्वी ने दावा किया कि महागठबंधन की सरकार बनते ही 20 महीनों में बिहार के हर परिवार (कुल 2.97 करोड़) को कम से कम एक सरकारी नौकरी दी जाएगी। इसके साथ ही जीविका दीदियों को स्थायी नौकरी और 30 हजार वेतन का वादा भी महत्वपूर्ण है। इस वादे के अनुसार बिहार की लगभग 2 लाख जीविका दीदियों (महिला स्वयं सहायता समूहों की सदस्य) को सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाना है। इसके साथ ही राज्य के सभी संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) कर्मचारियों- जो संख्या में लाखों हैं को स्थायी नौकरी का वादा पूरा करना आसान काम नहीं है।
दूसरी तरफ जनता दल (यू) अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भरपूर सहयोग से रोजगार की एक बड़ी परियोजना घोषित की है। उनका वायदा है कि यदि उनकी सरकार बनी तो अगले पांच साल के दौरान एक करोड़ रोजगार मुहैय्या कराएंगे। यही नहीं मुख्यमंत्री ने ऐसा कोई विभाग, आंगनबाड़ी, समुदाय कर्मचारी, जीविका दीदी आदि को नहीं छोड़ा है जिसके आर्थिक संसाधनों में बढ़ौतरी न की हो। चुनावों की घोषणा से पहले ही नीतीश कुमार ने जीविका दीदी के खाते में 10-10 हजार रुपए डालने की घोषणा कर दी थी। चुनावी रेवडि़यों और समाज कल्याण की योजनाओं में बहुत महीन सा अंतर होता है। चुनावों के मौसम में इन्हें रेवड़ी माना जाए या समाज कल्याण की योजना, यह परिभाषित करना मुश्किल हो जाता है। जब भी चुनाव आता है तो हर पार्टी के नेता वादों की बौछार करते हैं लेकिन चुनावों के बाद वायदे बेअसर हो जाते हैं। तेजस्वी यादव ने हर घर एक सरकारी नौकरी का जो मुद्दा जनता के सामने पेश किया है उसको लेकर काफी चर्चा है। बिहार के 2.76 करोड़ घर परिवारों में से हर घर के एक सदस्य को सरकारी नौकरी मुहैय्या कराने पर लगभग 9 लाख करोड़ रुपए सालाना चाहिए। जबकि बिहार का बजट ही 3.17 लाख करोड़ का है और उस पर 4 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज है। जन सुराज के प्रशांत किशोर भी पलायन रोकने और नौकरी देने का वादा कर रहे हैं।
भाजपा नीत गठबंधन एनडीए यह सवाल उठा रहा है कि आखिर इतनी पूंजी आएगी कहां से। टीवी चैनलों पर लगातार बहस सुनने को मिल रही है लेकिन तेजस्वी यादव का कहना है कि उन्होंने इस विषय पर काफी अध्ययन किया है और वह अपने रोड मैप का भी शीघ्र खुलासा करेंगे। इतना ही नहीं आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का दाव खेलकर तेजस्वी यादव ने मास्टर स्ट्रोक खेला है। तेजस्वी ने सरकार में रहते हुए बिहार में जाति आधारित जनगणना पूरी होने के बाद आरक्षण बढ़ाने का फैसला लागू किया था। बाद में यह मामला अदालत में पहुंचा। अब तेजस्वी आरक्षण के बढ़े हुए दायरे को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल कर उसे स्थायी करवाने की बात कर रहे हैं। तेजस्वी की नजर त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों पर भी है आैर चुनावी वादों में यह तबका भी शामिल है। भाजपा-जद(यू) गठबंधन तेजस्वी की छवि को एक गैर जिम्मेदार सपने बेचने वाले नेता के रूप में गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। जाहिर है कि जब तक वादों को ठोस नीति में नहीं बदला जाएगा, वे केवल भाषणों की सजावट बने रहेंगे। महागठबंधन को चाहिए कि वह अपने घोषणापत्र को भावनात्मक अपील की बजाय आर्थिक व्यवहार्यता के साथ तैयार करे। यही रणनीति जनता में भरोसा जगाएगी और विपक्ष के हमलों को कमजोर करेगी। तेजस्वी यादव का करिश्मा, संवाद शैली और युवाओं से जुड़ाव उन्हें बिहार की राजनीति में एक बड़ा चेहरा बनाते हैं लेकिन उनकी पूरी चुनावी रणनीति धुआंधार वादों के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजनीति में कोई भी वादा तब ताकत बनता है जब उसमें विश्वसनीयता, यथार्थता और क्रियान्वयन की संभावना हो।
तेजस्वी यादव नौकरी के बदले प्लाट घोटाले में फंसे हुए हैं। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भले ही अभी अदालत में न साबित हुए हैं लेकिन एनडीए नेता उनके पिता लालू प्रसाद यादव के शासन ‘जंगल राज’ की याद दिला रहे हैं। दूसरी तरफ जनता में एक ऐसा वर्ग भी है जो यह मानता है कि जब महागठबंधन की सरकार आएगी तो वह धन की व्यवस्था कर लेगी। जनता को वादों के विश्लेषण की कोई चिंता नहीं है। तेजस्वी यादव ने घाेषणापत्र जारी कर बहुत बड़ा जोखिम भी उठाया है। अब देखना यह है कि बिहार की जनता तेजस्वी के प्रण को कितना स्वीकार करती है। तेजस्वी के संकल्प को अगर जनता स्वीकार करती है तो उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो सकती है। अगर जनता ने इसे खारिज किया तो यह उनके लिए बहुत बड़ा राजनीतिक झटका होगा।