पाकिस्तान के भीतर बलूचिस्तान का विद्रोह
1947 में जब भारत – पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो एक तरफ ईरान से और दूसरी…
1947 में जब भारत – पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो एक तरफ ईरान से और दूसरी तरफ अफगानिस्तान से लगा बलूचिस्तान एक स्वतन्त्र राज्य था मगर अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान इस प्रान्त वृहदर बलूचिस्तान के एक हिस्से को कुछ कबीलों के सरदारों से पट्टे पर लिया हुआ था। अतः जब अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को हिन्दोस्तान को दो राष्ट्रों भारत व पाकिस्तान में विभाजित किया तो इन पट्टे वाले क्षेत्रों के अधिकार पाकिस्तान को दे दिये जबकि बलूचिस्तान के कलात इलाके के शासक खान ने खुद को स्वतन्त्र घोषित किया। अंग्रेजों के सामने संयुक्त बलूचिस्तान का पक्ष रखने के लिए 1946 में कलात के खान ने मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना को ही अपना कानूनी सलाहकार बनाया जिन्होंने अंग्रेजों के समक्ष बलूचिस्तान का पक्ष रखा। भारत के स्वतन्त्र होने पर खान ने घोषणा की कि उनका देश एक धर्म निरपेक्ष देश रहेगा, मगर बाद में जिन्ना के तेवर बदल गये और मार्च 1948 में उसने कलात के खान से सैनिक दबाव में अपनी पूरी रियासत के पाकिस्तान में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर करा लिए, मगर इसमें बलूचिस्तान को ‘संयुक्त राज्य बलूचिस्तान’ कहे जाने के साथ ही इसका पृथक झंडा व संविधान की बात भी थी। 1956 तक बलूचिस्तान को संयुक्त राज्य बलूचिस्तान ही कहा जाता था और इसका ध्वज भी पाकिस्तान के ध्वज के साथ फहराया जाता था, लेकिन बलूचियों को जिस तरह जबर्दस्ती पाकिस्तानी नागरिक बनाया गया था उसके खिलाफ आम जनता में शुरू से ही विद्रोह का भाव था जो अब जाकर उबाल पर प्रतीत होता है। बलूची जनता खुद को पाकिस्तानी कहलाये जाने का शुरू से ही विरोध करती रही है और इस राज्य की कई तंजीमें विद्रोह का झंडा बुलन्द करती रही हैं। इनमें से ही एक बलूचिस्तान मुक्ति सेना (बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी) का गठन 1970 के आसपास किया गया था। यही सेना आजकल अपने इलाके में पाकिस्तानी सेना के जबर रवैये के खिलाफ विद्रोह का बीड़ा उठाये हुए हैं। मुक्ति सेना चाहती है कि जिस तरह भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के हकों के लिए आवाज उठाई थी वैसी ही आवाज यह बलूची लोगों के अधिकारों के लिए भी उठाए। सेना ने इसी सप्ताह में स्वतन्त्र बलूचिस्तान गणतन्त्र (रिपब्लिक आफ बलूचिस्तान) की स्थापना का भी एेलान किया और गुहार लगाई है कि नई दिल्ली में इसका एक अस्थाई दूतावास भी स्थापित करने की इजाजत मिले साथ ही सेना ने राष्ट्रसंघ से भी प्रार्थना की है कि वह स्वतन्त्र बलूचिस्तान का संज्ञान लें। वैसे भारत व बलोचियों के सम्बन्ध बहुत प्राचीन हैं और उनकी संस्कृति पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव भी देखने को मिलता है। हिन्दुओं की विभिन्न देवी शक्ति पीठों में से एक हिंगलाज देवी का शक्तिपीठ भी बलूचिस्तान में ही है जो मकरान की पहािड़याें में स्थित है। हिंगलाज देवी की समस्त हिन्दू जनता में भारी प्रतिष्ठा है। बलूच लोग भी हिंगलाज देवी को मानते हैं और साल में एक बार इस धार्मिक स्थान की यात्रा करते हैं और ‘दादी की हज’ का नाम देते हैं। बलूचिस्तान की स्वतन्त्रता के लिए पाकिस्तानी बलौच इतने बेचैन हैं कि वे पाकिस्तानी सेना के जुल्मो- सितम को पिछले सात दशकों से बर्दाश्त करते आ रहे हैं, मगर अब पाकिस्तान के पापों का घड़ा भरता जा रहा है जिसकी वजह से बलौच जनता सड़कों पर निकल आई है। बलूचिस्तान मुक्ति सेना ने चालू एक महीने में ही पाकिस्तानी फौज का 58 बार मुकाबला किया है और अपने कारनामों से पूरे पाकिस्तान को हिला कर रख दिया है। दरअसल अंग्रेज इतने शातिर थे कि जाते-जाते भी भारत के दो टुकड़े करके अपने लिए पाकिस्तान के रूप में एक सुरक्षित स्थान नियत कर गये। अंग्रेजों की सबसे बड़ी समस्या रूस से थी और वे चाहते थे कि मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकने के लिए उन्हें भारतीय उप महाद्वीप में एक उदासीन क्षेत्र (बफर स्टेट) चाहिए जिसका उपयोग वह रूस के खिलाफ वक्त पड़ने पर कर सकें। पाकिस्तान के निर्माण के पीछे भी यही मुख्य कारण था, क्योंकि माेहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की सारी शर्तें मान ली थीं और उन्हें विश्वास दिलाया था कि मौका पड़ने पर पाकिस्तान हिन्द- प्रशान्त समुद्री क्षेत्र तक में उनके लिए सैनिक छावनी का काम करेगा और मध्य एशिया में रूस को अफगानिस्तान में प्रवेश करने से रोकेगा, क्योंकि अफगानिस्तान से लगे कजाकिस्तान व तुर्केमिनस्तान आदि देशों पर रूस का कब्जा 19वीं सदी में ही हो चुका था।
अंग्रेजों को भारत को स्वतन्त्रता दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी और इसके नेताओं पर विश्वास नहीं था। उनका मानना था कि कांग्रेस के प. जवाहर लाल नेहरू आदि जैसे नेताओं का झुकाव सोवियत संघ के प्रति है जिसे अंग्रेज अपना दुश्मन नम्बर एक मानते थे। अतः अंग्रेज पाकिस्तान के रूप में अपने लिए बफर स्टेट का प्रयोग करना चाहते थे जिसमें सभी पश्चिमी यूरोपीय देश उनके साथ थे, जबकि इसके विपरीत अमेरिका मानता था कि उसके लिए सोवियत संघ के स्थान पर चीन बड़ा खतरा है अतः भारत का विभाजन न किया जाये और इसे चीन के खिलाफ मजबूती दी जाये, मगर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के विश्व शक्ति के रूप में उभर जाने पर अंग्रेजों को अपने हित सुरक्षित करने की गर्ज में भारत का विभाजन जल्दी में करना पड़ा जिस पर अमेरिका भी राजी हो गया। अमेरिका का हित यह था कि जितनी जल्दी अंग्रेज भारत से बाहर जाएंगे, उतनी जल्दी ही उसकी आर्थिक देयताएं कम होंगी, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर अग्रेजों की भारतीय सेना का वेतन भी अमेरिकी खजाने से जा रहा था। मगर जाते-जाते अंग्रेजों ने पाकिस्तान को सशक्त बनाने के लिए अपने हिस्से का बलूचिस्तान भी उसे दे दिया जिससे पाकिस्तान मजबूत हो सके। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल इतना बड़ा है कि 44 प्रतिशत पाकिस्तान इसी का हिस्सा है मगर इस राज्य की खनिज व प्राकृतिक सम्पदा पर पाकिस्तान के पंजाब राज्य का कब्जा है और अब इसमें चीन नया आयाम जुड़ गया है। बलूचिस्तान में तेल व गैस से लेकर सोने तक की खाने हैं मगर चीन के सहयोग से पाकिस्तान इस सम्पदा पर अपना कब्जा जमाये हुए है। हद तो यह है कि बलूचिस्तान की गैस बलूचियों को ही उपलब्ध नहीं है। बलूचिस्तान अरब सागर से भी छूता है और इसके ग्वादर बन्दरगाह पर चीन का कब्जा है। चीन व पाकिस्तान की सी पाक परियोजना भी बलूचिस्तान से ही होकर गुजरती है। इस परियोजना के लिए बलूचियों की जमीने कौड़ियों के भाव खरीदी गईं और बदले में उन्हें मजदूरी तक भी नसीब नहीं हुई। चीन और पाकिस्तान ने मिल कर बलौच जनता पर जुल्मों- सितम का दौर जारी रखा हुआ है।
वैसे पाकिस्तान के भीतर ही बलूचियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया है और पाकिस्तानी सेना जब चाहे बलूचियों का अपहरण कर लेती है, अभी तक हजारों की संख्या में युवा बलूचियों को पाक की नापाक सेना अगवा कर चुकी है। बलूचियों के मानवाधिकारों को पाक की सेना सरे आम जूतों तले रौंदती आ रही है और विश्व खास कर पश्चिमी देशों पर इसका कोई असर नजर नहीं आता है, जबकि मानवाधिकारों के लिए ये देश ही सर्वाधिक शोर मचाते हैं इसलिए बलौच भी अगर बंगलादेश की राह पर चल निकले हैं तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।