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वीर हकीकत के बलिदान का त्यौहार है बसंत

01:40 AM Feb 09, 2024 IST | Shera Rajput
वीर हकीकत के बलिदान का त्यौहार है बसंत

मां गौरां और भागमल का लाल हिंदू धर्म पर बलिदान हुआ। उम्र थी 15 साल। वैसे उसने जीवन का पंद्रहवां वसंत भी नहीं देखा था, पर अपने रक्त से भारत माता का अभिषेक करता हुआ धर्म की खातिर मुगलों के सामने झुका नहीं, सिर कटवा दिया। उसकी बलिदान की गाथा कहती है बसंत पंचमी।
बसंत ऋतुराज है। सारी प्रकृति मानो शृंगार कर रही है। शीत ऋतु के धुंध-कोहरे और भयानक सर्दी से त्रस्त, ग्रस्त प्रकृति मानो एक बार फिर अंगड़ाई लेकर खिल पड़ती है। रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती है। वैसे बसंत ऋतु बलिदानों का त्यौहार है। इस मौसम में कितने ही देश की स्वतंत्रता के दीवाने फांसी पर चढ़े और भारत का गौरव बना रहे, हिंदुत्व सशक्त रहे, इसलिए प्राण दे दिए। शहीद चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु भी बसंत की बांसती ऋतु में ही भारत माता के लिए बलिवेदी पर अर्पित हुए। महाकवि माखन लाल चतुर्वेदी की पुष्प की अभिलाषा इन शहीदों की भी थी-
मुझे तोड़ लेना वन माली,
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।
बसंत ऋतु के साथ ही उस बलिदानी की अमिट गाथा भी जुड़ी है जिसे जीवन का पंद्रहवां बसंत देखे बिना ही मुगलों ने लाहौर के भरे दरबार में शहीद कर दिया। यह शहादत की गाथा वीर हकीकत राय की है, जो सन् 1719 में पैदा हुआ और 1734 की बसंत पंचमी के दिन उसने अपने पवित्र रक्त से हिंदुत्व को मानों श्रद्धांजलि दी और वीर बेटे का रक्त भारत की धरती को सींच गया। पूरे देश की क्या बात करें, अपना हिंदू समाज भी हकीकत की हकीकत को भूल गया। देश के विभाजन सन् 1947 से पहले पंजाब के हर हिंदू और सिख परिवार में वीर हकीकत राय एक जाना-पहचाना नाम था। बसंत पंचमी हकीकत राय के बलिदान दिवस के रूप में मनाई जाती थी। लाहौर में जहां हकीकत राय की समाधि बनाई गई वहां बसंत के दिन बहुत बड़ा मेला लगता था।
देश विभाजन के पश्चात भी बसंत पंचमी का त्यौहार भारत में बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है और उसमें वीर हकीकत के बलिदान को भी याद किया जाता था। स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में विद्यार्थियों को हकीकत की जीवनी पढ़ाई जाती थी। किंतु धीरे-धीरे वीर हकीकत राय तथा अन्य वीरों की बलिदान गाथा को स्वतंत्र भारत की सरकारों ने पाठ्यक्रम से निकाल दिया। शायद यह एक सोची-समझी नीति के तहत किया गया जिससे नई पीढ़ी को अपने वीरों की शौर्य गाथा से अनभिज्ञ रखा जाए और उन्हें वह इतिहास पढ़ाया जाए, जिसमें मुगलों की विजय और भारतीय वीरों की राज्य की गाथाएं लिखी गई हैं।
पंजाब के स्यालकोट जो अब पाकिस्तान में है, 1719 में हकीकत राय का जन्म हुआ। हकीकत के पिता भागमल व्यापारी थे। ईश्वर भक्त, बड़े ही नेक व्यक्ति और धार्मिक जीवन जीने वाले। इनकी माता का नाम गौरां था। हकीकत बहुत कुशाग्र बुद्धि था। उसके पिता ने उसकी प्रतिभा को परखते हुए उसे फारसी पढ़ने के लिए मदरसे में भेजा, क्योंकि उन दिनों शिक्षा का प्रबंध मदरसों में ही किया जाता था। हकीकत की प्रतिभा से प्रभावित होकर मौलवी इसे बहुत प्यार करते, इसकी प्रशंसा करते। वीर हकीकत पर काजी ने आरोप लगाया है कि उन्होंने फातिमा बीबी फातिमा बीबी और इस्लाम के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं, अपमान किया है। मौलवी साहब जानते थे हकीकत पर झूठे दोष लगाए जा रहे हैं, पर काजी के आगे उनकी एक न चली। काजी ने एक ही बात कही-इस्लाम स्वीकार करे हकीकत या मौत के लिए तैयार रहे। जब लाहौर के निजाम के दरबार में काजी ने यह कहा कि इस लड़के की जान बचाने का अब एक ही रास्ता है, इसे इस्लाम कबूल करना होगा। उसे बहुत लालच भी दिए गए। हाथी-घोड़ों का, मनसबदारी का, बहुत बड़ी-बड़ी सौगातों का, पर हकीकत ने जो उत्तर दिया उसका वर्णन कवि ने सुंदर रूप से किया ः-
धर्म ईश्वर की अमानत है उसे बेचूं क्यों कर
धर्म के बदले मैं दुनिया का खरीददार नहीं
आत्मा मरती नहीं जिस्म को चाहे मारो
लोहे की, आग की, पानी की यहां मार नहीं
काट सकते हो तो बाहर का हकीकत काटो
काटती तो असल हकीकत यह तलवार नहीं।
इतिहास में ऐसा वर्णन है कि हकीकत राय के माता-पिता जब मुसलमानों के पांवों में सिर रखते थे तो काजी उन्हें कहता था-तुम काफिर अपने अपवित्र हाथ मत लगाओ। आखिर में हकीकत के माता-पिता ने भी उसे यही कहा कि तुम इस्लाम कबूल कर लो। कम से कम उनकी आंखों के आगे तो रहोगे। उनकी एकमात्र संतान बची रहेगी। इसका हकीकत ने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया और यह कहा धर्म पर मर मिटूंगा मैं, धर्म ही मुझको प्यारा है,
यही हमदर्द है मेरा, यही मेरा सहारा है।
पिताजी दीजिए आज्ञा मुझे चोला बदलने की।
सहमति मांगती आत्मा है बाहर निकलने की।
शेर की तरह गर्जते हुए हकीकत ने कहा-
मृत्यु की भीति से अपने स्वधर्म को न बदलूंगा
मरूंगा जान दे दूंगा, धर्म से मुंह न मोड़ूंगा
आखिर बसंत के दिन 1734 में हकीकत को शहीद कर दिया गया। एक इतिहासकार के अनुसार हकीकत का आधा शरीर जमीन में दबाया और उसे चारों ओर से पत्थर मारे गए। जब वह पूरी तरह से क्षत- विक्षत हो गया तो फिर जल्लाद ने उसका सिर काटा।
गुलामी के राज की विडंबना देखिए पूरे लाहौर के हिंदू इकट्ठे होकर निजाम के पास आज्ञा मांगने गए हकीकत का धर्म अनुसार अंतिम संस्कार करने की। आज्ञा मिली। सारा लाहौर हिंदू-सिख समाज उमड़ पड़ा। चंदन, गुलाब, तुलसी आदि की चिता बनाई गई, जैसा एक बड़ा मंच हो। सारे लोग रेशम हाथ में लेकर आए उसके शरीर पर डालने के लिए। उन सारे रास्तों पर जहां से हकीकत का शरीर जा रहा था फूलों की वर्षा होती रही। हकीकत सार्थक कर गया बलिदान कहादां है देश ते मरना, धर्म ते मरना। हकीकत अपना धर्म निभा गया। प्रश्न यह है कि हम आज अपने उन वीरों को क्यों भूल गए जिनके कारण आज भी हम गर्व से कहते हैं-हम हिंदू हैं। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्रों का बलिदान, हकीकत राय का बलिदान। मदनलाल ढींगरा, वीर ऊधम सिंह और भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, खुदीराम बोस और वीर नारी झलकारी, वीर बालिका मैना, कनकलता जैसे असंख्य वीरों का बलिदान हमे राष्ट्रहित सर्वस्व अर्पण की प्रेरणा देता रहेगा, पर उन्हें याद तो रखिए।

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- लक्ष्मीकांता चावला

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