बे-गैरत हुई सीबीआई!
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सीबीआई यानी केन्द्रीय जांच एजैंसी हमेशा विवादों में रही है। एक समय अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए जानी जाने वाली यह संस्था राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के मामले में अपेक्षित तेजी न दिखा पाने की वजह से भी निशाने पर रही है लेकिन यह सभी सच है कि सीबीआई ने कई महत्वपूर्ण मामले भी सुलझाए हैं। सीबीआई के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप नए नहीं हैं। इसके पूर्व निदेशकों पर राजनीतिक दबाव में काम करने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन 2018 तक आते-आते सीबीआई में जो आंतरिक घमासान मचा उससे तो प्रमुख जांच एजैंसी की साख पर जबर्दस्त आघात लग चुका है।
अपराधियों में खौफ और आम नागरिकों में विश्वास एवं भरोसे की प्रतीक माने जाने वाली संस्था के राजनीतिक इस्तेमाल की परम्परा की शुरूआत कांग्रेस ने ही की थी। बाद में यह परम्परा मजबूत होती गई। विडम्बना देखिये, आम आदमी जहां न्याय पाने के लिए खुद से जुड़े मामले की जांच इस एजैंसी से कराए जाने की इच्छा रखता है वहीं राजनेताओं और नौकरशाहों से जुड़े मसले में यह न्याय प्रायोजित घोषित हो चुकी है।
जब किसी नेता के खिलाफ सीबीआई केस दर्ज करती है तो वह शोर मचाने लगता है कि सरकार सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है और इस एजैंसी के माध्यम से विरोधियों को निपटाने का काम कर रही है। ऐसे में देश की सर्वोच्च जांच एजैंसी की पारदर्शिता, स्वायत्तता और काम का तरीका आम जनता के लिए मुद्दा बन चुका है। कभी सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई को सरकारी पिंजरे में बन्द ‘तोता’ करार दिया, कभी इसकी स्वायत्तता पर सवाल उठे। आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच सीबीआई निदेशक पद से हटाए गए आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की आपसी जंग ने सीबीआई को बे-गैरत बना डाला।
दोनों ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार और करोड़ों की रिश्वत लेने के आरोप लगाए। इसी बीच सीवीसी की सिफारिश पर आधी रात को कार्यवाही कर सरकार ने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजकर नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक नियुक्त कर दिया। नागेश्वर राव ने पद पर बैठते ही सीबीआई अफसरों के तबादले कर दिए। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सिलेक्ट कमेटी के बहुमत के फैसले के तहत आलोक वर्मा हटा दिए गए हैं, राकेश अस्थाना के खिलाफ प्राथमिकी रद्द करने की याचिका हाईकोर्ट द्वारा रद्द किए जाने के बाद वह भी हटाए जा चुके हैं। सीबीआई के अधिकारी अपने तबादलों के खिलाफ अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे हैं। नागेश्वर राव की अंतरिम प्रमुख के तौर पर नियुक्ति को भी कॉमनकॉज नामक संस्था ने चुनौती दे रखी है।
प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने इस याचिका की सुनवाई से स्वयं को अलग कर लिया है क्योंकि वह खुद नए सीबीआई चीफ का चुनाव करने वाली सिलेक्ट कमेटी के सदस्य हैं। अब जबकि नए सीबीआई चीफ की नियुक्ति के लिए बैठक होने वाली है तो अंतरिम चीफ नागेश्वर राव ने ताबड़तोड़ तबादले कर दिए। जिन अधिकारियों का तबादला किया गया है उनमें 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करने वाली यूनिट के अधिकारी भी शामिल हैं। नागेश्वर राव द्वारा किए गए तबादलों पर भी सवाल उठने लगे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई के घमासान पर जांच एजैंसी के पूर्व निदेशक मौन हैं। यूपीए सरकार में कई पूर्व निदेशकों ने सीबीआई को लेकर जमकर लेख लिखे थे। आये दिन उनके लेख अखबारों की सुर्खियां बनते थे।
सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक और हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी रह चुके बी.आर. लाल ने तो ‘सीबीआईः ए नेकेड ट्रुथ’ किताब लिख दी थी और कई मामलों में सनसनीखेज खुलासे किए थे। आज सीबीआई केवल दो खेमों में बंटी नजर नहीं आ रही बल्कि पूरी तरह से विखंडित हो चुकी है। हर किसी का अपना-अपना राग है। ऐसे लगता है कि अफसर ही एक-दूसरे से हिसाब चुकता करने की ताक में हैं। सब बेलगाम घोड़ों की तरह इधर-उधर भाग रहे हैं। इस आपाधापी का अन्त क्या होगा, इस प्रश्न का हल अभी फिलहाल नजर नहीं आता।
मैं स्वयं इस बात की वकालत करता रहा हूं कि सीबीआई जैसी संस्था काे पूर्ण स्वतंत्र सत्ता देना हमारे लोकतंत्र के हित में किसी भी तरह नहीं रहेगा। इसकी परोक्ष जिम्मेदारी संसद के प्रति रहनी चाहिए। सीवीसी और प्रधानमंत्री कार्यालय को सोचना होगा कि जांच एजैंसी में हर कोई बेलगाम क्यों हो रहा है? सिलेक्ट कमेटी को नए सीबीआई निदेशक पद पर ईमानदार अफसर की नियुक्ति शीघ्र करनी चाहिए और नए निदेशक को जांच एजैंसी की पूरी ओवरहालिंग करनी होगी। यह काम इतनी ईमानदारी आैर पारदर्शितापूर्ण ढंग से होना चाहिए ताकि लोगों का विश्वास एजैंसी पर कायम हो सके। अगर नियुक्तियां और तबादले राजनीतिक गणित के चलते हुए तो फिर संस्था कभी मजबूत नहीं हो पाएगी।