लाहौर में भगत सिंह गैलरी, मोहनजोदड़ो-विवाद
विभाजन-रेखा खींचने के बाद 77 वर्ष बीत चुके, मगर भारत व पाकिस्तान के बीच…
विभाजन-रेखा खींचने के बाद 77 वर्ष बीत चुके, मगर भारत व पाकिस्तान के बीच कोई न कोई विवाद या कुछ साझेदारी की बातें कुनमुनाती रहती हैं। अब मुद्दतों बाद एक सुखद खबर भी आई है। भारत-पंजाब के लाहौर में पुंछ हाउस नामक एक ऐतिहासिक इमारत में शहीदे आज़म भगत सिंह गैलरी के द्वार खोल दिए गए हैं। इस गैलरी में प्रदर्शित ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भगत सिंह की तस्वीरें, पुराने समाचार-पत्र, मुकद्दमे का विवरण और उनके पत्र, जीवन-यात्रा तथा स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ शामिल हैं। पाक-पंजाब के मुख्य सचिव ज़ाहिद अख्तर जमां ने बीते दिनों इस गैलरी का उद्घाटन किया। जमां ने कहा कि पंजाब सरकार के उद्योग, वाणिज्य और पर्यटन विभागों के बीच हुए समझौते के तहत पर्यटकों को गैलरी तक पहुंच मिलेगी। ‘पुंछ हाउस’ की ऐतिहासिक इमारत को उसके मूल स्वरूप में बहाल कर दिया गया है।
पाकिस्तान के पंजाब अभिलेखागार विभाग ने 2018 में पहली बार महान स्वतंत्रता सेनानी के मुकद्दमे से जुड़े कुछ रिकार्ड प्रदर्शित किए थे। इनमें मृत्युदंड का प्रमाण पत्र, चिट्ठियां, तस्वीरें, अखबार की कतरनें तथा अन्य सामग्री शामिल थीं। सिंह को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ साजि़श रचने के आरोपों के तहत मुकद्दमा चलाने के बाद 23 मार्च, 1931 को लाहौर में ब्रिटिश शासकों ने फांसी दे दी थी। उस समय वह महज 23 साल के थे। यह मामला भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के खिलाफ ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जान पी सांडर्स की हत्या के आरोप में दर्ज किया गया था। प्रदर्शन के लिए रखे गए रिकार्ड में भगत सिंह की अर्जी और याचिका भी शामिल है। इसमें भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह की अपने बेटे को फांसी के खिलाफ याचिका और 23 मार्च, 1931 को लाहौर जिला जेल में जेल अधीक्षक द्वारा उनके मृत्युदण्ड का प्रमाण पत्र भी शामिल है। इसमें अखबारों और पुस्तकों की अनुमति के लिए सिंह की अर्जी, बीसी वोहरा द्वारा नौजवान भारत सभा लाहौर के घोषणा पत्र से संबंधित कुछ अन्य रिकाॅर्ड और दैनिक वीरभारत समेत अन्य अखबारों की कई कतरनें भी शामिल हैं।
भगत सिंह की मौत की सजा की तामील के बारे में एक दस्तावेज में कहा गया है, ‘मैं (जेल अधीक्षक) यह प्रमाणित करता हूं कि भगत सिंह को सुनाई गई मौत की सज़ा को विधिवत निष्पादित किया गया है और तदनुसार भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को सोमवार रात 9 बजे लाहौर जेल में तब तक फांसी पर लटकाया गया जब तक कि उनकी मृत्यु नहीं हो गई। शव को तब तक नीचे नहीं उतारा गया जब तक कि एक चिकित्सा अधिकारी द्वारा यह पुष्टि नहीं कर ली गई कि उनकी मृत्यु हो चुकी है और इसमें कोई दुर्घटना, त्रुटि या अन्य अनहोनी नहीं हुई।
इसी संदर्भ में विवाद के एक मुद्दे की भी बात कर लें। यह मुद्दा वर्ष 1926 में मोहनजोदड़ो की खुदाई से जुड़ा है। इस खुदाई में एक निर्वस्त्र नृत्यांगना की तांबे की मूर्ति भी मिली थी। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार, इसका निर्माण ईसा से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व हुआ था। (1751 से 2300 ईसा पूर्व)। यह मूर्ति 1005 सेंटीमीटर लम्बी है और इसमें नृत्यांगना ने कलात्मक आभूषण भी पहने हुए हैं। यह मूर्ति ब्रिटिश पुरातत्व-विशेषज्ञ अर्नेस्ट मैके को 1926 में हुई खुदाई के मध्य मिली थी। इस समय भी यह मूर्ति नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद है। खुदाई के तत्काल बाद इसे व लगभग 12000 अन्य वस्तुओं को लाहौर के म्यूजि़यम में जमा कराया गया था।
मोहनजोदड़ो व कुछ प्राचीन मूर्तियां
उधर, भारतीय पक्ष का तर्क है कि यदि विभाजन-रेखा के आधार पर ही फैसले करने हैं तो मोहेन्जोदाड़ो व हड़प्पा के म्यूजि़यम खाली हो सकते हैं। कारण यह भी बताया जाता है कि पाकिस्तानी इस्लामी परम्पराओं में मूर्ति पूजा व निर्वस्त्र मूर्ति को कभी भी सहन नहीं किया जाता। जिस देश में संगीत व शास्त्रीय गायन पर समय-समय पर प्रतिबंध लगते रहे हों वहां इन पुरानी ऐतिहासिक महत्व वाली मूर्तियों को खण्डित किए जाने का खतरा बना रहेगा।
पुरातत्वविद व्हीलर के अनुसार, बहुत सारी पुरानी मूर्तियां खण्डित अवस्था में हैं जबकि खुदाई के समय उन्हें सुरक्षित निकाला गया था। यह खण्डित अवस्था वहां के तंत्र की उपेक्षापूर्ण-नीति का परिणाम है और यदि भारतीय संग्रहालय से कोई भी प्राचीन प्रतिमा या कलाकृति पाकिस्तान जाती है तो उसकी सुरक्षा यकीनी नहीं बनाई जा सकती। कलाकृतियों को लेकर विवादों का यह सिलसिला भी पिछले सात दशकों से जारी है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त कलाकृतियों पर शोध का सिलसिला नई दिल्ली के संग्रहालय में अब भी जारी है। उस बारे में इतना अवश्य बता दूं कि मोहेन्जोदाड़ो का समूचा स्वरूप व अतीत, भारतीय परिवेश पर आधारित है।
पाक प्रदेश सिन्ध के जिला लरकाना में स्थित मोहेन्जोदाड़ो का शाब्दिक अर्थ भी अद्भुत है। मोहनजोदड़ो एक सिंधी शब्द है और इसका अर्थ है, ‘मुर्दों का पहाड़ या टीला) वैसे मान्यता यही है कि इसका असली नाम कुछ और था। ईसा से लगभग 2600 वर्ष पूर्व मौजूद थी यह सभ्यता। प्राचीन सिन्धू घाटी सभ्यता व तत्कालीन शहरीकरण का यह एक अद्भुत नमूना थी। इसे मिस्री व मैसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यता की समकालीन भी माना जाता है। इस प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष सिंध प्रांत के लरकाना शहर से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर मिले हैं। यह स्थान सिन्धु नदी और घग्घर हाकड़ा नदी के मध्य स्थित है। सिन्धु नदी अब भी इसके पूर्व में मौजूद है मगर घग्घर हाकड़ा नदी पूरी तरह सूख चुकी है।
मोहनजोदड़ो (या जो भी नाम था उस समय) का निर्माण ईसा से 2600 वर्ष पूर्व हुआ था। यह निर्माण हड़प्पा-सभ्यता से मिलता जुलता था, जिसके विकसित स्वरूप के अनेक प्रमाण ईसा से 3000 वर्ष पूर्व के काल में भी मिले हैं। वैसे हड़प्पा संस्कृति का विस्तार एक ओर वर्तमान पाकिस्तान, दूसरी ओर उत्तर भारत, पश्चिम की ओर ईरान की सीमा व दक्षिण की ओर गुजरात की सीमा तक फैला हुआ है।
इसकी मुख्य शहरी आबादियों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोठाल, काली बंगा, ढोलावीरा और राखी गढ़ी शामिल हैं। उस समय की विकसित सिविल इंजीनियरिंग और शहरी-आयोजन का सबसे अद्भुत नमूना है मोहेन्जो-दाड़ो जो कि ईसा से लगभग 1900 वर्ष पूर्व ही उजड़ गया था। उसके बाद लगभग 3700 वर्ष तक इस शहर के अवशेष उपेक्षित रहे। आिखर 1922 में उस समय के भारतीय पुरातत्व विभाग के एक अधिकारी राखालदास बन्द्योपाध्याय को इस क्षेत्र का पता एक बौद्ध भिक्षु से मिला जो उसे एक टीले की ओर ले गया था। भिक्षु का दावा था कि वह टीला किसी बौद्धकालीन स्तूप का एक भाग था।