बिहार चुनाव : अंत तक यात्री
बिहार विधानसभा चुनाव निकट हैं। शुरुआती सर्वेक्षण एनडीए को मजबूत स्थिति में बताते हैं, किंतु राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामदलों के महागठबंधन को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह प्रारंभिक चरण है और राजनीतिक समीकरण कभी भी बदल सकते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में राहुल गांधी की 20 ज़िलों में फैली 1300 किलोमीटर लंबी पदयात्रा के प्रभाव को समझा जा सकता है। एक तरह से यह उनके लिए कोई नई बात नहीं है मानो वे शाश्वत यात्री हों।
गांधी की यात्रा राजनीति, यदि यह शब्द प्रयोग किया जाए की शुरुआत वर्ष 2022 में हुई थी, जब उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा निकाली। लगभग चार हज़ार किलोमीटर की इस पदयात्रा ने 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों को छुआ। यह यात्रा सितंबर में शुरू होकर 30 जनवरी 2023 को समाप्त हुई। इसका उद्देश्य था जनता से सीधे जुड़ना, राजनीतिक रूप से केंद्र में आना और अपनी प्रासंगिकता स्थापित करना। इसे सहज ही एक जन-आंदोलन और युवाओं के दुख-दर्द को समझने का प्रयास कहा जा सकता है।
राहुल गांधी ने उस समय कहा था -मैं सुबह छह बजे यात्रा शुरू करता हूं और रोज़ 25 किलोमीटर चलता हूं। इस अभियान में उनके साथ अनेक लोग जुड़े, जो उनके यूनाइट इंडिया संदेश के समर्थक बने। आलोचकों ने भले ही उनका उपहास उड़ाया लेकिन इस यात्रा ने उनकी छवि ‘पप्पू’ से बदलकर एक परिपक्व नेता की बनाई। उनका कथन ‘नफरत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलने आया हूं’ सांप्रदायिक विभाजन से जूझ रहे लोगों के दिलों तक पहुंचा। राहुल गांधी की दूसरी यात्रा भारत जोड़ो न्याय यात्रा लगभग दो वर्ष बाद आरंभ हुई। यह मणिपुर से शुरू होकर मुंबई में समाप्त हुई। तीन महीने की इस यात्रा में गांधी ने 15 राज्यों की पदयात्रा की। इस बार उन्होंने भारत जोड़ो में एक नया शब्द जोड़ा, न्याय। इसका उद्देश्य था किसानों की परेशानी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और असमानता जैसे मुद्दों को रेखांकित करना।
तीसरी यात्रा, जो वोट अधिकार यात्रा है। इसमें गांधी ने जनता के मौलिक मतदान अधिकार पर बल दिया। उन्होंने वोट चोरी का मुद्दा उठाया, यह आरोप लगाते हुए कि सत्तारूढ़ दल ने भारत निर्वाचन आयोग की मिलीभगत से मतों की चोरी की है। विपक्ष का दावा है कि बिहार में हुए स्पेशल इंटेंसिव रिव्यू (एसआईआर) के कारण लाखों लोग मतदान से वंचित कर दिए गए। मतदाता सूची में जीवित लोगों के नाम मृतक के रूप में अंकित कर दिए गए और इस प्रकार की कई अनियमितताएं सामने आईं। तकनीकी पहलुओं और आंकड़ों से इतर जो बात असरदार साबित हुई वह थी वोट चोरी की यह राजनीति। यह केवल गांधी या यात्रा की नहीं, बल्कि उस वर्ग की कहानी है जिसे सत्ता में बैठे लोग लगातार हाशिए पर धकेलते रहे हैं। यही जनसंपर्क उनकी सबसे बड़ी ताकत साबित हुआ। इसमें जोड़ा गया नारा ‘वोट चोर गद्दी छोड़’ भी लोगों को खूब भाया। हाल ही में पटना की सभा में राहुल गांधी ने युवाओं से कहा ‘वोट चोरी का मतलब है अधिकार की चोरी’ रोजगार की चोरी, शिक्षा की चोरी, लोकतंत्र की चोरी और युवाओं के भविष्य की चोरी। वे आपकी ज़मीन और राशन छीनकर अडानी और अंबानी को देंगे। सभा में मौजूद भीड़ ने इसे ज़ोरदार समर्थन दिया।
रिपोर्टों के अनुसार वोट चोरी और अंबानी-अडानी का दोहरा मुद्दा बिहार के मतदाताओं के बीच गहरी पकड़ बना रहा है। इस विवाद का एक जातीय पहलू भी है। विपक्ष का आरोप है कि मतदाता सूचियों में किए गए विलोपन का उद्देश्य यादवों, मुसलमानों, दलितों और पिछड़ी जातियों की ताक़त को कमज़ोर करना है। तथ्य यह है कि यही जातियां आरजेडी, वामदलों और कांग्रेस का मज़बूत सामाजिक आधार मानी जाती हैं। 2024 की ओर लौटें तो उस समय इंडिया गठबंधन ने भी जाति को चुनावी मुद्दा बनाया था और कहा था कि बीजेपी सत्ता में आई तो संविधान को ‘टुकड़े-टुकड़े’ कर फेंक देगी। वही संविधान जिसने दलितों और पिछड़ों सहित अनेक वर्गों को अधिकार प्रदान किए।
उतनी ही ताक़तवर है वोट चोरी की राजनीति। यदि इसे सोच-समझकर इस्तेमाल किया जाए तो यह सत्तारूढ़ दल की संभावनाओं को गंभीर क्षति पहुंचा सकती है। बिल्कुल वैसे ही जैसे 2024 में संविधान बचाओ का नारा असरदार साबित हुआ था। उस समय राहुल गांधी पूरे देश में संविधान की पॉकेट कॉपी लेकर निकले थे और चुनावी सभाओं में उसे लहराकर भाषण देते थे। इसके बाद आए नतीजों में बीजेपी बहुमत से बाहर हो गई, जबकि इंडिया गठबंधन ने अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए 234 सीटें जीतीं, बीजेपी को 240 सीटों पर रोक दिया।
अब यह देखना शेष है कि वोट चोरी अभियान विपक्ष को चुनावी लाभ दिला पाएगा या नहीं। फिलहाल यह अनिश्चित है परंतु इतना तय है कि बीजेपी में बेचैनी है। इसी कारण उसने हमले तेज कर दिए हैं। एक केंद्रीय मंत्री ने कांग्रेस की तुलना महाभारत के दुष्ट राजा कंस से की, जबकि बीजेपी के एक सांसद ने गांधी की पूरी कथा को झूठ पर आधारित बताया। इसमें प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी माता के नाम पर सहानुभूति जगाने की कोशिश भी जोड़ दीजिए।
फिर भी, इस राहुल यात्रा से कुछ महत्वपूर्ण संदेश निकले हैं, 2024 के चुनाव जैसी विपक्षी एकजुटता की झलक, ज़मीनी स्तर पर नई ऊर्जा, कांग्रेस संगठन का पुनरुत्थान और सबसे अहम गांधी का बीजेपी और उसकी शासन शैली के लिए एक बड़े चुनौतीकर्ता के रूप में उभरना।
दृश्य भी उल्लेखनीय रहे, राहुल गांधी के विशाल कटआउट, फूलों की वर्षा, भारी संख्या में उमड़े स्त्री-पुरुष, बदलाव की उम्मीद से भरे किसान और वह कांग्रेस जो लगभग 35 वर्ष पहले बिहार की राजनीति में हाशिए पर चली गई थी, अब फिर से दिखने लगी है। इन तमाम बिंदुओं पर राहुल यात्रा को सफल कहा जा सकता है। हालांकि असली परीक्षा तो आने वाले बिहार चुनावों के नतीजों के बाद होगी। भारतीय चुनावों ने बार-बार दिखाया है कि भीड़ का जुटना हमेशा वोट में तब्दील नहीं होता।