बिस्मिल- अशफाक और नागरिकता
यह संयोग है कि आज भारत के महान शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और पठान मुसलमान अशफाक-उल्ला- खान का शहीदी दिवस है जिन्हें मात्र क्रमशः 30 व 27 साल की उम्र में अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था।
04:05 AM Dec 19, 2019 IST | Ashwini Chopra   
यह संयोग है कि आज भारत के महान शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और पठान मुसलमान अशफाक-उल्ला- खान का शहीदी दिवस है जिन्हें मात्र क्रमशः 30 व 27 साल की उम्र में अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। ये दोनों ही शाहजहांपुर (उ.प्र.) के निवासी थे। अशफाक के पिता का परिवार खानदानी पैसों वालों का था और उनके पिता खुद पुलिस की नौकरी में कोतवाल थे। ब्रिटिश भारत में कोतवाल का रुतबा शहर के निजाम के मालिक के तौर पर देखा जाता था। क्रान्तिकारी संघर्ष के जरिये भारत को आजादी दिलाने की धुन में भारत माता के सपूतों को पांच अन्य साथियों के साथ 19 दिसम्बर 1927 को फांसी की सजा सुनाई गई थी। 
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  इन सपूतों के वकीले सफाई की भूमिका किसी और ने नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के लौहपुरुष कहे जाने वाले मुख्यमन्त्री रहे कांग्रेसी नेता स्व. चन्द्रभानु गुप्ता ने निभाई थी। इससे उस दौर के स्वतन्त्रता आन्दोलन के व्यापक ओज को आज की पीढ़ी को समझने में अपने दिल-दिमाग खोल कर विचार करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती की चर्चा उस दौर में  केवल क्रान्तिकारी संगठनों में ही नहीं बल्कि अहिंसक तरीके से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले कांग्रेस संगठन में भी होती थी। दोनों के रास्ते अलग-अलग थे मगर लक्ष्य एक ही अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का था।
 संयोग यह है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नये संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ दायर 60 याचिकाओं को सुनने की स्वीकृति देते हुए केन्द्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए इसकी सुनवाई 22 दिसम्बर से तय की है और इस कानून पर स्थगनादेश देने से इनकार कर दिया है। असल मुद्दा नागरिकता देने में धर्म का संज्ञान लेना ही है और मुस्लिम समाज को इसके दायरे से बाहर करना है। आजादी की लड़ाई में ‘बिस्मिल- अशफाक’ की दोस्ती की नायाब नजीर के निशानों को महफूज रखने का फन हमारी आने वाली पीढि़यां कैसे भूल सकती हैं ? 
इस कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से आ वाले हिन्दू शर्णार्थियों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है जिसका विरोध विपक्षी दल पुरजोर से कर रहे हैं और इस बारे में भारत के संविधान को बीच में लाकर कह रहे हैं कि किसी भी व्यक्ति को धर्म के आधार पर नागरिकता देने का इसमें पूरी तरह निषेध है अतः नया कानून संविधान विरोधी है और असंवैधानिक है। विपक्षी दल कल ही राष्ट्रपति को इस बाबत एक ज्ञापन सौंप कर आये हैं। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण घटना और हुई है कि पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी व्याख्यान समारोह में भारत के महान लोकतन्त्र की अन्तर्निहित वैचारिक विविधता व मतभिन्नता का सत्ता पर आसीन सरकार द्वारा संज्ञान लेने को लोकशाही का अंग मानते हुए विवेचना की कि भारत में 1952 के चुनाव को छोड़कर कभी भी सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार को 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला है
 अतः सरकार बनाने के लिए संसद में बहुमत सदस्यों की संख्या और मतों की संख्या में विलोम आंकड़ा रहा है। इस तथ्य के मद्देनजर सत्तारूढ़ पार्टियों को विपक्ष की राय का संज्ञान भी मतदाताओं के बहुमत के अनुपात में लेना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कहा कि संसद में लोकसभा सदस्यों की संख्या भी बढ़ाने का समय अब आ चुका है और लोकसभा की सदस्य संख्या एक हजार कर दी जानी चाहिए जिससे प्रत्येक सांसद अपने चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व पूरी जिम्मेदारी के साथ कर सके और इसी अनुपात में राज्यसभा व विधानसभा सदस्यों की संख्या भी बढ़ाई जानी चाहिए।
प्रणव दा एक–एक शब्द पूरी तरह नाप-तोल कर और वैज्ञानिक पैमाने पर नाप कर बोलने वाले राजनेता (स्टेट्समैन) हैं। अतः नये नागरिकता कानून के बारे में उन्होंने देश में व्याप्त माहौल का जिस तरह विश्लेषण किया है उसका संज्ञान लेना केवल सरकार ही नहीं बल्कि पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के हित में कहा जायेगा। असली मुद्दा यह भी है कि भारत को नागरिकता कानून में संशोधन करने की आवश्यकता क्यों है? भाजपा का यह कहना पूरी तरह उचित लगता है कि मुस्लिम देशों में धार्मिक आधार पर प्रताडि़त किये जाने वाले गैर मुस्लिमों विशेष कर हिन्दुओं को भारत में शरण मिलनी चाहिए, परन्तु पूर्व में सभी केन्द्रीय सरकारें यह कार्य करती रही हैं।
इसका प्रमाण पाकिस्तान की  वहां कम होती हिन्दू आबादी है जो 1947 में 23 प्रतिशत से घट कर तीन प्रतिशत के लगभग रह गई है। जाहिर है कि या तो धर्म परिवर्तन से यह आबादी कम हुई है अथवा हिन्दुओं के भारत मे आने से। 1947 में बंटवारे के बाद भारत के धर्म निरपेक्ष देश घोषित होने के बाद पाकिस्तान में पीड़ा सह रहे नागरिकों को भारत में शरण देने की घोषणा के पीछे बंटवारे की वह शर्त थी जिसमें दोनों ओर की हिन्दू-मुस्लिम आबादी को अपनी मनपसन्द का देश चुनने की आजादी भी दी गई थी, परन्तु हम उस मानवीय पीड़ा का अन्दाजा कैसे लगा सकते हैं जो किसी भी व्यक्ति को अपना मूल स्थान, देश व जमा-जमाया धन्धा या कारोबार पर छोड़ने पर होती है.? 
अतः इसके बीच धर्म को लाना कहीं न कहीं भाजपा विरोधी राजनैतिक दलों को खटक रहा है और वे इसे संविधान की मूल भावना के विरुद्ध मान रहे हैं, जबकि भाजपा का मत इसके ठीक उलट है, किन्तु भारत का सौभाग्य यह है कि इसका संविधान ही पूरे देश व देशवासियों को जोड़ने का बहुत कारगर औजार है जो बिना किसी धर्म की पहचान के पूरी तरह मानवीय आधार पर प्रत्येक व्यक्ति की पहचान इंसान के रूप में करके उसे नागरिकता प्रदान करता है यह नागरिकता देते हुए हिन्दू-मुसलमान की नहीं सोचता बल्कि भारत के प्रति उसकी निष्ठा के बारे में सोचता है। 
मगर संशोधित नागरिकता कानून में मुस्लिम धर्म के मानने वाले नागरिकों को निकाल दिया गया है जो विपक्ष की राय में भारत की समग्र पहचान को कट्टरपंथी मुस्लिम देशों के समकक्ष ही लाकर खड़ा करेगा इसके साथ ही बांग्लादेश मूलतः 1971 में धर्म निरपेक्ष देश भारत की भांति  इसके निर्माता शेख मुजीबुर्ररहमान ने बनाया था जिसे उनके परिवार की सामूहिक हत्या (शेख हसीना को छोड़कर क्योंकि तब वह विदेश में थीं) करने के बाद नाजिल हुए फौजी शासन ने कुछ वर्ष उपरान्त  इस्लामी देश घोषित किया। इसके बावजूद इसका राष्ट्रगान आज भी गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का ही लिखा हुआ है।
हालांकि पाकिस्तान बनने पर इसका कौमी तराना भी उर्दू के प्रसिद्ध हिन्दू शायर मरहूम जगन्नाथ आजाद ने ही लिखा था मगर वहां के तास्सुबी हुक्मरानों ने इसे बाद में बदल दिया। अतः हमें बांग्लादेश व पाकिस्तान में कायदे से फर्क करना सीखना चाहिए। बांग्लादेश के हिन्दू पर्व व तीज त्यौहार व धार्मिक- ऐतिहासिक इमारतें इस देश की धरोहर मानी जाती हैं जिसमें कोई धर्म बीच में नहीं आता है। 
‘पोहला बैशाख’ (बैसाख महीने का प्रथम दिन) इसका नववर्ष होता है। इस देश में हर नागरिक पहले बंगाली होता है उसके बाद वह हिन्दू, मुसलमान या बौद्ध होता है। इस देश की पाकिस्तान परस्त ‘जमाते इस्लामी’ जैसी पार्टी को यही तो खार है जिसकी वजह से वह इस्लाम के नाम पर आतंकवादी तंजीमों से सांठ-गांठ किये रहती है। हमें याद रखना चाहिए कि इस देश की प्रधानमन्त्री ने पिछले वर्ष कई महीनों तक ढाका उच्चायोग में पाकिस्तानी राजदूत को सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं किया था कि  वह अपने कार्यालय का उपयोग आतंकवादी गतिविधियां चलाने में करता था और भारत के खिलाफ जहर उगलने में सहयोग करता था।
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