भाजपा–नीतीश गठबन्धन
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केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और बिहार की सरकार पर काबिज जनता दल (यू) पार्टी के बीच आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर जो समझौता हुआ है उसके अनुसार दोनों पार्टियां राज्य की आधी–आधी सीटों पर लड़ेंगी। इससे यह स्पष्ट है कि बिहार में जद (यू) नेता व मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने सीटों के बंटवारे में स्वीकार कर लिया है कि उनकी क्षेत्रीय पार्टी का रुतबा इतना नहीं है कि वह भाजपा को कम सीटें लेने के लिए राजी कर सकते। दूसरी तरफ भाजपा ने भी जमीनी हकीकत को देखते हुए आधी सीटों पर लड़ने में ही भलाई समझी जबकि 2014 के चुनाव में इस पार्टी को 24 सीटें मिली थीं और नीतीश बाबू की पार्टी केवल दो स्थान ही जीत पाई थी। इसका राजनीतिक अर्थ यह भी है कि दोनों ही पार्टियों को चुनाव में विजयी होने के लिए एक-दूसरे की सख्त जरूरत है।
वैसे गौर से देखा जाए तो बिहार में नीतीश बाबू की पार्टी जद (यू) की प्रतिष्ठा लगातार नीचे गिर रही है और बाहैसियत मुख्यमन्त्री नीतीश बाबू लगातार उस पहचान के संकट से जूझ रहे हैं जो उन्होंने राज्य की राजनीति में सुशासन बाबू के नाम से अर्जित की थी। अपनी पार्टी में अब वह अकेले ही एेसे नेता बचे हैं जिसकी पहचान राज्य से बाहर भी है। उन्होंने अपनी पार्टी के फौलादी इरादों वाले नेता के रूप में जाने जाने वाले श्री शरद यादव के साथ जिस प्रकार का सुलूक वैचारिक मतभेदों के चलते किया उससे उनकी छवि अवसरवादी नेता की बनती गई और राज्य में उनके प्रमुख विरोधी नेता श्री लालू प्रसाद यादव ने हर राजनीितक हादसे को स्वर्ण अवसर में बदलने में महारथ हासिल कर लिया। दरअसल बिहार में जब पिछले विधानसभा चुनाव हुए थे तो नीतीश बाबू लालूजी के साथ हाथ मिला कर चुनाव लड़े थे और उसमें उन्हें भारी सफलता मिली थी परन्तु इसके बाद पिछले वर्ष नीतीश बाबू ने जिस तरह पलटी मारते हुए लालू जी की पार्टी से नाता तोड़ कर भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाई उससे भाजपा के हाथ में ऐसा ब्रह्मास्त्र आ गया कि वह जब चाहे नीतीश बाबू से दंडवत करा सकती है।
मगर राजनीति में हमेशा परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहतीं इसका प्रमाण स्वयं नीतीश बाबू ही हैं। क्योंकि 2015 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने लालूजी व कांग्रेस पार्टी के साथ गठबन्धन करके भाजपा को हराने में अपनी सारी ताकत लगा दी थी। मगर तब जद (यू) की ताकत के साथ लालू जी की ताकत भी मिली हुई थी लेकिन यह सोचना गलत होगा कि बिहार का जागरूक मतदाता उन सब समीकरणों से अनभिज्ञ होगा जो शिखर राजनीति में बड़े नेतागण मिल बैठ कर बनाते हैं। अतः कुल बीस–बीस सीटों का बंटवारा उस विपक्षी गठबन्धन के लिए बड़ी चुनौती होगा जिसके बनने की प्रक्रिया अभी तक शुरू ही नहीं हुई है। इस मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बाजी जरूर मारी है क्योंकि बिहार में यदि कांग्रेस पार्टी व लालू जी के राष्ट्रीय जनता दल व कम्युनिस्ट पार्टी आदि के बीच तालमेल सीटों के बंटवारे को लेकर अटकता है तो निश्चित रूप से लाभ की स्थिति में नीतीश बाबू ही रहेंगे।
इसके साथ ही श्री अमित शाह ने जद (यू) के साथ सीट समझौता करके विपक्षी खेमे को सन्देश दे दिया है कि उनका वह कथित महागठबन्धन स्थायी नहीं हो सकता जो अभी तक बना ही नहीं है लेकिन चुनावी नतीजे जमीनी हकीकत से निर्देशित होते हैं और नीतीश बाबू का बिहार से बाहर की राजनीति में असर नाममात्र का है। जबकि उन्हीं की पार्टी के अध्यक्ष रहे श्री शरद यादव का रुतबा गरीबों और किसानों व मजदूरों के मसीहा का है और उनकी राजनीति जातिवाद के बंधन तोड़ कर उस समाजवादी सिद्धान्त पर टिकी हुई है मेहनत, मजदूर और मिट्टी के लालों को सर्वोच्च दर्जे में रखा जाता है।
जाहिर है शरद यादव जैसा राजनीति का परिपक्व खिलाड़ी इस अवसर की ताक में बैठा हुआ जिससे वह बिहार में ही नीतीश बाबू की जमीन खिसका सके और उनके कुर्मी वोट बैंक को तितर-बितर कर सके। यह ताकत कांग्रेस पार्टी के पास भी नहीं है क्योंकि 1990 के बाद से अब तक 28 वर्ष का समय बीत चुका है इस पार्टी को राज्य में अभी तक कोई नेता एेसा नहीं मिल पाया है जो लालू, नीतीश, पासवान की राजनीति में सेंध लगा सके। बेशक श्री पासवान भी फिलहाल भाजपा के साथ हैं और इसे देखते हुए नीतीश बाबू का पलड़ा भारी भी नजर आता है मगर बिहार की मिट्टी की तासीर को देखते हुए यह संभावना लगातार बनी रहेगी कि लोकसभा चुनावों में वह कौन सी तस्वीर गढ़ेंगी किन्तु नीतीश-भाजपा गठबन्धन इस तथ्य का भी प्रतीक है कि भाजपा हर स्तर पर विरोधी पार्टियों को पटखनी देने के लिए अभी से जुट गई है जबकि कथित महागठबन्धन के नाम पर अभी तक सिर्फ तस्वीरें ही खिंचवाई जा रही हैं।