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प. बंगाल में भाजपा की रंगत

प. बंगाल के मिदनापुर में आज रैली करके गृह मन्त्री श्री अमित शाह ने चुनावी शंख फूंक दिया है। राज्य में भाजपा जिस तरह अगले वर्ष के मई महीने तक होने वाले विधानसभा चुनावों को जीतने के लिए चुनावी चौसर बिछा रही है उसे देखते हुए फिलहाल कहा जा सकता है कि वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के खेमे में बेचैनी का आलम है।

01:14 AM Dec 20, 2020 IST | Aditya Chopra

प. बंगाल के मिदनापुर में आज रैली करके गृह मन्त्री श्री अमित शाह ने चुनावी शंख फूंक दिया है। राज्य में भाजपा जिस तरह अगले वर्ष के मई महीने तक होने वाले विधानसभा चुनावों को जीतने के लिए चुनावी चौसर बिछा रही है उसे देखते हुए फिलहाल कहा जा सकता है कि वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के खेमे में बेचैनी का आलम है।

प  बंगाल में भाजपा की रंगत
प. बंगाल के मिदनापुर में आज रैली करके गृह मन्त्री श्री अमित शाह ने चुनावी शंख फूंक दिया है। राज्य में भाजपा जिस तरह अगले वर्ष के मई महीने तक होने वाले विधानसभा चुनावों को जीतने के लिए चुनावी चौसर बिछा रही है उसे देखते हुए फिलहाल कहा जा सकता है कि वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के खेमे में बेचैनी का आलम है। इस पार्टी से विधायक जिस तरह इस्तीफा दे रहे हैं उससे यही लगता है कि राजनीतिक वातावरण भाजपा के पक्ष में आवेशित हो रहा है। ममता मन्त्रिमंडल के कद्दावर नेता रहे शुवेन्दु अधिकारी का इस रैली में भाजपा में प्रवेश करना निश्चित रूप से मौजूदा वर्तमान ममता बनर्जी सरकार और उनकी पार्टी के लिए गहरा आघात है क्योंकि श्री अधिकारी 2006 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना के समय से ममता दी के साथ थे परन्तु आसनसोल के नगर पालिका प्रमुख जितेन्द्र तिवारी ने जिस तरह तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद 24 घंटे के भीतर ही उसे वापस लिया उसका भी कुछ राजनीतिक अर्थ है। यह भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि मार्क्सवादी पार्टी की एक विधायक भी अपना दल छोड़ कर भाजपा का दामन थामने को तैयार बैठी हैं।
 वैसे गौर से देखा जाये तो दल बदल प. बंगाल की राजनीतिक संस्कृति का अंग नहीं है। बेशक तृणमूल कांग्रेस को मुख्य कांग्रेस पार्टी का रूपान्तरण ही कहा जा सकता है मगर इसे सैद्धान्तिक रूप से पाला बदल की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि 1996 में ममता दी की बनाई गई तृणमूल कांग्रेस और मूल कांग्रेस में किसी प्रकार का सैद्धांतिक भेद नहीं था। ममता दी ने अपनी पार्टी सिर्फ इसीलिए बनाई थी क्योंकि तत्कालीन कांग्रेस हाईकमान उन्हें राज्य में तीन दशकों से राज कर रही मार्क्सवादी पार्टी के विरुद्ध खुल कर संघर्ष करने की इजाजत नहीं दे रही थी। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष स्व. सीताराम केसरी थे, परन्तु अब परिस्थितियों में बदलाव आता दिखाई पड़ रहा है क्योंकि भाजपा लगातार इस राज्य में ऊपर जा रही है।
 पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 40 प्रतिशत मत लेकर 18 लोकसभा सीटें जीती और तृणमूल कांग्रेस ने 44 प्रतिशत मत लेकर 22 सीटें जीती थीं, परन्तु 2016 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मात्र 11 प्रतिशत मत ही मिले थे, जो स्वतन्त्रता के बाद से विधानसभा चुनावों में उसका सर्वाधिक मत प्रतिशत था। जाहिर है 2021 में विधानसभा के चुनाव ही होंगे और प्रादेशिक स्तर पर भाजपा को अपनी ताकत में इजाफा करके दिखाना होगा। प्रादेशिक चुनावों की तुलना राष्ट्रीय चुनावों से किसी कीमत पर नहीं की जा सकती है क्योंकि इन चुनावों के मुद्दे बदल जाते हैं। प. बंगाल की जनता राजनीतिक रूप से बहुत प्रबुद्ध समझी जाती है और चुनावी मुद्दों के विश्लेषण में उसके बुद्धि चातुर्य को चुनौती नहीं दी जा सकती। इन चुनावों में देखने वाली बात यही होगी कि भाजपा दूसरे दलों से आये हुए नेताओं की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने समर्पित पार्टी नेताओं के प्रति कैसा व्यवहार करती है क्योंकि अटकलें लगाई जा रही हैं कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी से आने वाले महीनों में और बड़ी संख्या में विधायक टूट सकते हैं। जाहिर है इन विधायकों के लिए नई पार्टी में आना सत्ता प्रेम ही प्रमुख उद्देश्य रहेगा। अतः समर्पित भाजपा नेताओं और दल बदलू नेताओं में सन्तुलन बनाना पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा क्योंकि चुनावों में ममता दी का भाजपा पर सबसे ज्यादा आक्रमण इसी तथ्य को लेकर हो सकता है। वैसे ममता दी भी जमीन से उठकर संघर्ष करते हुए जन नेता बनी हैं और ऐसी राजनीति की प्रवाहक रही हैं जिन्होंने वामपंथियों के किले में घुस कर उन्हें पटखनी दी थी।
 2006 के विधानसभा चुनाव प. बंगाल के इतिहास में ऐतिहासिक चुनाव हुए थे क्योंकि इसमें मतदाताओं ने बैलेट के जरिये लोकतान्त्रिक क्रान्ति करके वामपंथियों को धूल चटा दी थी और उनका 37 साल पुराना राज समाप्त कर दिया था। ममता दी पिछले दस साल से राज्य की सत्ता पर काबिज हैं और भाजपा शासन को चुनौती देने की मुद्रा में आ गई है। यह चुनौती भाजपा अपनी बढ़ती लोकप्रियता के आधार पर दे रही है परन्तु यह भी हकीकत है कि राज्य में ममता दी के कद का भाजपा के पास कोई अपना नेता नहीं है। अतः चुनावों में यह नारा भी सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से गुंजाया जा सकता है कि ममता के सामने कौन?  चुनावों से पहले मुख्यमन्त्री पद के उम्मीदवारों की घोषणा करना भाजपा की रणनीति का ही अंग रहा है। अतः ममता दी की तरफ से उसे घेरने के लिए यह तुर्रा फेंका जा सकता है। इसकी तैयारी भी भाजपा को अभी से कर लेनी चाहिए। हालांकि प. बंगाल के पड़ोसी राज्य त्रिपुरा में दो वर्ष पहले जो शानदार सफलता प्राप्त की थी उससे इस पार्टी के हौसलों को निश्चित रूप से बुलन्दी मिली थी और वहां भाजपा को आम मतदाताओं ने बाहरी पार्टी नहीं समझा था, लेकिन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आम बंगाली मतदाता भाजपा को किस सैद्धांतिक तराजू में रख कर तौलता है। आजादी के बाद से इस राज्य की राजनीति धुर वामपंथी और मध्यमार्गी विचारों के ई​द​-गिर्द ही घूमती रही है मगर 2019 के लोकसभा चुनावों से राष्ट्रवादी विचारों की राजनीति ने जो स्थान बनाया है उसकी परीक्षा विधानसभा चुनावों में जरूर होगी।
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