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प. बंगाल की सियासत का रक्त चरित्र

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर हमले, उनकी हत्याओं और राजनीतिक हिंसा का इतिहास नया नहीं है। बीते लगभग पांच दशकों के दौरान राजनीतिक वर्चस्व के लिए हत्याओं और हिंसा को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।

01:41 AM Jul 17, 2020 IST | Aditya Chopra

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर हमले, उनकी हत्याओं और राजनीतिक हिंसा का इतिहास नया नहीं है। बीते लगभग पांच दशकों के दौरान राजनीतिक वर्चस्व के लिए हत्याओं और हिंसा को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।

प  बंगाल की सियासत का रक्त चरित्र
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पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर हमले, उनकी हत्याओं और राजनीतिक हिंसा का इतिहास नया नहीं है। बीते लगभग पांच दशकों के दौरान राजनीतिक वर्चस्व के लिए हत्याओं और हिंसा को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस दौरान सत्ता सम्भालने वाले चेहरे जरूर बदलते रहे, लेकिन उनका चाल-चरित्र जरा भी नहीं बदला। मशहूर बांग्ला कहावत है कि  ‘जेई जाए लंका सेई होए रावण’ यानी जो लंका जाता है वह रावण बन जाता है। लोग भी सियासी हिंसा के आदी हो चुके हैं। बीते छह दशकों में राज्य में लगभग 9 हजार लोग मारे जा चुके हैं। खूनी राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी गहरी हो चुकी हैं।
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ईस्ट इंडिया कम्पनी और गोरों का अत्यंत प्रिय रहा बंगलादेश  विभाजन के बाद से ही हिंसा का शिकार हुआ। विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बंगलादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर भी बंगाल में जबर्दस्त हिंसा हुई। 1979 में सुन्दरवन  इलाके में बंगलादेशी हिन्दू शरणार्थियों के नरसंहार को राज्य के इतिहास में आज भी याद किया जाता है। उसके बाद भी इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े। 60 के दशक में नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सली आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा का रूप धारण कर लिया। किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं। नक्सलियों ने जिस निर्ममता से राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं कीं, उतने ही हिंसक और बर्बर तरीके अपना कर तत्कालीन सं​युक्त मोर्चो की सरकार ने नक्सलवाद को कुचला। 1971 से 1977 तक कांग्रेस शासन के दौरान विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया गया। 1977 में वाम मोर्चा भारी बहुमत से सत्ता में आया। उसने भी यही तरीका अपनाया। लेफ्ट ने सत्ता पाने के बाद हत्या को संगठित तरीके से राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। 1977 से 2011 तक 34 वर्षों के शासनकाल में इतने नरसंहार हुए जितने किसी दूसरे राज्य में नहीं हुए। सीपीएम कैडर ने बंगलादेशी हिन्दू शरणार्थियों पर इतना जुल्म ढाया कि लोग जान बचाने के लिए समुद्र में कूद गए थे।
1982 में तो वामपंथी कैडर ने 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था। 2000 में वीरभूम जिला के नातूर में पुलिस ने राजनीतिक आकाओं की शह पर जबरन जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले 11 कांग्रेस समर्थक लोगों की हत्या कर दी थी। उसके बाद नंदीग्राम में खूनी खेल खेला गया। अधिग्रहण का विरोध करने वाले 14 निर्दोष ग्रामीणों को मार डाला गया। यहीं से वामपंथी शासन के पतन की शुरूआत हुई और तृणमूल कांग्रेस ने उभरना शुरू किया। 2011 से 2013 में राजनीतिक हत्याओं में बंगाल पूरे देश में टॉप पर रहा था। ममता बनर्जी ने 34 वर्षों के वामपंथी शासन को उखाड़ फैंका तो यह उम्मीद की गई थी ​कि प. बंगाल में हिंसा का दौर कम होगा लेकिन सियासत का रक्त चरित्र नहीं बदला। लेफ्ट के कैडर ने तृणमूल का पल्लू थाम लिया। राज्य में राजनीतिक हत्याओं का सिलसिला जारी है। तृणमूल के कार्यकर्ता भी मारे जा रहे हैं, भाजपा कार्यकर्ताओं की भी हत्या हो रही है। वामपंथी कार्यकर्ता भी मारे जा रहे हैं। पंचायत चुनावों में जबरदस्त हिंसा होती है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता दूसरे दलों के उम्मीदवारों को नामांकन ही भरने नहीं देते। ग्रामीण अंचलों में सियासत फायदेमंद सौदा बन गई है। विभिन्न विकास योजनाओं और केन्द्रीय योजनाओं के मद में मिलने वाली हजारों करोड़ की धन राशि से मिलने वाले कमीशन ने राजनीति को एक पेशा बना दिया है, जिसके चलते चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा अपनाया जाता है। राजनीतिक हिंसा के मामले में कोई दूध का धुला नहीं।
हाल ही में हेमताबाद के भाजपा विधायक देवेन्द्र नाथ राय का शव फंदे से लटका मिला तो इससे राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल उठना लाजिमी था। भाजपा ने विधायक की हत्या के लिए तृणमूल को कठघरे में खड़ा किया  है जबकि पुलिस इसे आत्महत्या करार दे रही है। भाजपा ने विधायक की हत्या का मामला राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा दिया, जबकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति महोदय को पत्र लिख कर आत्महत्या को राजनीतिक रंगत देने का आरोप लगाया है। हेमताबाद से देवेन्द्र नाथ राय सीपीएम की टिकट पर चुनाव जीते थे, लेकिन वह भाजपा में शामिल हो गए थे। अब उनकी संदिग्ध मौत का सच क्या है? अगर उनकी हत्या की गई है तो दोषियों को गिरफ्तार कर ​दंडित किया जाना चाहिए। अगर यह आत्महत्या का मामला है तो फिर इसे राजनीतिक रंग दिया जाना भी ठीक नहीं। क्या पश्चिम बंगाल में भाजपा का कार्यकर्ता होना गुनाह है? यह सवाल इस​लिए भी खड़ा होता है कि राज्य में अब  तक भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं की खबरें आती रहती हैं। तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल अब हिंसा के मामले में सबसे आगे बढ़ रहा है। चुनावी वर्ष में राजनीतिक हिंसा खतरनाक रूप ले सकती है। पश्चिम बंगाल सरकार को कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे अन्यथा वहां का लोकतंत्र जंगल राज में परिवर्तित हो जाएगा।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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