दिवाली ग्रीन पटाखों वाली
हर वर्ष दिवाली पर दिल्ली और एनसीआर के शहरों में धुएं का साया चढ़ जाता है। महानगर विषाक्त गैसों का चैम्बर बन जाता है। लोगों को सांस लेने में भी परेशानी होती है। लाख कोशिशों के बावजूद प्रदूषण कम होने का नाम नहीं ले रहा। दिल्ली में वायु गुणवत्ता अभी से ही प्रभावित होने लगी है। दिल्ली का एक्यूआई 300 के पार पहुंच गया है जो कि अति खराब श्रेणी में है। दीपावली का त्यौहार रोशनियों का त्यौहार है। शहरों से बाजार गुलजार हैं। भारत में बिना पटाखों के दीपावली के त्यौहार की कल्पना नहीं की जा सकती। पटाखों पर प्रतिबंध लोगों की जनभावनाओं के अनुकूल नहीं रहा। सच्चाई यह है कि पाबंदियां भी पटाखों को नहीं रोक पाई। इससे पटाखों की तस्करी बढ़ जाती है और नतीजा वही होता है कि हर साल दिवाली के बाद दिल्ली का दम घुटता है। दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपने पुराने आदेश में ढील देने का आग्रह करते हुए जनभावनाओं के दृष्टिगत ग्रीन पटाखे जलाने की अनुमति मांगी थी, जिसे शीर्ष अदालत ने स्वीकार कर िलया है। सर्वोच्च अदालत ने 18 से 21 अक्तूबर तक सुबह 6 से 7 बजे तक और रात 8 से 10 बजे तक ग्रीन पटाखे चलाने के लिए समय तय किया है।
सर्वोच्च अदालत ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है। हरियाणा के 22 जिलों में से 14 िजले एनसीआर में आते हैं। उत्तर प्रदेश के शहर भी एनसीआर में हैं। जब पटाखों पर प्रतिबंध लगाया गया था तो कोरोना के समय को छोड़कर एयर क्वालिटी में बहुत अंतर नहीं था। कोरोना काल में तो हिमालय की पर्वतीय शृंखला भी कुछ शहरों में साफ नजर आने लगी थीं। अर्जुन गोपाल मामले में फैसले के बाद ग्रीन पटाखों की अवधारणा पेश की गई थी। 6 वर्षों में ग्रीन पटाखों ने उत्सर्जन को काफी कम कर दिया है।
ग्रीन पटाखे ऐसे पटाखे होते हैं जो पारंपरिक पटाखों के मुकाबले पर्यावरण को कम नुक्सान पहुंचाते हैं। इनमें एलुमिनियम, पोटेशियम नाइट्रेट और सल्फर जैसे हानिकारक केमिकल्स या तो बहुत कम मात्रा में होते हैं या बिल्कुल नहीं होते। ग्रीन पटाखों में बेरियम पदार्थ नहीं होता है, जिसका इस्तेमाल पटाखों में ग्रीन कलर डालने के लिए किया जाता है। पारंपरिक पटाखे काले पाउडर, क्लोरेट्स और परक्लोरेट्स से बने होते हैं। ग्रीन पटाखों की खोज सीएसआईआर-नीरी ने की थी। ग्रीन पटाखों की पहचान सीएसआईआर-नीरी के हरे लोगो और पैकेट पर एन्क्रिप्टेड क्यूआर कोड से की जा सकती है।
जहां सामान्य पटाखे 160 डेिसबल तक शोर करते हैं, वहीं ग्रीन पटाखों की आवाज 110 से 125 डेिसबल तक होती है। वर्ष के इस समय में, मौसम, उत्सव की प्रथाएं और क्षेत्रीय कृषि मिलकर ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं जिसमें दिल्ली के आसपास वायु प्रदूषण स्वस्थ वायु के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से 300 गुना अधिक हो जाता है। मानसून का मौसम खत्म हो गया है। इसका मतलब है कि प्रदूषण अब नहीं बढ़ेगा और तापमान में गिरावट के साथ प्रदूषक वायुमंडल में नीचे ही रह जाएंगे। दिवाली मनाने का मतलब है अनियंत्रित पटाखे जलाना, जो हवा में भारी मात्रा में जहरीले रसायन छोड़ते हैं। फसल कटाई के बाद दिल्ली और आसपास के शहरों से सटे हज़ारों एकड़ कृषि भूमि पर पराली जलाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में पिछले एक हफ्ते से पराली जलाने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं, फिर भी पॉजिटिव सिग्नल यह है कि इस बार 6 राज्यों में पिछले 30 दिनों में सिर्फ 552 पराली जलाने की घटनाएं दर्ज हुई हैं, जो 2020 से सबसे कम हैं। अब सवाल यह है कि क्या दिल्ली के लोगों को दिवाली के बाद स्वच्छ हवा मिल पाएगी। इसको लेकर पर्यावरण अनुसंधानकर्ताओं की राय अलग-अलग हैं। अनुसंधानकर्ता बताते हैं कि ग्रीन पटाखे भी बड़ी मात्रा में उल्ट्रा फाइन पार्टिकल्स रिलीज करते हैं जो इंसान के फेफड़ों में काफी अन्दर तक जा सकते हैं। ग्रीन पटाखों पर भी सवाल उठ रहे हैं। वहीं पिछले कुछ सालों से पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर एक दूसरी बहस भी छिड़ चुकी है, इसका राजनीतिकरण हो गया है। कुछ नेताओं ने पटाखों पर लगाए प्रतिबंध को हिन्दू धर्म से जोड़ दिया है। दिल्ली में सर्दियों में वायु प्रदूषण अदृश्य नहीं रहता। जो अदृश्य रहता है वह है स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव। देश में हर साल 5 साल से कम उम्र के एक लाख बच्चे वायु प्रदूषण से होने वाली मौत का िशकार हो जाते हैं। लाखों लोग बीमारियों का िशकार होते हैं। इसके बावजूद समृद्धि की देवी लक्ष्मी का उत्सव मनाना एक गहरी विडम्बना है जिसका समाधान भारत को करना होगा। समृद्धि आैर स्वच्छ वायु के बीच टकराव नहीं होना चाहिए। बेहतर यही होगा कि लोग दिवाली के अंधकारमय पक्ष को समझें। दीप जलाएं प्रदूषण नहीं।